कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ और सुविज्ञ नेता माने जाने वाले कपिल सिब्बल ने अपनी पार्टी के बिहार विधानसभा चुनावों में प्रदर्शन पर जिस प्रकार की निराशा व्यक्त की है उससे यह निष्कर्ष तो निकाला जा सकता है कि पार्टी को अच्छे दिन लाने में अभी और समय लग सकता है परन्तु यह नहीं माना जा सकता कि कांग्रेस के दिन लदते जा रहे हैं। सिब्बल का यह कहना भी उचित है कि देश के विभिन्न राज्यों में जो उपचुनाव हुए हैं उनमें पार्टी का प्रदर्शन बहुत खराब रहा है जिससे यह परिणाम निकाला जा सकता है कि आम लोगों का कांग्रेस में विश्वास कम होता जा रहा है परन्तु यह परिणाम नहीं निकाला जा सकता कि कांग्रेस की विचारधारा में कहीं कोई खामी है। हां इतना जरूर कहा जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी का समर्पित कार्यकर्ताओं और निष्ठावान समर्थकों का दायरा सिकुड़ रहा है। इतना भी जरूर कहा जा सकता है कि बदलते वक्त की राजनीति के अनुरूप पार्टी स्वयं में वह परिमार्जन नहीं ला सकी है जिससे उसे चुनावी सफलता सुगमता से मिले।
इस मामले में सिब्बल का आंकलन सही लगता है कि पार्टी को देश की सड़कों पर उतर कर जनता के मुद्दों पर विपक्ष की प्रभावी भूमिका निभानी चाहिए। वास्तव में पिछली सदी का भारत का इतिहास कांग्रेस का इतिहास ही रहा है और यह नई 21वीं सदी चल रही है। सोचने वाली बात यह है कि पार्टी इस नई सदी की जरूरतों के मुताबिक स्वयं का कायाकल्प करे। यह कार्य किसी अकेले व्यक्ति के बस की बात नहीं है बल्कि सामूहिक रूप से पंचायत स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक एेसा करना होगा। सिब्बल को यह ध्यान रखना होगा कि उनकी पार्टी के भीतर समय-समय पर वैचारिक प्रयोग भी होते रहे हैं। आज की कांग्रेस उस उदार बाजारवाद या बाजारमूलक आर्थिक सिद्धान्त की कांग्रेस है जिसे स्व. प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिम्हाराव ने खड़ा किया था। यह कांग्रेस प. नेहरू व इन्दिरा गांधी के समाजवादी नजरिये के पूरी तरह उलट नीतियों की कांग्रेस है। अतः विरोधाभासों का होना बहुत स्वाभाविक है और इसके समानान्तर प्रखर वैचारिक सिद्धान्तों का राजनीति में प्रभावी होना सामान्य प्रक्रिया है जिसे हम भाजपा के प्रादुर्भाव के रूप में देख रहे हैं क्योंकि भाजपा अपने जन्मकाल से ही बाजारमूलक अर्थव्यवस्था की अलम्बरदार रही है। इसके साथ ही सामाजिक न्याय की लड़ाई मुखर होने की वजह से राजनीति में जातिगत वर्गों का गोलबन्द होना भी असामान्य नहीं माना जा सकता क्योंकि भारत में जाति ऊंच-नीच के भाव का पर्याय बन कर समतामूलक समाज की संरचना में अवरोध बनती रही है।
दुखद यह रहा है कि कांग्रेस पार्टी ने इन सभी समस्याओं का समय रहते नीतिगत निदान नहीं ढूंढा जिसकी वजह से वह 1984 के बाद से कभी अपने बलबूते पर लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं ला सकी। संगठनात्मक स्तर पर कांग्रेस का आन्तरिक ढांचा इस पार्टी के 1969 में पहले इंडीकेट और सिंडीकेट में बंट जाने के बाद ही टूट गया था मगर इसके बावजूद पार्टी केन्द्रीकृत नीतियों के आकर्षण में बन्ध कर चुनावी सफलताएं प्राप्त करती रही और राज्यों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक इसका काम तदर्थ चयन के आधार पर ही चलता रहा। यह परंपरा आगे भी बढ़ी और इस प्रकार बढ़ी िक सामने एक सशक्त विरोधी के उभरने पर भी इसने इस ओर ध्यान देना उचित नहीं समझा मगर इसके साथ यह भी हकीकत है कि इसी व्यवस्था के चलते पार्टी ने पिछले हाल के वर्ष में कई राज्यों में अच्छी चुनावी सफलता प्राप्त की जिनमें पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व झारखंड प्रमुख थे परन्तु इसके बाद 2019 मंे हुए लोकसभा चुनावों में पार्टी फिर से धराशायी होती नजर आयी और यह केवल 54 लोकसभा स्थान ही जीत पाई। अब बिहार विधानसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन बहुत निराशाजनक रहा और यह 70 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद मात्र 19 सीटों पर ही विजय दर्ज कर सकी। पार्टी को कुल 9.48 प्रतिशत मत ही मिले जो कि राजद के 23 प्रतिशत व भाजपा के 19 प्रतिशत व जद (यू) के लगभग 15 प्रतिशत के बाद चौथे नम्बर पर है, इन मत प्रतिशतों से राज्य में कांग्रेस के पुनर्जागरण की संभावना भी बहुत मद्धम दिखाई देती है जिसकी वजह से सिब्बल का एक समर्पित कांग्रेसी होने की वजह से चिन्तित होना लाजिमी है।
यह भी तार्किक लगता है कि इस मामले को अब कांग्रेस कार्य समिति के ऊपर विश्लेषण के िलए छोड़ना भी गैर तार्किक लगता है क्योंकि इस संस्था में भी नामांकित लोग ज्यादा हैं जो बेबाक तरीके से फर्ज अदायगी से मुंह मोड़ सकते हैं। फिर सिब्बल ने यह बताने की कोशिश की है कि भारत के हर राज्य और हर गांव में बिखरे पड़े कांग्रेस पार्टी के अवशेषों को संजो कर पार्टी की इमारत को फिर से बुलन्द किया जाये और इसके लिए नीतिगत संशोधन पार्टी की विचारधारा के अनुरूप ही किये जायें जिससे यह आम जनता के बीच ठोस विकल्प का अपना रुतबा न खो सके। जहां तक मैं समझ सका हूं सिब्बल यह कहना चाहते हैं कि पार्टी राष्ट्रवाद के बारे में अपने मन्तव्य को महात्मा गांधी, प. नेहरू व इन्दिरा गांधी के सैद्धान्तिक आइने में चमक पैदा करके दुनिया को दिखाने से पीछे न हटे। इंदिरा जी को कमजोर समझ कर जब पाकिस्तान ने युद्ध छेड़ा तो उन्होंने इसे बीच से चीर कर बांग्लादेश बनवा दिया और महात्मा गांधी ने मरते दम तक पाकिस्तान के वजूद को यह कह कर नकार दिया कि उनकी अन्तिम इच्छा है कि उनकी मृत्यु पाकिस्तान में हो। इसके मूल भाव को कांग्रेस अपनी नीतियों में बदलते समय के अनुरूप समाहित करे। जाहिर है कि यह आत्म विश्लेषण का समय न होकर ठोस कदम उठाने का समय है।