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श्रीलंका में सांप्रदायिकता की आग

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भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में बौद्ध धर्म मानने वाले सिंहली समुदाय और मुस्लिम समुदाय में दंगे भड़कने के बाद राष्ट्रपति ने दस दिन के लिए आपातकाल लगा दिया है। आपातकाल के बावजूद मुस्लिम विरोधी हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। मुस्लिमों की दुकानें और घर जलाए जा रहे हैं। श्रीलंका में बौद्ध और मुस्लिमों के बीच सांप्रदायिक हिंसा कोई नई नहीं है। 2012 से ही यहां सांप्रदायिक तनाव की स्थिति बनी हुई है। क्या सांप्रदायिक हिंसा के लिए चुनावी राजनीति जिम्मेदार है, क्या वहां के राजनीतिक दल सिंहली ध्रुवीकरण की सियासत कर रहे हैं ? इन दंगों की जड़ में बेशक सियासत है लेकिन इसके अलावा भी बहुत से ऐसे कारण हैं जिससे सिंहलियों को हिंसक रुख अख्तियार करना पड़ा। दरअसल यहां की बौद्ध आबादी मुस्लिमों को अपनी संस्कृति के लिए खतरा मानती है।

मुस्लिमों पर बौद्धों के जबरन धर्म परिवर्तन का आरोप लगता रहा है। यहां की 75 फीसदी आबादी बौद्ध है जबकि 13 फीसदी हिन्दुओं की है और दस फीसदी आबादी मुस्लिमाें की है। अहिंसा और शांति का संदेश देने वाले बौद्ध धर्म का इस्लाम से टकराव क्यों है, इसके लिए विश्लेषण तो करना होगा। इतिहास बताता है कि मध्य एशिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और शिनजियांग जैसे देश 7वीं और 11वीं शताब्दी में इस्लाम के आने के पहले बौद्ध बहुल आबादी वाले क्षेत्र थे।इस्लाम धर्म के उदय और बौद्ध धर्म के पतन की घटना साथ-साथ हुई। इस्लामिक दुनिया के पूर्वी हिस्सों में कभी बौद्ध धर्म का वर्चस्व रहा है। बौद्धों के भीतर एक डर बैठा हुआ है कि एक न एक दिन मुस्लिमों की आबादी उनसे ज्यादा हो जाएगी और उनका देश मुस्लिम बहुल देश बन जाएगा। ऐसी ही धारणा भारत में भी कुछ हद तक पाई जाती है। श्रीलंका में ही नहीं थाईलैंड और कुछ अन्य देशों में भी मुस्लिमों के प्रति हिंसा बढ़ी है। म्यांमार में रो​हिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ भड़की हिंसा के पीछे भी बौद्धों का डर छिपा हुआ है।

जहां तक भारत के लेह जिले का सवाल है, उसमें पिछले तीन दशकों में मुस्लिमों और हिन्दुओं की तुलना में बौद्धों की आबादी के अनुपात में 81 से 66 फीसदी की गिरावट आई है। लद्दाख, जिसमें कारगिल भी आता है, बौद्धों की आबादी 51 फीसदी है जबकि मुस्लिमों की आबादी बढ़कर 49 फीसदी हो चुकी है। भारत में भी पूर्वोत्तर राज्यों के अनेक जिले मुस्लिम बहुल हो चुके हैं। ईसाई और इस्लाम धर्म आज भी तेजी से बढ़ रहे हैं।2009 में लिट्टे के खात्मे के बाद श्रीलंका में शांति स्थापना की उम्मीद दिखाई दी थी लेकिन अब बौद्ध बनाम मुस्लिमों में टकराव तूल पकड़ता जा रहा है। श्रीलंका के मुस्लिम केवल मुस्लिम नहीं हैं, वे तमिल बोलने वाले मुस्लिम हैं। तमिल और सिंहलियों में विवाद है। हाल ही के स्थानीय निकाय चुनाव में पूर्व राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे की पार्टी की ओर से लिट्टे का डर दिखाकर ध्रुवीकरण किया गया। चुनाव प्रचार के दौरान सिंहली अस्मिता को बढ़ावा दिया गया। स्थानीय निकाय चुनावों में राजपक्षे की पार्टी को 340 में से 249 निकायों पर जीत मिली है। हाल ही में हिंसा से सिंहली ध्रुवीकरण पहले से भी कहीं जबरदस्त हो सकता है।

श्रीलंका में राष्ट्रपति सिरीसेना और प्रधानमंत्री विक्र​मसिंघे के दलों की गठबंधन सरकार है। सरकार के बीच भी काफी रस्साकशी है। जब-जब घरेलू राजनीति डगमगाती है तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होता है। अब तो राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री से कानून व्यवस्था का मंत्रालय भी छीन लिया है। राष्ट्रवादी और कट्टरपंथी बौद्ध श्रीलंका में रोहिंग्या मुस्लिमों को शरण देने का कड़ा विरोध कर रहे हैं। तमिलों का मुद्दा आज भी श्रीलंका में जीवित है और तमिलों को संविधान में पूरी तरह जगह नहीं दी गई है। ऐसा लगता है कि श्रीलंका की सियासत ध्रुवीकरण की राह पर बढ़ती नज़र आ रही है। श्रीलंका तमिल विद्रोहियों के साथ संघर्ष के चलते तीन दशक तक आपातकाल झेल चुका है।दो करोड़ की आबादी वाले देश का साम्प्रदायिक आग में झुलसना अच्छी बात नहीं। जरूरत है टकराव को रोकने की। देखना है कि गठबंधन सरकार टकराव रोकने में कितनी सफल होती है। सांप्रदायिक हिंसा में अक्सर धारणाएं हावी होती हैं, इसलिए छोटी सी घटना भी आग का रूप धारण कर सकती है। देखना होगा कि श्रीलंका में धर्म परिवर्तन न हो और ​सिंहली अस्मिता पर कोई चोट न हो, साथ ही स्थिति भी शांत होनी चाहिए।

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