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चीन का पुनः अतिक्रमण रिकार्ड

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पाकिस्तान व अमेरिका को लेकर भारत की मौजूदा सरकार की कूटनीति व विदेश नीति जब बहस का मुख्य मुद्दा बनी हुई है उसी समय यह हकीकत सामने आयी है कि पिछले दो महीने अक्तूबर व नवम्बर के दौरान चीन ने 31 बार भारतीय सीमा में अतिक्रमण किया। तीन महीने पहले ही सिक्किम की सीमा पर स्थित तिराहे डोकलाम इलाके में दोनों देशों के बीच तनाव कम होने के बाद यह माना जा रहा था कि चीन भारतीय सीमा का सम्मान करते हुए अपनी हेकड़ी दिखाने से बाज आयेगा परन्तु यह अपेक्षा खरी नहीं उतरी। सीमा अतिक्रमण के ये आंकड़े भारत- तिब्बत सीमा पुलिस द्वारा ही रिकार्ड किये गये हैं अतः इस मामले में किसी प्रकार की राजनीति की गुंजाइश नहीं है। दरअसल यह आत्म विश्लेषण का समय है कि सरकार सोचे कि उसकी कूटनीति में कहां खामी है और किस स्तर पर उसे अंतर्राष्ट्रीय जगत में चीन के इस रवैये के प्रति विरोध का माहौल बनाना चाहिए। हमें लगातार यह ध्यान में रखना होगा कि चीन हमारा ऐतिहासिक रूप से ऐसा सबसे निकट का पड़ोसी है जिसकी सीमाएं हमारे भौगोलिक भाग से छह तरफ से खुली हुई हैं। इसके साथ ही चीन के साथ हमारे देश की सीमाओं का अन्तिम फैसला लटका हुआ है मगर यह वास्तव में चिन्ता की बात है कि डोकलाम विवाद के खत्म हो जाने के बाद 31 बार चीनी सेनाओं ने भारत की सीमा में प्रवेश करके यह सन्देश देने की कोशिश की है कि सीमा विवाद पर उनका नजरिया बदलने वाला नहीं है। असल में चीन कूटनीतिक रूप से यह लगातार भारत को जताता रहता है कि अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में अमरीका के साथ जितना ज्यादा भारत जाने की कोशिश करेगा उतनी ही ज्यादा वह अपनी नजर टेढ़ी करता जायेगा।

चीन की कूटनीति का यह प्रमुख हिस्सा बन चुका है कि वह दक्षिण एशिया समेत पूरे एशिया व हिन्द महासागर से लेकर प्रशान्त सागर क्षेत्र तक में अमरीकी प्रभाव और चौधराहट को चुनौती देने की स्थिति में आये। भारत की कूटनीतिक सफलता यही होगी कि वह इन दो शक्तियों की रंजिश में खुद को महफूज रखने के तरीके खोजे और उन पर अमल करता हुआ हिन्द महासागर क्षेत्र को किसी भी स्तर पर जंग का अखाड़ा न बनने दे मगर भारत में ऐसी स्थिति पैदा करने की कोशिश की जाती है कि यदि आसियान सम्मेलन में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प प्रशान्त महासागर से छूते इलाके को हिन्द महासागर क्षेत्र कह दें तो हम बांस पर चढ़कर उछलने लगते हैं और सोचने लगते हैं कि हमने कोई बहुत बड़ी कूटनीतिक विजय प्राप्त कर ली है मगर यह कोरा भ्रम है क्योंकि अमरीका का आज तक रिकार्ड है कि वह दोस्ती तभी तक निभाता है जब तक उसके हित सध रहे हों। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण पाकिस्तान है। अमरीका एक तरफ इस मुल्क को दहशतगर्दी का अखाड़ा भी बताता रहता है और दूसरी तरफ उसकी फौजी और वित्तीय मदद भी करता रहता है। मुम्बई हमले के मुख्य साजिशकार हाफिज सईद पर उसने इनाम भी घोषित कर रखा है और दूसरी तरफ हाफिज सईद पाकिस्तान में अपनी अलग से राजनीतिक पार्टी गठित कर रहा है। अमरीका के विदेशमंत्री इस्लामाबाद में जाकर हल्की सी ताईद करके आ जाते हैं कि दहशतगर्द तंजीमों पर लगाम लगनी चाहिए और वाशिंगटन पहुंच कर फिर से पाकिस्तान को इमदाद देने के मसले पर नरमी अख्तियार कर लेते हैं जबकि हकीकत यह है कि पाकिस्तानी फौज ही दहशतगर्दों की समानान्तर फौज खड़ी करती रही है।

डोनाल्ड ट्रम्प किसी एक वाकये से प्रभावित होकर घोषणा कर देते हैं कि पाकिस्तान से उनके सम्बन्ध सुधर रहे हैं। इसी से जाहिर है कि हमारा अमरीकी ताकत पर कूदना फिजूल है। ऐसा नहीं है कि अमरीका के इस रंग बदलने के चरित्र से भारतवासी वाकिफ न हों। 1965 का भारत–पाक युद्ध तब के पाकिस्तानी फौजी हुक्मरान ने सिर्फ अमरीकी मदद से ही लड़ा था जिसका उद्देश्य भारत की अर्थव्यवस्था को तहस–नहस करना था। 1971 में जब बंगलादेश का उदय हुआ तो अमरीका ने ही अपना सातवां एटमी जंगी जहाजी बेड़ा बंगाल की खाड़ी में लाकर खड़ा कर दिया था और परमाणु युद्ध का संकट पैदा कर दिया था वरना उसी समय स्व. इन्दिरा गांधी ने पूरे कश्मीर की समस्या को एक ही झटके में सुलटा दिया होता और पंजाब को भी इससे अलग कर दिया होता।

इतना ही नहीं इसके बाद हिन्द महासागर मे अमरीका ने दियेगो गार्शिया में परमाणु अड्डा बनाने की जो जिद पकड़ रखी थी उसे भी इंदिरा गांधी ने अपने सत्ता में रहते रोके रखा था और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर समर्थन हासिल किया था कि हिन्द महासागर क्षेत्र शान्ति क्षेत्र घोषित हो। इसकी एक ही वजह थी कि उस समय की प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता ने वह कल्पना कर ली थी कि अमरीका व चीन आने वाले समय में इसी क्षेत्र में उलझेंगे जिससे भारत के राष्ट्रीय हितों पर चोट होगी क्योंकि समूचा दक्षिण एशिया भारतीय संस्कृति के अवशेषों का जीता जागता उदाहरण है। अतः चीन की किसी भी एेसी हरकत को हल्के में नहीं लिया जा सकता जिसमें उसकी अकड़ या हेकड़ी का अहसास छिपा हुआ हो। इसके बावजूद चीन में इतनी भी हिम्मत नहीं है कि वह भारत से सीधे युद्ध का खतरा मोल ले सके क्योंकि इसका असर उस पर भी बराबर का विनाशकारी होगा। वह भारत के साथ सौहार्द सम्बन्ध स्थापित किये बिना अपनी आर्थिक ताकत को नहीं बढ़ा सकता। भारत को इसी अवस्था में अपनी सफल कूटनीतिक चालें चलनी होंगी और चीन को रास्ते पर लाना होगा वरना पिछले दो महीने में तो उसने उत्तराखंड के बारहोती तक के इलाके में अतिक्रमण किया और तिब्बत से लगे क्षेत्र में तो उसने वाहनों व नौकाओं तक में अपने सैनिक भारतीय क्षेत्र में भेजे।

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