भारत में चुनाव सुधारों पर बहुत बयानबाजी होती रहती है। इस बात पर काफी गम्भीर चिन्तन-मंथन होता रहता है कि चुनावों को सस्ता कैसे बनाया जाए। चुनावों में कालेधन के इस्तेमाल को कम कैसे किया जाए लेकिन हम अपने ही देश में हो रही अच्छी बातों पर ध्यान ही नहीं देते। यद्यपि निर्वाचन आयोग ने काफी चुनाव सुधार किए हैं। नागालैंड में यद्यपि चुनाव प्रचार समाप्त हो चुका है लेकिन चुनाव प्रचार के मामले में राज्य ने उदाहरण स्थापित किया है। नागालैंड में अमेरिका की तर्ज पर चुनाव प्रचार किया गया। एक मंच के पीछे बड़ा सा बैनर लगाया गया आैर मंच पर सभी राजनीतिक दलों के प्रत्याशी बैठे और एक के बाद एक ने सभा को सम्बोधित किया।
सभी ने अपनी-अपनी पार्टियों की नीतियों और कार्यक्रमों का उल्लेख किया। सभा में मौजूद लोग किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता नहीं बल्कि शहरों और गांवों से आए लोग होते थे। मंच के पीछे लगे बैनर पर भी किसी राजनीतिक दल का नाम नहीं बल्कि छात्र संगठन का नाम और यह स्लोगन लिखा होता था-‘क्लीन इलैक्शन कैम्पेन।’नागालैंड में अमेरिका की तर्ज पर ऐसे ‘सांझे मंच’ देखने को मिले जहां उम्मीदवार एक मंच पर बोलते दिखाई दिए। नागालैंड में मतदान आज हो रहा है परन्तु ‘क्लीन इलैक्शन कैम्पेन’ का विचार 2013 के विधानसभा चुनावों से कुछ माह पहले 2012 में आया जब एक एनजीओ यूथनेट के संस्थापक हेकानी जाखलू ने ऐसी एक सभा के आयोजन में भाग लिया। यह एनजीओ सरकार के साथ मिलकर ‘स्क्वायर नागा यूथ’ कार्यक्रम चलाता है।
नागालैंड का चर्च और आम जनता उम्मीदवारों द्वारा वोटों को खरीदने के लिए खर्च किए जा रहे धन का आंकड़ा सुनकर सकते में आ गए थे। यूथनेट द्वारा कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक चुनावों पर 570 करोड़ के लगभग खर्चा किया जाता है। प्रत्याशी घर-घर जाते हैं आैर वोट खरीदने के लिए बन्द लिफाफों में धन बांटते हैं। वोटों की खरीद-फरोख्त पर हर उम्मीदवार काफी धन खर्च करता है तो उससे चुनाव जीतने के बाद ईमानदारी की उम्मीद कैसे की जा सकती है। राजनीति एक धंधा बन चुकी है। चुनाव जीतने के बाद तो वह चाहेगा कि चुनाव पर हुआ खर्च पूरा किया जाए, इसके लिए वह हर अनैतिक तरीका अपनाने लगते हैं।
चुनाव महंगे होने के चलते आज कोई गरीब व्यक्ति चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। राजनीतिक दल भी उसे ही उम्मीदवार बनाते हैं जिसमें पार्टी फण्ड में धन देने और चुनाव लड़ने पर धन खर्च कर सकने की क्षमता हो। 2013 के विधानसभा चुनाव से पहले समय कम होने के कारण मुख्यमंत्री टी.आर. जेलियांग के गृह जिला पेरेन समेत कुछ ही स्थानों पर ‘सांझे मंच’ लगाए गए थे। इस बार के चुनावों में भी 980 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है। इस तरह लगभग हर निर्वाचन क्षेत्र में एक सभा ऐसी की गई जहां हर राजनीतिक दल के उम्मीदवार ने ‘सांझे मंच’ से जनता को सम्बोधित किया। दीमापुर, कोहिमा आैर मोकूचुंग में तो इस वर्ष ऐसी सफल सभाएं की गईं। सांझी सभाओं को कराने में छात्र संगठनों आैर चर्च ने काफी मदद की। इसका अनुसरण भी इस बार अन्य संगठनों ने किया।
नागालैंड में पहली बार ऐसा देखा गया कि अलग-अलग विचारधारा वाले उम्मीदवार एक साथ एक मंच पर दिखे। अक्सर उम्मीदवार चुनाव प्रचार के दौरान एक-दूसरे को कोसते नजर आते हैं। धुआंधार प्रचार के समय वह भाषा की मर्यादा को भूलकर आक्रामक रुख अपनाते हैं लेकिन इस बार उम्मीदवारों ने अपनी-अपनी बात शालीनता से रखी जिससे बेहतर संदेश गया। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर उम्मीदवारों ने आमने-सामने अपने तर्क पेश किए। उनसे सवाल भी पूछे गए। दीमापुर और पश्चिम अनगामी, जहां के लोग काफी शिक्षित हैं, उन पर ऐसी सभाओं का काफी प्रभाव पड़ा।
नागालैंड जहां आजादी से पूर्व ही विद्रोही भावनाएं पनप चुकी थीं, उस राज्य में ऐसा हो सकता है तो फिर पूरे देश में ऐसा क्यों नहीं हो सकता। चुनाव प्रचार में ऐसा करने के सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे आैर प्रचार पर खर्च होने वाला काफी धन बच जाएगा। भारतीय लोकतंत्र की गिरमा, शुचिता और उपादेयता की विश्व में अपनी साख बनाने के लिए प्रभावी चुनाव सुधार के माध्यम से निर्वाचन आयोग को सम्प्रभु अधिकारों के साथ सुसज्जित करने आैर चुनावों को सस्ता बनाने की जरूरत है ताकि आम आदमी की भागीदारी सुनिश्चित हो। भ्रष्टाचार तभी खत्म होगा जब चुनाव सस्ते होंगे। जब तक रैलियों का रेला, करोड़ों के भव्य आयोजन खत्म नहीं होते तब तक चुनाव सस्ते कैसे हो सकते हैं? इन्हें रोकने के लिए ठोस कदम उठाए जाने जरूरी हैं। काश! सभी राजनीतिक दल नागालैंड के संदेश का अनुसरण करें तो यह अपने आपमें बड़ा चुनाव सुधार होगा।