सरकारी स्कूलों पर हमेशा से ही पढ़ाई-लिखाई को लेकर सवालिया निशान लगते रहे हैं। राज्य सरकारें शिक्षा पर काफी धन भी खर्च कर रही हैं। किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति उस देश की शिक्षा पर निर्भर करती है। अच्छी शिक्षा के बिना बेहतर भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसा नहीं है कि हम शिक्षा का महत्व नहीं जानते लेकिन इसके बावजूद हमने शिक्षा की अनदेखी की है। आजादी के 71 वर्षों बाद भी हम सबको समान शिक्षा का स्वप्न पूरा नहीं कर पाए। इतने वर्षों में तो हम सरकारी स्कूलों का स्तर प्राइवेट शिक्षा संस्थानों के समकक्ष बना सकते थे। ऐसा राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों आैर अमीर लोगों की अनदेखी से हुआ। राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, बड़े अफसरों ने हमेशा खुद को समाज से ऊंचा समझा और अपने बच्चों को देश-विदेश में महंगे शिक्षा संस्थानों में पढ़ाया। उन्होंने कभी इस बात की ओर ध्यान ही नहीं दिया कि देश के स्कूलों में शिक्षा व्यवस्था को कैसे सुधारा जाए। छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिला के कलेक्टर अवनीश कुमार शरण ने अपनी बेटी का दाखिला सरकारी स्कूल में करवाकर एक अनुकरणीय उदाहरण स्थापित किया है। इससे पहले अवनीश कुमार बलरामपुर में पदस्थ थे जहां उन्होंने अपनी बेटी को पहले एक साल तो आंगनबाड़ी भेजा। वहां भी उन्होंने बेटी का दाखिला सरकारी स्कूल में ही करवाया था। कलेक्टर की बेटी का दाखिला होने से स्कूल को पढ़ाई की व्यवस्था पर ज्यादा ध्यान देना पड़ेगा। स्कूल का माहौल ही उत्साहपूर्ण हो गया है।
जिला कलेक्टर के इस कदम की लोग भी सराहना कर रहे हैं। यह वही स्कूल है जहां से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने भी अपनी पढ़ाई की शुरूआत की थी। साथ ही यह राज्य का पहला सरकारी स्कूल है जहां इस सत्र से इंग्लिश माध्यम से पढ़ाई होगी। जिला कलेक्टर की इस पहल से सरकारी स्कूलों के प्रति लोगों की धारणा में परिवर्तन आएगा। भारत की सामाजिक व्यवस्था में लोगों से जन्मना भेदभाव किया गया जिसके परिणामस्वरूप लोगों को और समाज के बड़े हिस्से को पढ़ने-लिखने के अवसर प्राप्त नहीं हुए। परिणामस्वरूप देश की आबादी का बड़ा हिस्सा अवसर से वंचित रह गया। वंचित वर्ग को बराबरी पर लाने के लिए समाजवादी चिन्तक राम मनोहर लोहिया ने सबको समान शिक्षा और निःशुल्क शिक्षा व्यवस्था की मांग की थी। उन्होंने शिक्षा के नारे का मंत्र बताते हुए कहा था कि ः
‘‘राष्ट्रपति हो या चपरासी की सन्तान,
सबको शिक्षा एक समान।’’
परन्तु हुआ यह कि देश में प्राइवेट शिक्षा के महंगे टापू खड़े कर दिए। सम्पन्न वर्ग के लोग तो अपने बच्चों के लिए लाखों खर्च कर रहे हैं। नर्सरी का दाखिला भी बिना पैसे के नहीं होता। सबसे बड़ी समस्या सरकारी स्कूलों की शिक्षा में गुणवत्ता सुधारने और उनको निजी स्कूलों के साथ समान स्तर पर लाने की है जिससे अमीर और गरीब, गांव और शहर के बच्चों की पढ़ाई के स्तर का भेद खत्म हो। सरकारें आती और जाती गईं। लगभग सभी सरकारों ने पाठ्यक्रमों में अपनी विचारधारा के अनुरूप बदलाव भी किए। आज भी पाठ्यक्रमों में बदलाव किया जा रहा है। आज तक पाठ्यक्रमों में बदलाव से शिक्षा के स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। विडम्बना यह है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले सुदूर गांवों के छात्रों को सीखने के अवसर हासिल नहीं होते जो मिशनरी, कान्वेंट पब्लिक, आवासीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय स्कूलों के छात्रों को हासिल हैं। मौजूदा शिक्षा प्रणाली ने देश के भीतर दो देश बना दिए हैं। एक सम्पन्न लोगों का देश और दूसरा गरीब लोगों का। इसी तरह गांव और शहरों के सरकारी विद्यालयों में संसाधनों की कमी पाई जाती है लेकिन कॉलेज में दाखिले के वक्त उन्हें प्राइवेट फाइव स्टारनुमा स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है।
सवाल यह है कि जब एक समान शिक्षा उपलब्ध नहीं तो फिर प्रतिभाओं का मूल्यांकन कैसे होगा? जब तक पूरे देश में एक समान पाठ्यक्रम नहीं होगा तब तक खाई को पाटा नहीं जा सकता। काश! सरकारी अफसरों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया होता तो उन्हें समाज के कमजोर वर्गों की मुश्किलों का अहसास होता। विशेषज्ञ नीतियां बनाते रहे लेकिन फाइलें धूल चाटती रहीं। राजधानी दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए अच्छे आैर सराहनीय प्रयास किए हैं जिससे सरकारी स्कूलों के प्रति धारणा बदली है।
कितना अच्छा हो कि सरकारी अधिकारी कवर्धा के जिला कलेक्टर अवनीश कुमार का अनुसरण करें आैर शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण बनाने में अपनी भूमिका निभाएं। मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इस साल के अंत तक नई शिक्षा नीति तैयार हो जाने की बात कही है। नई शिक्षा नीति को सभी वर्गों के लिए ज्ञान, कौशल आैर रोजगार के समान अवसर देने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। नई नीति की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह सबको समान शिक्षा का अवसर देने की राह को कितना सुगम बनाती है।