भारत के लोकतन्त्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह देश के ऊंचे से ऊंचे और बड़े से बड़े पद पर बैठे व्यक्ति को भी संविधान व कानून के प्रति जवाबदेह बनाये रखता है। यह अनूठी व्यवस्था हमारे संविधान निर्माता इसीलिए बनाकर गये हैं जिससे हर सूरत में देश की पूरी प्रशासन प्रणाली लोकतन्त्र के असली मालिक लोगों के प्रति जवाबदेह बनी रहे। इसके रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं। कहीं ये प्रावधान संसद की मार्फत रखे गये और कहीं स्वतन्त्र न्यायपालिका की। मगर लक्ष्य पूरे लोकतन्त्र को आम जनता के प्रति जवाबदेह बनाना ही था। इसी वजह से भारत में जो भी संवैधानिक स्वतन्त्र संस्थाएं गठित की गईं उनका काम सीधे संविधान से शक्ति लेकर समूचे प्रशासन को आम जनता के प्रति जवाबदेह रहने का बनाया गया। ऐसे सभी संस्थानों में चुनाव आयोग व स्वतन्त्र न्यायपालिका की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। न्यायपालिका जहां सरकार के हर काम को संविधान की कसौटी पर कस कर खरा बनाने का काम करती है वहीं चुनाव आयोग देश में लोकतन्त्र का आधारभूत ढांचा तैयार करने का काम करता है।
चुनाव आयोग को संविधान ने भारत की चुनाव प्रणाली का संरक्षक होने का दायित्व सौंपा है और इस तरह सौंपा है कि चुनावों के दौरान किसी भी राजनैतिक दल के साथ किसी प्रकार का न तो पक्षपात किया जाये। यह कार्य केवल किया ही जाना चाहिए बल्कि होते हुए आम जनता को दिखना भी चाहिए। इसके साथ ही आयोग चुनाव के दौरान इनमें भाग लेने वाले प्रत्येक राजनैतिक दल के लिए एक समान व बराबर की परिस्थितियां या जमीन बनाने के कानून से भी बंधा होता है। इसका मतलब यह है कि जनता को चुनावी लड़ाई एक समान आधार पर होती हुई दिखनी चाहिए। चुनाव आयोग के लिए जिस दल की सरकार होती है वह 'सत्ताधारी दल' नहीं होता बल्कि अन्य दलों के समान केवल एक राजनैतिक दल होता है। यह शक्ति उसे संविधान से मिलती है। चुनाव बिना किसी पक्षपात व भेदभाव के इस प्रकार से हों कि सत्ताधारी दल भी स्वयं को किसी विपक्षी दल अथवा अन्य दल के बराबर ही समझे। इसकी भी बहुत खूबसूरत व्यवस्था हमारे संविधान निर्माता करके गये हैं।
चुनावों के समय संविधान में यह प्रावधान है कि किसी राज्य की समूची प्रशासन व्यवस्था उस दौरान चुनाव आयोग के हाथ में आ जायेगी और किसी भी राजनैतिक दल की हुकूमत पर काबिज सरकार केवल सामान्य जरूरत भर का काम चलाने के लिए ही होगी। वह कोई नीतिगत निर्णय इस दौरान नहीं कर सकती। यहीं से चुनाव आचार संहिता का जन्म होता है जो आयोग द्वारा चुनावों की घोषणा करने के साथ ही लागू हो जाती है। इसे बनाने का लक्ष्य यही था कि किसी भी सूरत में सत्ता पर काबिज दल चुनावों के दौरान अपने सत्ताधारी होने का अनुचित लाभ न उठा सके। आचार संहिता का पालन करना प्रत्येक दल के लिए लाजिमी बनाया गया और तय किया गया कि इसका उल्लंघन करने वाले किसी भी प्रत्याशी या राजनैतिक दल अथवा उसके नेता के खिलाफ शिकायत मिलने या पाये जाने पर आयोग नियमों के अनुसार उचित कार्रवाई कर सके। इस मामले में आयोग की भूमिका को पूरी तरह निष्पक्ष बने रहने की व्यवस्था की गई। भारत के चुनाव आयोग की पूरे विश्व में प्रतिष्ठा बहुत ऊंचे पायदान पर रखकर देखी जाती रही है। इसका कारण एक ही रहा है कि इसके मुख्य चुनाव आयुक्तों ने हर संकट के समय देश की चुनाव प्रणाली की विश्वसनीयता पर कभी संकट नहीं आने दिया है।
लोकतन्त्र में यदि चुनाव आयोग की भूमिका ही संदिग्ध हो जाती है तो उसके संरक्षण में हुए चुनावों की विश्वसनीयता भी इससे अछूती नहीं रह सकती। इसलिए इन्दिरा काल के मुख्य चुनाव आयुक्त एस.पी. सेन वर्मा से लेकर टी.एन. शेषन तक जितने भी मुख्य चुनाव आयुक्त हुए उन्होंने अपनी विश्वसनीयता पर कभी आंच नहीं आने दी और सत्ताधारी दल से लेकर प्रत्येक राजनैतिक दल को एक ही नजर से देखने की कोशिश की। मगर शेषन के बाद चुनाव आयोग में तीन चुनाव आयुक्त होने लगे और चुनाव आयोग का आकार बड़ा हो गया लेकिन इसकी 'आकृति' में वह बात नहीं रही जो एकल मुख्य चुनाव आयुक्त की हुआ करती थी। सबसे ज्यादा विवाद चुनाव आचार संहिता को लागू करने को लेकर ही पिछले कुछ वर्षों में सुनने को मिले हैं। यह स्थिति न तो चुनाव आयोग के लिए सही है और न ही चुनाव प्रणाली के लिए क्योंकि चुनाव आयोग को हर संशय से ऊपर दिखना चाहिए। ऐसा वह केवल अपनी भूमिका को केवल कानून व नियमों का गुलाम बनाकर ही कर सकता है। कानून लागू करने में उसकी आंखों पर पट्टी बंधी रहनी ही नहीं चाहिए बल्कि आम जनता को दिखनी भी चाहिए। मगर ऐसा वह तभी कर सकता है जब उसे अपनी उन शक्तियों का सच्चा ऐहसास हो जो हमारे संविधान निर्माता उसे देकर गये हैं। इस शक्ति को 1969 में मुख्य चुनाव आयुक्त एस.पी. सेन वर्मा ने तब पहचाना था जब पहली बार कांग्रेस पार्टी का बंटवारा हुआ था। उन्होंने कांग्रेस का चुनाव चिन्ह 'दो बैलों की जोड़ी' को जाम कर दिया था। यह निशान स्वतन्त्रता आन्दोलन की अग्रणी कांग्रेस पार्टी की पहचान बना हुआ था। उनके बाद टी.एन. शेषन ने चुनाव नियमों में भारी व्यावहारिक परिवर्तन किये। बदलते समय की जरूरतों के मुताबिक चुनाव आयोग को भी आचार संहिता में संशोधन करने पड़ेंगे जैसे कि कई चरणों में मतदान होने पर इलैक्ट्रानिक मीडिया के रहते चुनाव प्रचार पर दो दिन पहले प्रतिबन्ध का कोई मतलब ही नहीं रह गया है।