सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण की इजाजत देकर भारतीय समाज की उस विडम्बना को स्वीकारा है जिसमें जातियों में भी उप-जातियां होती हैं। न्यायालय की सात सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने इस सन्दर्भ में अपने पुराने सभी फैसलों को बदला है। 2004 में सर्वोच्च न्यायालय की एक पांच सदस्यीय पीठ ने फैसला दिया था कि अनुसूचित जाति या दलितों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसमें एकरूपता है। सात सदस्यीय पीठ ने इस तर्क को बरतरफ करते हुए कहा है कि दलित समाज 'इकसार' नहीं है। विद्वान न्यायाधीशों ने इस मामले में भारतीय समाज की सच्चाई देखते हुए अपना फैसला 6-1 के बहुमत से दिया है। इस सात सदस्यीय पीठ में स्वयं मुख्य न्यायाधीश भी थे जबकि न्यायमूर्तियों में मनोज मिश्रा, बी.आर. गवई, विक्रम नाथ, पंकज मित्तल और सतीश चन्द्र शर्मा शामिल थे। यह जमीनी हकीकत है कि भारत के चतुर्वर्णी हिन्दू में जितनी भी जातियां हैं उनके भीतर भी सैकड़ों उपजातियां हैं और इन उपजातियों में भी ऊंची व नीची कही जाने वाली जातियां हैं।
यह कुप्रथा देश में सदियों से जारी है जिसमें एक ही समग्र जाति के लोग विभिन्न उपजातियों में बंट कर ऊंचे-नीचे समझे जाते हैं। इससे दलित समाज भी अछूता नहीं है। उदाहरण के लिए धोबी उपजाति के लोग भी अनुसूचित जाति में आते हैं मगर ये स्वयं को अन्य दलितों से ऊंचा मानते हैं। यह वर्गीकरण इतना तेज है कि दलित समाज में ब्याह-शादी भी अपनी उपजाति में ही करने की परंपरा है। 21वीं सदी का दौर शुरू हो जाने के बाद भी इसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है। यह बीमारी केवल हिन्दू समाज में ही हो एेसा नहीं है क्योंकि मुस्लिम व ईसाई समाज में भी यह रिवाज है। जाहिर तौर इस्लाम धर्म पर यह हिन्दू समाज का ही प्रभाव है क्योंकि इस्लाम में जाति की अवधारणा ही नहीं है। बल्कि मुसलमानों में दलितों के समान ही अशराफिया मुस्लिमों की अवधारणा है। अतः पठान, शेख, सैयद जैसी जातियां उच्च वर्ग में मानी जाती हैं जबकि जुलाहे, सक्के, तीरगर, आतिशगर, लुहार या अन्य छोटा- मोटा धंधा करने वाले पसमान्दा माने जाते हैं। हिन्दू दलितों में खटीक व धनगड़ या वाल्मीकी तथा रैदासी आदि सबसे निचले पायदान पर समझे जाते हैं। अतः जब दलित समाज में वर्गीकरण स्पष्ट है तो इसे स्वीकार क्यों नहीं किया जाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले के बाद यह सवाल राजनैतिक प्रतियोगिता का विषय नहीं होना चाहिए और दलितों में सबसे पिछड़े हुए लोगों को भी विशेष संवैधानिक संरक्षण मिलना चाहिए जिसकी तरफ न्यायमूर्तियों ने इशारा किया है। मगर यह काम राजनीतिज्ञों को ही करना होगा क्योंकि संविधान में अनुसूचित जातियों को आरक्षण दिया हुआ है। दलित कोटे में अगर अति पिछड़ी उपजातियों को चिन्हित करके विशिष्ट आरक्षण दिया जाता है तो इसमें किसी को एेतराज क्यों होना चाहिए? सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया है वह संविधान में उल्लिखित 'बराबरी' के सिद्धान्त पर ही दिया है। क्या यह सच नहीं है दलितों व आदिवासियों को मिले आरक्षण के अधिकार का लाभ एक विशेष उपजाति के लोग ज्यादा उठा रहे हैं और इस समाज के सबसे निचले पायदान पर पड़े हुए लोग आज भी हाशिये पर ही पड़े हुए हैं। एेसी सभी दलित उपजातियों को भी आरक्षण का वांछित लाभ दिया जाना चाहिए। एेसा ही वर्गीकरण आदिवासी समाज में भी है। इस समाज को मिले आरक्षण का लाभ भी प्रायः गिने-चुने उपजातियों के लोग ही ज्यादा उठा रहे हैं।
दलितों को आरक्षण का आश्वासन महात्मा गांधी ने 1932 में तब दे दिया था जब उन्होंने बाबा साहेब अम्बेडकर के साथ पुणे में समझौता किया था। डा. अम्बेडकर मांग कर रहे थे कि दलितों का पृथक निर्वाचन मंडल होना चाहिए। गांधी जी ने इसका पुरजोर विरोध किया था और दलितों को हिन्दू समाज का अभिन्न अंग माना था। गांधी ने यह स्वीकार किया था कि हिन्दुओं की कथित उच्च जातियां दलितों के साथ पशुओं से भी गिरा हुआ व्यवहार करती हैं। उन्हें समाज की मुख्यधारा का अंग बनाने के लिए बापू ने इसके बाद राष्ट्रव्यापी छुआछूत मिटाओ अभियान चलाया और इन्हें हरिजन कहा। गांधी जी लगातार 1937 तक स्वयं अश्पृश्यता निवारण अभियान चलाते रहे जिसकी वजह से उन पर इस दौरान कई बार जानलेवा हमले भी हुए। गांधी जी ने डा. अम्बेडकर से वादा किया था कि दलित समाज को स्वतन्त्र भारत में विशेष आरक्षण दिया जायेगा। उन्होंने पृथक चुनाव मंडल के स्थान पर इसकी व्यवस्था करने की गारंटी दी थी। इसे हम संयोग बिल्कुल नहीं कह सकते कि भारत का संविधान एक दलित नेता डा. अम्बेडकर ने लिखा। यह राष्ट्रपिता का ही प्रयास था कि पूरी कांग्रेस पार्टी ने एक दलित नेता के कन्धे पर आजाद भारत का संविधान लिखने की जिम्मेदारी डाली। इस हिसाब से डा. अम्बेडकर महापंडित हुए। परन्तु आज सवाल दलितों के सभी समुदायों को बराबरी के स्तर पर लाने का है और सर्वोच्च न्यायालय ने इसका खाका तैयार कर दिया है। हमारे संविधान निर्माताओं का लक्ष्य भारतीय समाज में समानता लाने का था जिसकी वजह से दलितों व आदिवासियों को आरक्षण दिया गया। मगर आजादी के 75 वर्ष बाद दलितों में एक समानता या एकरूपता नहीं आयी है और आरक्षण का लाभ दलितों की ही कुछ उपजातियां जमकर उठा रही हैं तो हमें उन उपजातियों के लोगों के बारे में सोचना होगा जो अपने ही दलित भाइयों से बहुत पीछे रह गये हैं। अतः सर्वोच्च न्यायालय का फैसला देश, काल व परिस्थिति के पूरी तरह अनुकूल है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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