भारत संविधान से चलने वाला देश है। अतः इसके हर प्रान्त की राजनैतिक सरकार को भी संविधान के दायरे में रहकर ही शासन चलाना पड़ता है। बेशक संसद के पास नये कानून बनाने व पुराने कानूनों में संशोधन करने का अधिकार होता है मगर यह भी संविधान के मूल ढांचे के साथ छेड़खानी नहीं कर सकती। भारत के 1955 में संसद द्वारा बनाये नागरिकता अधिनियम को भी इसी नजरिये से देखना होगा जिसकी धारा 6-ए में किसी भी अप्रवासी को भारत की नागरिकता देने की शर्तें हैं। असम राज्य में बंगलादेश से भारत में पलायन करने वाले लोगों को भारत की नागरिकता देने का मामला अक्सर विवादों में घिरा रहता है। इस सन्दर्भ में हमें 15 मार्च 1972 को भारत व बंगलादेश में हुई सन्धि की तरफ देखना होगा। यह सन्धि दोनों देशों के तत्कालीन प्रधानमन्त्रियों के बीच हुई थी जिस पर श्रीमती इन्दिरा गांधी व स्व. शेख मुजीबुर्रहमान ने दस्तखत किये थे। यह सन्धि 25 वर्षों के लिए की गई थी जो कि 1997 में पूरी हो गई थी।
इस सन्धि में स्पष्ट रूप से प्रावधान है कि दोनों देश एक-दूसरे की भौगोलिक सीमाओं का सम्मान करेंगे और किसी भी तीसरे देश को अपनी सीमा के भीतर सैनिक गतिविधियां चलाने की अनुमति नहीं देंगे। इसे दोस्ती, सहयोग व शान्ति की सन्धि भी कहा गया था। चूंिक बंगलादेश को पाकिस्तान के खूनी जबड़ों से निकालने में भारत की सेनाओं ने पूरी मदद की थी और बंगलादेश से आने वाले शरणार्थियों को भी पनाह दी थी। अतः इस शान्ति समझौते में यह प्रावधान था कि 24 मार्च, 1971 से पहले जो भी बंगलादेशी नागरिक भारत की पनाह में आया है वह दोनों देशों में से किसी एक को भी चुन सकता है। इसकी वजह यह थी कि 24 मार्च 1971 के बाद 25 मार्च 1971 से पाकिस्तान की फौजों ने पूरे बंगलादेश में कत्लोगारत का बाजार शुरू कर दिया था। पाकिस्तान की फौज ने तब अपने ही देश के लोगों के खिलाफ जुल्मो-सितम की नई तहरीर लिखनी शुरू करके लाखों नागरिकों की हत्या करने का अभियान शुरू कर दिया था जो 16 दिसम्बर 1971 तक चालू रहा था। आज का बंगलादेश उस समय तक पाकिस्तान का ही हिस्सा था जिसे पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था। 1971 के मार्च महीने में ही पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने अपने देश को बंगलादेश कहना शुरू कर दिया था और अपनी एक निर्वासित सरकार भी गठित कर ली थी। तब पाकितान के हुक्मरानों ने बंगलादेश के निर्माता शेख मुजीबुर्रहमान को जेल में डाल रखा था। अतः जब 16 दिसम्बर 1971 को भारतीय फौजों ने बंगलादेश के उदय की घोषणा की तो पूर्वी पाकिस्तान का अस्तित्व ही समाप्त हो गया और दुनिया के नक्शे पर एक नये देश की लकीरें खिंची। मगर इस बीच पाकिस्तान की फौजों ने पूरे क्षेत्र में जो जुल्मों-सितम ढहाया उसने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर द्वारा किये गये अत्याचारों की याद ताजा कर दी।
24 मार्च 1971 के बाद जो भी बंगलादेशी नागरिक आये थे उन्हें शरणार्थी का दर्जा दिया गया जिन्हें भारत की सरकार ने वापस बंगलादेश भेजा। 15 मार्च 1972 में हुए इन्दिरा-शेख समझौते में यह लिखा गया कि 24 मार्च 1971 तक जो भी बंगलादेशी नागरिक भारत के असम राज्य में आया था उसे उसकी इच्छानुसार भारत या बंगलादेश में से किसी एक देश की नागरिकता मिल सकती है। मगर इस तारीख के बाद आने वाले बंगलादेशी नागरिक को अपने देश लौटना पड़ेगा। भारत के नागरिकता कानून-1955 की धारा 6-ए के प्रावधानों के अनुसार ही भारत की तत्कालीन इन्दिरा सरकार ने व्यवस्था की थी जिसमें बन्धुत्व कायम करने हेतु विभिन्न उपाय दिये गये हैं। अतः देश के सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने 4-1 से फैसला दिया कि 6-ए धारा पूरी तरह वैध है। न्यायालय में इसे समाप्त करने हेतु कई याचिकाएं दायर की गई थीं। पूरे भारत को पता है कि 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने अप्रवासी नागरिकता अधिनियम को अवैध करार दे दिया था। इसमें यह प्रावधान था कि किसी भी नागरिक पर यह जिम्मेदारी रहेगी कि वह अपने वैध रूप से भारत या असम का नागरिक होने के प्रमाण पुलिस को दे। उस समय डाॅ. मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार थी। इसके साथ हमें यह भी मालूम है कि असम राज्य में विदेशी नागरिकता के मुद्दे पर वहां के छात्रों ने लम्बा आंदोलन चलाया था जिसके बाद 1985 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. राजीव गांधी ने आन्दोलनकारियों से समझौता किया था और उसमें भी यह कहा गया था कि बंगलादेश से भारत में आये नागरिकों के लिए 24 मार्च 1971 ही अंतिम स्वीकार्य तारीख होगी। अतः सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने धारा 6-ए को पूरी तरह वैध बताया है और इससे जुड़े सभी कानूनी पहलुओं की व्याख्या की है। 24 मार्च 1971 का असम के मामले में बहुत महत्व है क्योंकि इसका सम्बन्ध एक नये देश बंगलादेश की अस्मिता से भी है। इस तारीख के बाद आने वाले बंगलादेशियों को हम अप्रवासी नागरिक नहीं कहेंगे। मगर केन्द्र की वर्तमान सरकार ने नया संशोधित नागरिकता कानून भी बनाया है जिसके अनुसार तीन इस्लामी देशों पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बंगलादेश से आने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को भारत की नागरिकता मिल जायेगी लेकिन इसकी भी अन्तिम स्वीकार्य तिथि दिसम्बर 2014 रखी गई है। मगर इसे भी सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है।