पृथ्वी का तापमान 1520 सेंटीग्रेड से 1532 डिग्री सेंटीग्रेड हो चुका है। अगले 40 वर्षों में पृथ्वी का तापमान 27 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ जाएगा। सन् 2003 में 45 हजार लोगों की मौत यूरोप में दो हफ्ते के भीतर हुई थी। समुद्र तटों तथा बड़ी नदियों के मुहाने पर बसे बड़े शहरों के सिर पर बाढ़ का खतरनाक साया मंडराने लगा है। समुद्री जल के स्तर में बढ़ौतरी से तटीय क्षेत्रों के मीठे पानी के स्रोतों में खारा पानी मिल जाने से समूचा ईको सिस्टम असंतुलित हो जाएगा। सूखा, गर्म हवाएं, चक्रवात, तूफान और झंझावात जैसी आपदाएं जल्दी-जल्दी आने लगेंगी। अनुमान लगाइये कितनी भयावह स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। पृथ्वी के बढ़ते तापमान से सभी चिन्तित हैं। पोलैंड में कॉप 24 यानी 24वां ‘कॉन्फ्रैंस ऑफ द पार्टीज टू द यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लामेट चेंज’ सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में पेरिस जलवायु समझौते को लागू करने पर सहमति बन गई है। यह समझौता 2020 से लागू होना है।
पेरिस समझौते में अमीर देशों के लिए नियम पर कोई सहमति नहीं बन पाई थी। गरीब देशों और अमीर देशों के कार्बन उत्सर्जन की सीमा को लेकर विवाद था। इस मामले में चीन ने पहल करते हुए 2015 के पेरिस समझौते को आगे बढ़ाने के लिए हामी भरी है और इससे इस सम्मेलन को बल मिला है। 15 दिन की मशक्कत के बाद 197 देशों ने पेरिस समझौते को लागू करने के लिए नियम तय करने वाली साझा नियम पुस्तिका को अन्तिम रूप दे दिया है। अब धरती और वातावरण को बचाने के लिए वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस नीचे रखने के पेरिस करार के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आगे बढ़ा जाएगा। पर्यावरणीय संकटों से मानव को बचाने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास किए जाने ही चाहिएं, यह एक अच्छा संकेत है लेकिन जब पोलैंड ने संशोधित पुस्तिका जारी की थी तो कई देशों ने इसमें कमियों काे उजागर किया। सबसे बड़ा अड़ंगा तो अमेरिका ने ही लगाया जो पहले ही पेरिस जलवायु समझौते से खुद काे अलग कर चुका है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पेरिस जलवायु समझौते के विरोधी रहे हैं। अमेरिका संशोधित नियम पुस्तिका के मुताबिक उसमें दर्ज हिस्सेदारी अपने ऊपर नहीं लेना चाहता।
एक सबसे बड़ी असहमति अन्तर्सरकारी पैनल की जलवायु परिवर्तन पर वैज्ञानिक रिपोर्ट को लेकर भी सामने आई। कुछ देशों के समूह, जिनमें अमेरिका, कुवैत, सऊदी अरब और रूस ने इस वैज्ञानिक रिपोर्ट को खारिज कर दिया। पेरिस जलवायु समझौते को लागू करने को लेकर अब भी दुिनया के विकसित, अविकसित और विकासशील मुद्दों पर मतभेद हैं। कार्बन उत्सर्जन को लेकर जो सीमा तय की गई है, उस पर भी कई देशों के बीच मतभेद हैं। भारत तो पहले ही 2030 तक 30-35 फीसदी कम कार्बन उत्सर्जन करने की बात कह चुका है। अमेरिका और अन्य अमीर देश चाहते हैं कि तापमान डेढ़ से दो डिग्री कम करने के लिए विकासशील और विकसित देशों के लिए जिन जिम्मेदारियों का प्रस्ताव किया गया है, उन प्रस्तावों को आसान बनाया जाए। भारत का शुरू से ही यह स्टैंड रहा है कि वह दुनिया के देशों से मिलकर सब कुछ करने को तैयार है लेकिन वह अमीर देशों की कीमत पर कुछ नहीं करेगा। सच तो यह है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए अमीर और विकसित राष्ट्र अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं। कोई भी देश अपने ऊपर ऐसी पाबंदियां नहीं चाहता जिससे उसके हित प्रभावित हों, कोई भी औद्योगिकरण की रफ्तार रोकना नहीं चाहता। अमीर देश कह रहे हैं कि कार्बन उत्सर्जन कम करने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी विकासशील और गरीब देशों की है। हर कोई अपने हिसाब से नियम बनाना चाहता है।
अगर जलवायु संकट से निपटने के लिए अमीर और विकासशील देश अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं तो फिर जलवायु समझौता लागू कैसे होगा? अगर समझौता लागू ही नहीं होगा तो फिर जलवायु सम्मेलन के आयोजन का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता। जलवायु पर गम्भीर चिन्तन-मंथन एक बड़ा तमाशा ही बनकर रह गया। भारत का कहना है कि दुनियाभर में गरीबों के विकास की खातिर विकसित राष्ट्र अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। भारत ने जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना करने को विकासशील देशों की मदद के लिए विकसित राष्ट्रों से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण व वित्तीय मदद देने की मांग की क्योंकि विकिसत देशों का कार्बन उत्सर्जन भारत के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। वैज्ञानिक रिपोर्ट बताती है कि अगर कार्बन उत्सर्जन नहीं रुका तो यह दुनिया नहीं बचेगी। धरती को बचाने के लिए सार्वभौम करार की जरूरत है। धरती को बचाने के लिए अमेरिका और अन्य धनी राष्ट्रों को अपने हितों का त्याग तो करना ही होगा तभी मानवता की रक्षा हो सकेगी।