लोकतन्त्र को शासन-प्रशासन चलाने के लिये अधिकारियों की आवश्यकता पड़ती है। यदि अधिकारी बुद्धिमान, ईमानदार एवं कर्त्तव्यनिष्ठ है तो शासन सुशासन में बदल जाता है। यदि ऐसा नहीं होता तो शासन की छवि खराब हो जाती है। लोकतांत्रिक संस्थाओं से लोगों का विश्वास उठ जाता है। अधिकारी वर्ग यानि नौकरशाह। नौकरशाहों में कई तरह के दोष पैदा हो जाते हैं जैसे रिश्वतखोरी, चुगलखोरी और काम न करने की प्रवृति। ऐसे लोग फिर समाज सुख के प्रति संवेदनशील हो ही नहीं सकते। ऐसे लोग अपनी लोकप्रियता बढ़ाने और केवल यश कमाने के उद्देश्य से कोई अच्छा काम कर दे तो कर दे अन्यथा फाइलों में व्यस्त रहने वाले लोग कोई बलिदान नहीं कर सकते।
इनका प्रस्वार्थ केवल निजी कार्यों में ही जागता है और यही इनके जीवन का संस्कार बन जाता है। यदि प्रस्वार्थ केवल लोभ-लालच में ही जागता है तो फिर सेवानिवृत्त होने पर भी समाजहित के कार्यों में इनकी रुचि नहीं जागती। यदि कहीं आर्थिक लाभ हो तो उसके लिये इनमें तत्परता दिखाई देती है। शासन में भ्रष्ट और कर्त्तव्यविमुख अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखाना भी जरूरी होता है। जिस तरह हम घर की गंदगी से निपटने के लिये रोज सफाई करते हैं, इसी तरह शासन-प्रशासन में भी स्वच्छता अभियान की जरूरत पड़ती है। भ्रष्टाचार मुक्त शासन देना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वादा रहा है। मोदी सरकार ने अपनी दूसरी पारी की शुरूआत करते ही हफ्ते भर में 27 बड़े अफसरों को जबरन सेवानिवृत्त कर दिया है।
सरकार ने केन्द्रीय अप्रत्यक्ष कर और सीमा शुल्क बोर्ड के 15 अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखाया। इससे पहले भारतीय राजस्व सेवा के 12 अधिकारियों को जबरन सेवानिवृत्त किया। देश का दुर्भाग्य है कि देश भ्रष्टाचार की दल-दल में फंसा हुआ है। बैंकों में करोड़ों के घोटाले, सीबीआई के आला अफसरों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप, बिल्डर माफिया की खुली लूट, बड़े-बड़े संस्थानों से लेकर पुलिस चौकी तक में रिश्वतखोरी यह स्पष्ट कर देती है कि देश की हालत क्या है। मोदी सरकार कम से कम अपने मन्त्रालयों को भ्रष्टाचार से मुक्त रखने में सफल रही है।
जहां तक राज्य सरकारों का सवाल है, उनमें तो अधिकतर मन्त्रालय वसूली का खुला अड्डा बन चुके हैं। भारत की गणना दुनिया के भ्रष्टतम देशों में होती है। भ्रष्टाचार रोकने के लिये कई विभाग हैं लेकिन करोड़ों का गोलमाल करने वाले कई बार हाथ नहीं आते। हजारों की रिश्वत लेने वाला जूनियर अफसर शिकंजे में आ जाता है। जिन संस्थाओं पर भ्रष्टाचार से लड़ने की जिम्मेदारी है वे खुद ही भ्रष्टाचार के कुएं में डूबी पड़ी है। कई राज्यों में मामूली से मामूली पद पर रहने वालों के यहां से करोड़ों की सम्पत्ति बरामद हो रही है। अब तो जीएसटी से जुड़े अफसरों के घोटाले भी सामने आने लगे हैं। उदारवादी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद नौकरशाही का हस्तक्षेप कम जरूर हुआ लेकिन उदारीकरण की गोद से निकली अर्थव्यवस्था की जरूरतों और प्रशासनिक ढांचे में सुधार के लिये कुशल नौकरशाहों की जरूरत पड़ती है।
इसके लिये केवल किताबी ज्ञान की नहीं बल्कि व्यावहारिक ज्ञान की जरूरत होती है। नीतियों और योजनाओं का खाका खींचने के लिये बुद्धिकौशल की जरूरत होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय नौकरशाहों में अनेक ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपनी सकारात्मक सोच से पर्दे के पीछे रहकर भी अपनी प्रशासनिक क्षमताओं का परिचय दिया है। लेकिन अनेक ऐसे अफसर हैं जिन पर बार-बार अंगुली उठती रही है। पहले इनके खिलाफ जो भी कार्रवाई होती थी वह केवल खानापूर्ति ही होती थी। इसकी बड़ी वजह यह थी कि हर किसी अफसर के तार किसी न किसी राजनीतिज्ञ से जुड़े होते हैं। इन्हें राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता रहा है और उन पर कोई आंच नहीं आती थी।
नौकरशाह खुद को कानून से ऊपर समझने लगे थे। नौकरशाहों का एक वर्ग तो इतना प्रभावशाली हो गया था कि सत्ता भी उनके सामने बेबस प्रतीत होती थी। अनेक अफसरों की न केवल भ्रष्ट राजनीतिज्ञों से बल्कि अपराधियों से भी सांठगांठ के किस्से सामने आते रहे हैं। मोदी सरकार ने अब बड़ा कदम उठाते हुये आरोपों से घिरे और विभिन्न जांचों का सामना करने वालों को किनारे लगा दिया है। सरकार ने अब परीक्षाओं के माध्यम से चुने गये नौकरशाहों की जगह निजी क्षेत्र के अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञों को प्राथमिकता देने का फैसला किया है।
अब ऐसे लोगों को संयुक्त सचिव स्तर पर नियुक्ति की जा सकेगी। प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार के लिये सरकार निजी क्षेत्र से विशेषज्ञों का चुनाव करने की कवायद शुरू कर रही है। सरकार की विभिन्न परियोजनाओं को पूरा करने के लिये अनुभवी लोगों की जरूरत है। मोदी सरकार की भ्रष्ट नौकरशाहों को बाहर का रास्ता दिखाने की कार्रवाई से जनता में संदेश गया है कि सरकार भ्रष्टाचार को सहन करने वाली नहीं।