देशभर में चिटफंड कम्पनियों ने लोगों को जमकर लूटा है। यह धंधा संकरी गलियों, बाजारों में ही नहीं बल्कि बड़े स्तर पर चला। प्राइवेट चिटफंड कम्पनियों पर नकेल कसने के लिए कारगर कानून के अभाव में लोग लुटते रहे, चिल्लाते रहे, किसी ने उनकी नहीं सुनी। पिछले कुछ दशकों में अनेक कम्पनियों ने करोड़ों लोगों को चूना लगाया। चिटफंड का धंधा करने वाले लोग लोगों का लाखों रुपया हड़प कर भागते रहे हैं लेकिन बड़ी चिटफंड कम्पनियों का बुलबुला जब फूटा तो लोगों को पता चला कि फर्जीवाड़ा कितना बड़ा है।
इस फर्जीवाड़े के तार राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं। 2009 में सत्यम कम्प्यूटस का घोटाला सामने आया था जो करीब 24 हजार करोड़ का था। इसे कार्पोरेट सैक्टर का सबसे बड़ा घोटाला माना गया। पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम, त्रिपुरा के पूर्वी गलियारे में दर्जनों की संख्या में कुकरमुत्ते की तरह घोटालेबाज पैदा हुए और उन्होंने कमजोर वर्गों को ज्यादा ब्याज का प्रलोभन देकर या अन्य तरीकों से लोगों का पैसा डकार लिया। घोटालेबाजों ने ऐसे इलाकों को चुना जो आर्थिक और वित्तीय रूप से काफी पिछड़े हुए थे और लोगों के पास निवेश के लिए साफ-सुथरे विकल्प नहीं थे। जाहिर है घोटाले के लिए इससे अच्छी जमीन नहीं मिल सकती थी।
पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित शारदा चिटफंड और रोज वैली घोटालों की गूंज भी सुनाई देती है। वर्ष 2013 में सामने आए शारदा घोटाले में लोगों से 34 गुना फायदा कराने के नाम पर निवेश कराया गया, लेकिन लोगों ने पैसा मांगा तो भांडा फूट गया। जब लोगों ने कम्पनी के एजैंटों को घेरा तो उन्होंने अपनी जान दे दी। यह घोटाला पश्चिम बंगाल ही नहीं बल्कि असम, ओडिशा तक पहुंच गया। शारदा ग्रुप ने चार वर्ष में कई राज्यों में 300 आफिस खोले और लगभग 40 हजार करोड़ इकट्ठा कर सारे आफिस बंद कर दिए। इसके तार तृणमूल कांग्रेस के नेताओं तक जुड़े रहे जिनकी जांच चल रही है। इसी तरह रोज वैली चिटफंड ग्रुप ने लोगों को दो अलग-अलग स्कीमों का लालच दिया और करीब एक लाख निवेशकों को करोड़ों का चूना लगा दिया।
इस घोटाले में भी बड़े नेताओं के शामिल होने की बातें सामने आ चुकी हैं। लोगों का पैसा डकार कर इसे निर्माण, रियल एस्टेट, इलैक्ट्रानिक मीडिया, होटलों और फिल्मों में लगाया जाता रहा है। चिटफंड कम्पनियों ने त्रिपुरा की स्थिति बदहाल करके रख दी है। त्रिपुरा की आबादी 37 लाख है और इसमें से 16 लाख लोगों को नुक्सान हो चुका है। राज्य का बजट 16 हजार करोड़ का है, जबकि चिटफंड कम्पनियों ने दस हजार करोड़ का घोटाला कर रखा है। चिटफंड कम्पनियों के लोकप्रिय होने के कारण भी हैं। पहला देश का बैंकिंग सिस्टम आम जनता को अपने साथ जोड़ने में असफल रहा और दूसरा देश की वित्तीय नियामक एजैंसियां पूरी तरह से विफल रहीं। कई वर्षों से ऐसी जरूरत महसूस की जा रही थी कि कोई ऐसा तंत्र स्थापित किया जाए ताकि लोगों का पैसा न डूबे।
अब जाकर चिटफंड संशोधन विधेयक 2019 को लोकसभा ने अपनी मंजूरी दी है। पोंजी स्कीम अवैध है और चिटफंड के कारोबार काेे वैध माना गया है। कानून में चिटफंड की मौद्रिक सीमा तीन बढ़ाने तथा ‘फोरमेन’ के कमीशन को 7 फीसदी करने का प्रावधान है। अनियमितताओं को लेकर चिंता सामने आने पर सरकार ने एक परामर्श समूह बनाया। 1982 के मूल कानून को चिटफंड के विनियमन का उपबंध करने के लिए लाया गया था। संसदीय समिति की सिफारिशों पर ही संशोधन लाए गए। चिटफंड के पैसे का बीमा करने और जीएसटी के बारे में जीएसटी परिषद को विचार करना है।
पारित कानून में स्पष्ट कहा गया है कि सिक्योरिटी जमा को सौ से 50 फीसदी करना उन लोगों के साथ अन्याय होगा जिन्होंने पैसा लगाया है। जिन लोगों ने पैसा लगाया है उन्हें उनका पैसा वापिस मिलना ही चाहिए। इस उद्देश्य के लिए सजा का प्रावधान भी किया गया है। निवेशकों को कानूनी संरक्षण भी दिया गया है। अब अहम सवाल यह है कि क्या नए कानून से चिटफंड उद्योग की छवि सुधरेगी, क्या निवेशकों का पैसा सुरक्षित रहेगा? इसलिए पूरी तरह से विनियमन जरूरी है। यह विधेयक असंगठित क्षेत्र के लिए पर्याप्त नहीं है।
पहले से चल रहे चिटफंड भी इस विधेयक के दायरे में नहीं आएंगे। चिटफंड कम्पनियों को राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त होता है, ऐसे में कानून क्या करेगा। चिटफंड को परिभाषित करने के लिए बंधुता फंड, आवर्ती बचत और प्रत्यय संस्था शब्दों का अंतस्थापित किया गया है। केवल नाम बदलने से कुछ नहीं होगा, जब तक चिटफंड कम्पनियों की पूरी निगरानी नहीं रखी जाती।