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महाराष्ट्र में ‘गठबन्धन’ संकट

देश में बहुत कम राज्य ही बचे हैं जहां भाजपा विरोधी दलों की सरकारें हैं। इनमें महाराष्ट्र राज्य प्रमुख है जहां कांग्रेस- राष्ट्रवादी कांग्रेस व शिवसेना की मिलीजुली साझा सरकार है।

देश में बहुत कम राज्य ही बचे हैं जहां भाजपा विरोधी दलों की सरकारें हैं। इनमें महाराष्ट्र राज्य प्रमुख है जहां कांग्रेस- राष्ट्रवादी कांग्रेस व शिवसेना की मिलीजुली साझा सरकार है। विपक्षी दलों की राजनीति के लिहाज से यह राज्य बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस राज्य की राजधानी मुम्बई देश की वाणिज्यिक राजधानी मानी जाती है। इस राज्य में जब इन तीन दलों की साझा सरकार का गठन हुआ था तो इसे कुछ राजनीतिक विश्लेषकों ने अवसरवादी गठबन्धन तक की संज्ञा दी थी मगर पिछले तीस वर्षों में जिस प्रकार की राजनीति देश में चल रही है उसे देखते हुए यह तर्क सही नहीं लगाता है क्योंकि 1998 से विभिन्न विरोधी विचारधारा वाले दलों के बीच सत्तामूलक गठबन्धनों का जो दौर शुरु हुआ था उसी का विस्तार विभिन्न राज्यों में होता गया। विशेषकर उत्तर भारत के राज्यों में। ऐसी स्थिति विधानसभा के त्रिशंकु बनने पर आती है जिसमें चुनावों में किसी एक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं होता और कई दलों को मिल कर सरकार बनानी पड़ती है। ऐसी ही स्थिति जम्मू-कश्मीर राज्य में भी कुछ वर्ष पहले आयी थी जब भाजपा और महबूबा मुफ्ती की पार्टी ‘पीडीपी’ ने मिल कर सरकार बनाई थी।
हकीकत यह है कि साझा सरकारों में विभिन्न परस्पर विरोधी विचारधारा वाले दलों को केवल शासन करने का लक्ष्य जोड़े रखता है। इस लक्ष्य के चलते विचारधाराओं का मतभेद हाशिये पर फैंक दिया जाता है और सरकार में बने रहने का लक्ष्य सर्वप्रमुख हो जाता है। इसे हम लोकतन्त्र की विकृति भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि ये राजनीतिक दल जनता द्वारा दिये जनादेश के अनुसार ही गठबन्धन सरकारों का गठन करने को मजबूर होते हैं परन्तु ऐसी सरकारों की मूल जिम्मेदारी साफ-सुथरा और जवावदेह प्रशासन देने की ही होती है। इसमें कोताही आने पर पूरी सरकार की विश्वसनीयता सन्देह में पड़ जाती है न कि सरकार में शामिल किसी एक विशेष दल की। महाराष्ट्र में आजकल यही हो रहा है। एक सहायक पुलिस इंस्पेक्टर की कारगुजारियों के चलते पूरी सरकार पर संकट गहराता जा रहा है और राज्य के गृहमन्त्री अनिल देशमुख लगातार कठघरे में खड़े होते जा रहे हैं।
मुम्बई के पुलिस कमिश्नर रहे परमबीर सिंह ने इंस्पेक्टर सचिन वझे को लेकर जिस तरह के आरोप श्री देशमुख पर लगाये हैं वे निश्चित रूप से किसी राज्य के गृहमन्त्री पर बदनुमा दाग की तरह हैं। हो सकता है कि परमबीर सिंह ने पूरे विवाद से अपना पल्ला झाड़ने या राजनीतिक निशानेबाजी के तहत ये आरोप लगाये हों कि श्री देशमुख ने सचिन वझे को मुम्बई की बारों व रेस्टोरेंटों से प्रति माह 100 करोड़ रुपए उगाहने का निर्देश दिया हो, मगर आरोपों की गम्भीरता को किसी भी स्थिति में नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि ये आरोप सीधे मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिख कर लगाये गये हैं। परमबीर सिंह अब भी पुलिस सेवा में हैं और महाराष्ट्र होमगार्ड्स के महानिदेशक के पद पर कार्य कर रहे हैं। इस विवाद के चलते शिवसेना या यह मत कि अनिल देशमुख ‘दुर्घटनावश गृहमन्त्री बन गये’ और भी बड़े सवाल पैदा करता है। असली सवाल यह है कि क्या राज्य की उद्धव ठाकरे सरकार भी किसी दुर्घटना की वजह से वजूद में आई थी। शिवसेना और कांग्रेस का गठबन्धन होना क्या कोई दुर्घटना थी?
लोकतन्त्र में सरकारें कभी दुर्घटनावश नहीं बना करती हैं, हां यह बेशक हो सकता है कि इनके मुखिया कभी-कभी दुर्घटनावश नेतृत्व संभाल लेते हैं। उनका नेतृत्व संभालना तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों और दबावों पर निर्भर करता है। महाराष्ट्र के सन्दर्भ में तीनों दलों का गठबन्धन होने के बाद इसके रचियता राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता शरद पवार ने साफ कह दिया था कि सरकार का नेतृत्व स्वयं शिवसेना के मुखिया उद्धव ठाकरे को संभालना चाहिए। इसी सरकार का गृहमन्त्री यदि दुर्घटनावश पद ग्रहण करता है तो समूची सरकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है। अब सवाल यह है कि अनिल देशमुख कह रहे हैं कि उनके खिलाफ लगे आरोपों की जांच किसी उच्च न्यायालय के अकाश प्राप्त न्यायाधीश से कराई जाये। जब गृहमन्त्री स्वयं अपने ऊपर जांच किये जाने की सिफारिश कर रहे हैं तो उनका पद पर बने रहने का औचित्य स्वयं धूमिल पड़ जाता है। इस तथ्य को भी कैसे नजरअन्दाज किया जा सकता है कि सचिन वझे स्वयं में शिवसेना का कार्यकर्ता रहा है और 16 साल तक मुअत्तिल रहने के बाद शिवसेना नीत सरकार के दौरान ही अपने पद पर पुनः बहाल हुआ है। इस तथ्य के कई राजनीतिक अर्थ निकाले जो सकते हैं और राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा सचिन वझे को अम्बानी निवास विस्फोट षड्यन्त्र में गिरफ्तार किये जाने के बाद शिवसेना व राष्ट्रवादी कांग्रेस के बीच उपजते मतभेदों को गहरा होने से नहीं रोका जा सकता। इसका मंतव्य यह भी निकाला जा सकता है कि पूरे मामले में शिवसेना की संलिप्तता को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि श्री देशमुख शिवसेना के मुख्यमन्त्री के मातहत ही काम कर रहे हैं। यह कशमकश ऐसी है जिसका जवाब राजनीतिक दांव-पेंचों में ही उलझा हुआ है। इस सन्दर्भ में इस अफवाह का भी बहुत महत्व है कि पिछले दिनों गुजरात के अहमदाबाद में श्री शरद पवार व प्रफुल्ल पटेल की केन्द्रीय गृहमन्त्री श्री अमित शाह से भेंट हुई। हालांकि यह अफवाह पूरी तरह असत्य और बेबुनियाद निकली। कहने का मतलब यह है कि महाराष्ट्र की सरकार की राह में जो कांटा बिछ चुका है उसे केवल राजनीतिक इलाज से ही बाहर किया जा सकता है। अब यह सब गठबन्धन के नेताओं पर निर्भर करता है कि वे कौन सा इलाज करते हैं?

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