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कोरोना मृतकों को मुआवजा

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कोरोना से मृत व्यक्तियों के परिवारों को कानून के अनुसार उचित मुआवजा देने का आदेश देकर साफ कर दिया है कि आपदा को झेलने वाले नागरिकों को जीवन जीने का संपूर्ण अधिकार है और सरकार अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकती।

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कोरोना से मृत व्यक्तियों के परिवारों को कानून के अनुसार उचित मुआवजा देने का आदेश देकर साफ कर दिया है कि आपदा को झेलने वाले नागरिकों को जीवन जीने का संपूर्ण अधिकार है और सरकार अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकती। देश की सबसे बड़ी अदालत के न्यायमूर्तियों सर्वश्री अशोक भूषण व एम.आर. शाह ने पूरी बेबाकी के साथ केन्द्र सरकार को निर्देश दिया कि जिस ‘राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण कानून’ के तहत कोरोना महामारी को स्वयं सरकार ने पिछले मार्च महीने में अधिसूचित किया था उसकी धारा 12 कहती है कि प्रभावित लोगों को मुआवजा या अनुग्रह धनराशि सरकार की तरफ से दी जायेगी जिससे उनके नुकसान की कुछ भराई हो सके। आपदा प्रबन्धन कानून-2005 की यह धारा कहती है कि आपदा से प्रभावित व्यक्तियों को मदद देने कि लिए प्राधिकरण न्यूनतम आधार पर सहायता मुहैया कराने की सिफारिश करेगा जिसमें खाने-पीने व चिकित्सा की सुविधाओं के साथ राहत शि​िवरों का निर्माण शामिल होगा, मृत व्यक्ति की विधवा व बच्चों के लिए विशेष प्रावधान किये जायेंगे,  मृत व्यक्ति के परिवार को अनुग्रह राशि दी जायेगी तथा सम्पत्ति की हानि की क्षति पूर्ति की जायेगी और परिवार के जीवन जीने के साधन जोड़े जायेंगे तथा इनके अलावा आवश्यकता होने पर और भी किसी जरूरत का ध्यान रखा जायेगा।  
विद्वान न्यायाधीशओं के समक्ष वे याचिकाएं थीं जिनमें कोरोना से प्रभावित खासकर मृत व्यक्तियों के परिवारों को चार लाख  प्रति परिवार मुआवजा देने की मांग की गई थी। न्यायमूर्तियों ने मुआवजा राशि के बारे में कोई फैसला न देते हुए इतना भर कहा कि किसी भी सरकार के पास असीमित धन नहीं होता है अतः छह सप्ताह के भीतर सरकार मुआवजा नीति का ब्यौरा प्रस्तुत करे और बताये कि किस प्रकार वह प्रभावितों की मदद करेगी। इससे पहले न्यायालय में एक हलफनामा दायर करके सरकार ने कहा था कि सीमित आय स्रोतों को देखते हुए वह मुआवजे का भुगतान करने में सक्षम नहीं है। कायदे से देखा जाये तो सरकार के विधि विशेषज्ञों ने या तो आपदा प्रबन्धन कानून की सभी धाराओं को गहराई से पढ़ा नहीं अथवा उस कानून को ही हल्के में लेने का प्रयास किया जो 2005 में खुद संसद ने ही बनाया था। यह कानून तब बना था जब समुद्र में सुनामी की लहरों ने तबाही मचाई थी। इससे सबक लेते हुए आपदा प्रबन्धन को एक स्थायी संस्थान के रूप में देश में खड़ा किया गया। 
बेशक कोरोना कोई प्राकृतिक ढंग से उथल-पुथल मचाने वाला जलजला या तूफान नहीं है मगर पूरी मानव जाति को ही यह निगलने वाला विनाशकारी बवंडर जरूर है जिसकी हलचल मानव शरीर में ही सुनाई पड़ती है। यह बस्ती की बस्तियों को निगलने की क्रूर ताकत रखता है जिससे बचने के लिए मनुष्य को अपने सामाजिक व आर्थिक जीवन की बलि चढ़ानी पड़ती है। मुआवजा पाने का यही एक जायज कारण उन लोगों के लिए हो सकता है जिनकी रोजी-रोटी कोरोना से बचाव हेतु लागू लाॅकडाउन की वजह से चली गई। मगर उन लोगों के जीवन में तो दिन में ही रात हो गई जिनके घर का कमाने वाला कोरोना ने निगल लिया। अतः मानवीय दृष्टि से भी यदि हम सोचें तो समाज के गरीब तबके को लोगों को आर्थिक मदद देना बनता है। केन्द्र सरकार का यह कहना कि आपदा कोष का उपयोग कोरोना बीमारी को रोकने के लिए आधारभूत उपचार ढांचा तैयार करने के लिए किया जा रहा है। विद्वान न्यायाधीशओं के गले नहीं उतरा और उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि जब एक बार कोई आपदा राष्ट्रीय आपदा घोषित हो गई तो उस पर उसके कानून की सभी धाराएं लागू होंगी जिनमें धारा 12 भी है। मगर इसके साथ ही भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 भी है जो प्रत्येक नागरिक को जीवन जीने का मूलभूत अधिकार देता है। गौर करने वाली बात यह है कि संविधान में भारत की शासन व्यवस्था को ‘कल्याणकारी राज’ (वैलफेयर स्टेट) बताया गया है। इसका मतलब यही है कि सरकार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन जीने के अधिकार की रक्षा करेगी ।
 कोरोना से अपना जीवन गंवाने वाले व्यक्ति का अपना दोष कोई नहीं है अतः उसके मृत होने पर पीड़ा में आये उसके परिवार की मदद करना कल्याणकारी राज का दायित्व बन जाता है। यह विशुद्ध कानूनी मसला है जिसकी व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत ही स्पष्टता के साथ की है। दूसरे सरकार जो भी कमाती है वह लोगों से ही कमाती है। लोगों से कमा कर लोगों पर ही उनकी तरक्की की वरीयताएं तय करके उसे खर्च करना होता है। इसमें देश व समाज की तरक्की शामिल होती है। लोकतन्त्र में हर व्यक्ति का राष्ट्रीय विकास में योगदान होता है। किसान खेतों में काम करके यह काम करता है और जवान सीमा पर पहरेदारी करके यह काम करता है। अतः मृत व्यक्तियों के परिवारों के लिए सम्मानजनक रूप से जीवन जीने की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी से सरकार पीछे नहीं हट सकती। सवाल सिर्फ संविधान के अनुरूप लोकतन्त्र के हर सतम्भ के चलने का होता है। इसे देखने की जिम्मेदारी अन्ततः न्यायपालिका की ही होती है अतः उसने अपना फर्ज पूरा कर दिया।

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