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नागरिकता, संविधान और अम्बेडकर

भारत का संविधान पूरे देश को एकता के सूत्र में बांधने वाला ऐसा कारगर दस्तावेज है जिसके चार सौ से ज्यादा पृष्ठों में कहीं एक बार भी किसी धर्म का नाम नहीं आया है जबकि इस देश में सैकड़ोंं मत-मतान्तरों के लोग रहते हैं।

भारत का संविधान पूरे देश को एकता के सूत्र में बांधने वाला ऐसा कारगर दस्तावेज है जिसके चार सौ से ज्यादा पृष्ठों में कहीं एक बार भी किसी धर्म का नाम नहीं आया है जबकि इस देश में सैकड़ोंं मत-मतान्तरों के लोग रहते हैं। यहां तक कि विभिन्न जातियों व उपजातियों में बंटे भारतीयों की किसी भी जाति का उल्लेख इस संविधान में नहीं है सिवाय इसके कि समाज के वंचित व दबे-कुचले लोगों के वर्ग की अनुक्रमांक सूचिका को जातिगत पहचान के जरिये इसने स्वीकारा है और उन्हें अनुसूचित जाति व जनजाति का नाम दिया है। 
संविधान के निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर ने पूरी वैज्ञानिकता के आधार पर भारतीयों में तर्क शक्ति का स्फुरण करने के लिए ही इसमें लिखा था कि सरकारें लोगों में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए कार्यरत रहेंगी। इसी लिए उन्होंने ऐसा क्रान्तिकारी कानूनी दस्तावेज भारत के लोगों को दिया जिसमें मानवीयता को ही आधार माना गया। मैं आज एक ऐसा ऐतिहासिक उद्धरण लिख रहा हूं जिसे भारत पर दो सौ साल तक राज करने वाले अंग्रेजों ने भलीभांति समझ लिया था। 
द्वितीय विश्व युद्ध में जब अमेरिका ने जापान के शहरों हिरोशिमा व नागासाकी पर परमाणु बम गिराया तो इसकी विभीषिका से जलते जापान की स्थिति के बारे में 1945 में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमन्त्री विंस्टन चर्चिल ने प्रतिक्रिया व्यक्त की कि ‘‘हम अमेरिका को बहुत बुद्धिमान समझते थे मगर वह नासमझ निकला। बम गिरा कर उसने जापान का विनाश करना चाहा। किसी देश के विनाश के लिए इसकी कतई जरूरत नहीं थी। 
अगर भारत से चार ब्राह्मण ले जाकर अमेरिका ने जापान में छोड़ दिये होते तो उसका विनाश पक्का था।’’ चर्चिल ने अपनी इस प्रतिक्रिया में भारत के पूरे इतिहास की पर्तें खोल कर रख दी थीं और वह राज भी बता दिया था जिसकी वजह से अंग्रेज भारत में दो सौ साल तक राज करने में कामयाब रहे। समाज में ऊंच-नीच, धार्मिक क्लेश व आर्थिक शोषण को जमाये रखने में ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने हर दौर में महत्वपूर्ण भूमिका इस प्रकार निभाई कि मानवीय अधिकारों के संघर्ष को टुकड़ों में बांट कर सत्ता की धाक के नीचे वंचित समाज के लोग हमेशा याचक बने रहें परन्तु यह विषय बहुत क्लिष्ठ है जिसका ब्यौरा किसी और अवसर पर लिखा जा सकता है। 
आज मौजू सवाल यह है कि संशोधिक नागरिकता कानून को लेकर देश में जिस प्रकार लोग हिन्दू-मुसलमान में बंट रहे हैं वह राष्ट्रीय एकता के लिए ही अशुभ माना जा सकता है। यह प्रश्न तीन मुस्लिम देशों में प्रताडि़त होने वाले गैर मुस्लिम नागरिकों को भारत में शरण देने के मुद्दे पर ही उठ रहा है। इसका निराकरण जितनी जल्दी हो उतना ही देश के लिए बेहतर होगा। यदि भारत की हिन्दू आबादी का ही आंकड़ा रखा जाये तो इसमें 74.5 प्रतिशत लोग अनुसूचित जाति, जनजाति व पिछड़े वर्ग के हैं। 
ये सभी लोग सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक रूप से पिछड़े हुए रहे हैं। इनमें भी अनुसूचित जाति व जनजाति के लगभग 23 प्रतिशत लोगों को तीन हजार वर्ष से भी ज्यादा समय से पूरी तरह शिक्षाविहीन व दीन-हीन बना कर केवल कथित ऊंची जातियों की सेवा के काम में लगा कर रखा गया। मगर बाबा साहेब के संविधान ने इसी वर्ग को समाज में बराबरी का दर्जा पाने का पुख्ता अधिकार दिया और उन्हें सही मायनों में इंसान माना। वरना ब्राह्मणवादी व्यवस्था के चलते तो दलितों का चेहरा देखना भी अशुभ माना जाता था और उनके साथ वार्तालाप तक करने को अक्षम्य कहा जाता था। उन्हें हाथ में कलम रखने की मनाही थी और जल तक दूर से ही पिलाने की हिदायत थी। 
अतः बाबा साहेब ने जो संविधान लिखा वह पूर्ण रूपेण समाज में क्रान्तिकारी बदलाव का औजार है। इस औजार के हर हिस्से में समाज को वैज्ञानिकता देने का प्रावधान है। हमें आज यह सोचना है कि एक देश के रूप में हम आगे की तरफ बढ़ रहे हैं या पीछे की ओर जा रहे हैं। किसी भी धर्मान्ध देश से भारत की तुलना करना नितान्त मूर्खतापूर्ण कार्य है परन्तु अपनी पुरानी गलतियों से हम कुछ सबक तो सीख सकते हैं। महाराष्ट्र से संविधान सभा के चुनावों में बाबा साहेब अम्बेडकर 1945 में चुनाव हार गये थे, परन्तु यह बंगाल ही था जिसने डा. अम्बेडकर को संविधान सभा में भेजा। 
इसके लिए वर्तमान में बंगलादेश के खुलना-जैस्सोर से सभा में पहुंच महाप्राण के नाम से विख्यात बैरिस्टर जागिन्दरनाथ मंडल ने इस्तीफा दिया और उनकी सीट से चुनाव लड़ कर बाबा साहेब संविधान सभा में पहुंचे परन्तु बंटवारा होने पर यह इलाका हिन्दू-बहुल होने के बावजूद पाकिस्तान को दे दिया गया जिसकी वजह से बाबा साहेब पाकिस्तानी संविधान सभा में जाते जिसका बाबा साहेब ने ब्रिटिश सरकार से विरोध किया और फिर उन्हें मुम्बई से सभा में लाया गया। 
असल में जैस्सोर-खुलना में दलित हिन्दू बहुसंख्या में थे और कुल हिन्दू जनसंख्या 52 प्रतिशत थी। जबकि बंटवारे के नियम के तहत 50 प्रतिशत से ऊपर के हिन्दू-मुस्लिम इलाके भारत या पाकिस्तान में जाने थे। हकीकत यह है कि असम के नागरिकता रजिस्टर से जो 19 लाख लोग वंचित रह गये हैं उनमें 11 लाख से ज्यादा हिन्दू हैं और इनमें भी 75 प्रतिशत दलित व पिछड़े वर्ग के हैं। 
कहने का मतलब यह है कि हमें राष्ट्रीय एकता के लिए सभी पहलुओं पर विचार करना चाहिए। नागरिकता कानून यदि हिन्दू-मुसलमान का सवाल उठा रहा है तो हमें चौकन्ना होकर पिछड़े व दलित समाज की चिन्ताओं के बारे में भी सोचना होगा। नागरिक सिर्फ वोटर नहीं होता है बल्कि वह देश के विकास में योगदान करने वाला पहला प्राणी होता है। हम सोचें और विचार करें।

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