चीन के राष्ट्रपति श्री शी जिनपिंग ने भारत की दो दिवसीय अनौपचारिक यात्रा पर आने से पहले ही जिस तरह बीजिंग यात्रा पर आये हुए पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान के साथ हुई वार्ता के बाद भारतीय राज्य जम्मू-कश्मीर का उल्लेख करते हुए अपने रुख का इजहार किया है उससे भारतीय कूटनीतिज्ञों के लिए एक नई चुनौती खड़ी हो गई है कि वे किस प्रकार इस देश को सही रास्ते पर लायें क्योंकि पिछले दो सप्ताहों में चीन कश्मीर मुद्दे पर कई बार अपने रुख में अदल-बदल कर चुका है।
चीन को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि अक्साईचिन का भारतीय इलाका भी उसके अवैध कब्जे में है और दोनों देशों के बीच भी सीमा विवाद जारी है और वास्तविक सीमा रेखा निर्धारण होना अभी बाकी है। पाकिस्तान की पीठ थपथपा कर चीन केवल भारत के साथ अपने सामान्य सम्बन्धों में कसैलापन ही घोल सकता है जो उसके हित में भी नहीं है। भारत का रुख प्रारम्भ से ही चीन के साथ दोस्ती और भाईचारे का रहा है और हर मंच पर भारत ने पंचशील के शान्ति व सौहार्द के सिद्धान्तों की वकालत की है और साफ किया है कि केवल सह-अस्तित्व का मूलमन्त्र ही एशिया की दो महाशक्तियों भारत व चीन के बीच प्रगाढ़ता ला सकता है किन्तु फिलहाल चीन के रवैये से ऐसा लगता है कि वह अपनी शक्ति के मद में है और भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान की पीठ थपथपा कर भारत को दबाव में ला सकता है। यह उसकी गलतफहमी ही साबित होगी क्योंकि भारत की स्थिति अब बदलती दुनिया में 1962 जैसी नहीं है।
चीन को समझना चाहिए कि भारत अब एक वैध परमाणु शक्ति है और उसके परमाणु कार्यक्रम को दुनियाभर के देशों ने मान्यता दी है। बेशक चीन आज भी भारत का परमाणु ईंधन सप्लायर्स देशों का सदस्य बनने का विरोध कर रहा हो और इस मार्ग में लगातार बाधाएं खड़ी कर रहा है किन्तु उसके विरोध को अन्य परमाणु शक्तिधारी देश अनदेखा करके इस तरह भारत के प्रयासों का समर्थन दे रहे हैं।
जहां तक जम्मू-कश्मीर का प्रश्न है उससे चीन का सम्बन्ध केवल इतना ही है कि इसने संविधानतः भारत के इलाके पाक अधिकृत क्षेत्र का एक बहुत बड़ा हिस्सा 1963 में सौगात में पाक से ले लिया और यहां काराकोरम मार्ग बनाया और पाकिस्तान के पेशावर को इससे जोड़कर भारत के लिए खतरा पैदा किया किन्तु यह कार्य भी उसने पाकिस्तान की मार्फत भारत पर दबाव बनाने के लिए ही किया था और इसके पीछे पाकिस्तान के वजीरे आजम रहे मरहूम जुल्फिकार अली भुट्टो का दिमाग था जिसने 1962 में भारत के चीन से युद्ध हार जाने के बाद तत्कालीन पाकिस्तानी फौजी हुक्मरान जनरल अयूब को अपने कब्जे वाले कश्मीर का हिस्सा देने का रास्ता सिर्फ इसलिए सुझाया था जिससे पाकिस्तान अकेले अमेरिका के भरोसे न बैठा रहे मगर 1971 में क्या हुआ था? यह भी चीन को याद रखना चाहिए।
उसकी आंखों के सामने ही पाकिस्तान को बीच से चीर कर दो टुकड़ों में बांट दिया गया था और उसका काराकोरम मार्ग सूना रहने को मजबूर हो गया था। आज हालात और भी ज्यादा बदल चुके हैं। चीन के मुकाबले भारत दुनियाभर के देशों के लिए अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित स्थान इसलिए माना जाता है क्योंकि यहां लोकतन्त्र है। यही लोकतन्त्र भारत की सबसे बड़ी ताकत है जो चीन को दुनिया में भारत के मुकाबले निचले पायदान पर खड़ा कर देती है। यह हकीकत है जिसे चीन झुठला नहीं सकता। इसके बावजूद भारत हमेशा चीन के साथ ऐसे सम्बन्ध चाहता है जिससे पूरे एशिया में चीन व भारत आपसी सहयोग करके आगे बढ़ सकें।
अतः चीन को विचार करना चाहिए कि वह भारत के अंदरूनी मामलों में दखल देकर क्या हासिल कर सकता है जबकि जम्मू-कश्मीर में नागरिक अधिकारों के नाम पर पाकिस्तान जैसा बेनंग-ओ-नाम मुल्क जो शोर मचा रहा है वह उसके मजहबी एजेंडे का ऐसा भाग है जिसे इस्लामी मुल्कों ने ही ठुकरा दिया है। भारत के साथ 1972 के शिमला समझौते में ही पाकिस्तान अपनी कलम से खुद लिख चुका है कि वह कश्मीर मसले को आपसी बातचीत से ही शांतिपूर्ण माहौल में सुलझायेगा मगर जब पाकिस्तान की सरजमीं से लगातार पिछले तीस साल से भारत में दहशतगर्दी को बढ़ाया जा रहा हो तो भारत किस तरह उससे बातचीत कर सकता है।
पाकिस्तान की विदेश नीति का एक हिस्सा जब दहशतगर्दी बन चुका हो तो ऐसे मुल्क के साथ दौत्य सम्बन्धों के दायरे में किस तरह शान्तिपूर्वक वार्ता हो सकती है। इसलिए चीन के राष्ट्रपति को सबसे पहले पाकिस्तान से दहशतगर्दी खत्म करने के लिए कहना चाहिए और कश्मीर पर राष्ट्रसंघ के प्रस्ताव को भूल जाना चाहिए क्योंकि भारत ने 1972 में ही शिमला समझौते में इसे दफन कर दिया था और पाकिस्तान ने घुटनों के बल बैठ कर इसे कबूल किया था। बेशक प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से श्री जिनपिंग की बातचीत अनौपचारिक होगी मगर चीन ने तो औपचारिक रूप से कश्मीर पर पाकिस्तान का समर्थन कर दिया है। यह उसकी कुटिल नीति है जिसे भारत को
समझना होगा।