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लॉकडाउन सेे बाहर निकला कोल सैक्टर

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा देश की 41 कोयला खदानों के व्यावसायिक खनन के लिए डिजिटल नीलामी प्रक्रिया शुरू करने के साथ ही कोल सैक्टर कई दशकों के बाद लॉकडाउन से बाहर आ गया है

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा देश की 41 कोयला खदानों के व्यावसायिक खनन के लिए डिजिटल नीलामी प्रक्रिया शुरू करने के साथ ही कोल सैक्टर कई दशकों के बाद लॉकडाउन से बाहर आ गया है। यद्यपि कोयला खदानों के व्यावसायिक खनन का विरोध भी हो रहा था। कोयला खदानों के समीप रहने वाले लोगों का कहना था कि इससे उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। प्रधानमंत्री ने इन लोगों की चिंताओं को दरकिनार करते हुए निजी क्षेत्र को  खनन की अनुमति इसलिए दी क्योंकि कोयला खदानों की नीलामी से अगले पांच-सात वर्षों में 33 हजार करोड़ के पूंजीगत निवेश की उम्मीद है।
भारत कोयला भंडार के हिसाब से ​दुनिया का चौथा बड़ा देश है जो दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक है लेकिन  कोयले का निर्यात नहीं करता बल्कि भारत दुनिया का दूसरा बड़ा कोयला आयातक है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यह है कि हम दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक हैं तो हम सबसे बड़े निर्यातक क्यों नहीं बन सकते। कोयला खदानों की नीलामी प्रक्रिया से राज्यों की आय बढ़ेगी, सुदूर इलाकों का विकास होगा और रोजगार के अवसर सृजित होंगे। यह फैसला एक तरह से बड़ा कोयला भंडार रखने वाले देश के संसाधनों को सरकारी जकड़न से निकालने वाला है। देश में कोयला उत्पादन को एक अरब टन तक पहुंचाने के ​लिए करोड़ों का निवेश किया गया है। इसमें 70 हजार लोगों को प्रत्यक्ष और 2.10 लाख लोगों को अप्रत्यक्ष रोजगार मिलने की सम्भावना है।
नई पीढ़ी ने तो गैस ही देखी है। बुजुर्ग लोग जानते हैं कि कभी उन्हें घर का खाना बनाने के लिए कोयला खरीदने, मिट्टी का तेल खरीदने के लिए लाइनों में लगना पड़ता था। कोयले की ब्लैक भी जम कर होती थी। ढलाई उद्योग वाले कोयले के लिए मारे-मारे फिरते थे। पहले कोयला खदानें निजी होती थीं। इंदिरा गांधी के शासन काल में कोयला खदानों का निजीकरण दो चरणों में पूरा किया गया। 1971-72 में पहले कोककर कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया गया और फिर 1973 में अकोककर कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया गया। राष्ट्रीयकरण इस​लिए किया गया था कि देश की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए निजी कोयला खान मालिक पर्याप्त पूंजी निवेश नहीं कर रहे थे। कोयला खनन के लिए अवैज्ञानिक तरीके अपनाए जाते थे, निजी कोयला खदानों में मजदूरों का जमकर शोषण किया जाता था। कोल माफिया इतना प्रभावशाली था कि  उसके सामने सरकारें भी घुटने टेक देती थीं। कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण 1970 के प्रारम्भिक दशक में दो संबद्ध घटनाओं  का परिणाम था। पहली, तेल की कीमत में जबरदस्त इजाफा हुआ जिससे देश को अपने ऊर्जा विकल्पों की खोज करने के ​लिए विवश होना पड़ा। दूसरी, इस क्षेत्र के विकास के लिए काफी निवेश की आवश्यकता थी जो कोयला खनन से आ नहीं सकता था क्योंकि यह अधिकांश निजी क्षेत्र के हाथों में था। कोयला क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण के बाद कोयले का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों के लिए कोयले का कोटा तय किया गया ताकि उनकी जरूरतें पूरी हो सकें।
देश के संसाधनों को जकड़न में रखने की नीतियों के चलते कोल सैक्टर भ्रष्टाचार और घोटालों का शिकार हो गया। वर्ष 2012 में यह मामला सामने आया था। तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने प्रतिस्पर्धी बोली की बजाय मनमाने ढंग से कोयला ब्लॉकों का आवंटन किया जिसके चलते सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ के नुक्सान का आरोप लगाया गया। इस घोटाले की आंच मनमोहन सिंह तक भी पहुंची थी। नरेन्द्र मोदी सरकार ने कोयला खदानों का आवंटन प्रतिस्पर्धी बोली से कराने का फैसला किया जिसमें सरकार को काफी राजस्व मिला। सरकार ने कोल सैक्टर के लिए पारदर्शी नीतियां बनाईं। कोरोना काल में केन्द्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती प्रवासी मजदूरों को रोजगार दिलाना है और औद्योगिक विकास को तेज करना है। सरकार ने 2030 तक करीब दस करोड़ टन कोयले को गैस में बदलने का लक्ष्य भी रखा है। देश को ऊर्जा की भी आवश्यकता है। इसीलिए सरकार ने कोयला आैर खनन क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा, पूंजी और प्रौद्योगिकी लाने के लिए इसे पूरी तरह खोलने का फैसला किया है। इस समय देश के एक-एक क्षेत्र को फिर से खड़ा करने की जरूरत है। कोल सैक्टर यदि मजदूरों को रोजगार दिलाने में सहायक बनता है तो इससे बड़ी राहत मिलेगी।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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