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सुशान्त केस के उलझते प्रश्न !

अभिनेता सुशान्त सिंह राजपूत की आत्महत्या से जुड़े मामले में जिस तरह एक के बाद एक पुलिस जांच की आपाधापी में तथ्यों और साक्ष्यों की सत्यता से खिलवाड़ हो रहा है

अभिनेता सुशान्त सिंह राजपूत की आत्महत्या से जुड़े मामले में जिस तरह एक के बाद एक पुलिस जांच की आपाधापी में तथ्यों और साक्ष्यों की सत्यता से खिलवाड़ हो रहा है और बिहार पुलिस ने जिस तेजी के साथ इस मामले को अपने हाथ में लेने के लिए स्थापित कानूनी प्रक्रिया को धत्ता बताने की कोशिश की उससे इस पूरे मामले का राजनीतिकरण निश्चित प्रायः लगता है, परन्तु सौभाग्य की बात यह है कि यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है जहां मुख्य रूप से इसका फैसला होना है कि क्या महाराष्ट्र की सीमा में हुए इस आत्महत्या कांड की जांच करने का अधिकार बिहार पुलिस को केवल इसलिए मिल जाता है कि इस राज्य की राजधानी पटना में मृत सुशान्त के पिता ने 40 दिन बाद एक एफआईआर दर्ज करा दी, जिसमें उन्होंने सुशान्त की प्रेयसी रिया चक्रवर्ती के ऊपर विभिन्न आरोप लगाये।  भारत कानून से चलने वाला देश है और फौजदारी सजा जाब्ता कानून कहता है कि जहां अपराध का घटना स्थल है वहीं की पुलिस को मामले की जांच करने का अधिकार है।  किसी दूसरे राज्य में उस घटना के मुतल्लिक यदि कोई मामला दर्ज कराया जाता है तो वह ‘जीरो एफआईआर’ के तौर पर दर्ज होकर सम्बन्धित घटना स्थल की पुलिस को भेज दी  जायेगी, जिससे वह सभी पहलुओं पर गौर करके अपनी जांच की कार्रवाई को दिशा दे सके मगर सुशान्त के मामले में बिहार की पुलिस सीधे ही महाराष्ट्र की पुलिस से भिड़ गई और उसने दलील दी कि मुम्बई में सुशान्त की आत्महत्या के मामले में मुम्बई पुलिस ने कोई एफआईआर ही दर्ज नहीं की थी और वह जांच कार्य में लगी हुई थी, परन्तु यह भी हकीकत है कि सुशान्त की आत्महत्या के बाद मुम्बई पुलिस ने सुशान्त के सभी सगे-सम्बन्धियों से उनके शक और शुबहा के बारे में पूछा था मगर  किसी ने कोई शक जाहिर नहीं किया था।
 सुशान्त के पिता ने मुम्बई पुलिस से अपने पुत्र की आत्महत्या के बाद क्यों नहीं रिया चक्रवर्ती पर आरोप लगाये? और अपने मन की बात कही। अपराध विज्ञान में घटना के लम्बे अर्से के बाद किसी प्रकार के आरोप लगाने की वैधता संदिग्धता के घेरे में आ जाती है जिसे ‘आफटर थाट’  कहा जाता है। इसका मतलब यह होता है कि आरोप लगाने वाला व्यक्ति बहुत सोच-समझ कर स्वयं का हित-अहित केन्द्र में रख कर परिस्थितियों  का आंकलन करता है।  पूरे मामले में यह भी सत्य है कि सुशान्त राजपूत के बैंक खातों के बारे में जानकारी उसकी आत्महत्या के काफी दिनों बाद आयी और उसकी सम्पत्ति के वारिस होने को लेकर बाद में विभिन्न प्रकार के हितों का टकराव शुरू हुआ हो।  पूरे मामले में यह समझना बहुत जरूरी है कि सुशान्त का विवाह रिया चक्रवर्ती से नहीं हुआ था मगर दोनों ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में थे, जिसके बारे में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पहले से ही सभी पक्षों को ज्ञात होने चाहिए। सुशान्त के पिता की शिकायत के अनुसार रिया ने उनके बेटे के धन पर मौज उड़ाई और उससे चालाकी से धन हासिल करके अपनी सम्पत्ति बनाई मगर इस बात का फैसला कौन करेगा कि रिया ने जो भी धन सुशान्त के बैंक से उसका क्रेडिट कार्ड प्रयोग करके लिया, उसे सुशान्त की सहमति नहीं थी? रिया के पारिवारिक जनों के सुशान्त से करीबी सम्बन्धों का होना स्वयं में इसका परिचायक है कि दोनों में पति-पत्नी जैसे रिश्ते थे जिसे रिया के परिजनों की स्वीकृति थी। हमें पूरे प्रकरण पर पूरी तरह तटस्थ होकर निष्पक्षता के साथ सोचना होगा क्योंकि इस मुद्दे पर दो राज्यों महाराष्ट्र और बिहार की राजनीति का गणित गड़बड़ा सकता है।
सवाल यह नहीं है कि महाराष्ट्र की पुलिस ने कोई एफआईआर दर्ज क्यों नहीं की बल्कि सवाल यह है कि महाराष्ट्र पुलिस से आत्महत्या पर शक किसने जाहिर किया? फौजदारी कानून की एक प्रक्रिया होती है। आत्महत्या को हत्या के रूप में संदिग्ध मानना ‘आफ्टर थाट’ है जिसकी विश्वसनीयता कानून की नजर में ही संदिग्ध होती है।  सुशान्त की आत्महत्या को पहले यह कह कर प्रचारित किया गया कि फिल्मी दुनिया में भाई-भतीजावाद से तंग आकर उसने आत्महत्या की। इसके लिए प्रतिष्ठित फिल्मी परिवारों और कलाकारों को जमकर घसीटा गया। सवाल उठना लाजिमी है कि किसी ‘फनकार’ का बेटा ही अच्छा फनकार क्यों बनता है? सुशान्त फिल्मी दुनिया में किसी समाजसेवा के लिए नहीं गया था बल्कि वहां अपना सुन्दर भविष्य बनाने और जीवन का एशो-आराम पाने गया था। इस काम मंे उसे सफलता भी मिली और उसने करोड़ों रुपए भी कमाये। वह अपना समानान्तर व्यापार भी करना चाहता था जिसकी वजह से उसने तीन निजी कम्पनियां भी गठित कीं। उनमें से एक में उसने रिया को भी भागीदार बनाया।  इसमें कुछ भी असाधारण नहीं है तो फिर पूरा मामला असामान्य क्यों बनता जा रहा है? 
जाहिर है कि राजनीति अपना जौहर दिखा रही है और नारायण राने जैसे ‘सुनामधन्य’ राजनीतिज्ञ भी बहती गंगा में हाथ धो लेना चाहते हैं, इसी वजह से वह अनाप-शनाप आरोप लगाने में नहीं हिचक रहे हैं और मनघड़न्त अलाप करके अपनी पुरानी पार्टी शिवसेना के नेताओं से हिसाब-किताब बराबर कर लेना चाहते हैं।  राने को शिवसेना ने ही तब मुख्यमन्त्री बनाया था जब उनकी हैसियत मुम्बई का मेयर बनने लायक तक नहीं थी।
 स्वतन्त्र भारत के इतिहास में यह पहला मौका है जब किसी आत्महत्या के मामले को ‘राजकीय’ रंग दिया गया है। यह दुर्भाग्य का विषय ही कहा जा सकता है क्योंकि बिहार जैसे राज्य में किसान-मजदूरों की जान की क्या कीमत है इससे पूरा देश भलीभांति परिचित है, परन्तु जिस तरह राज्य सरकार ने यह जानते-बूझते हुए भी कि घटना स्थल या अपराध स्थल महाराष्ट्र में है, आनन-फानन में  सीबीआई जांच के आदेश दिये हैं।  बिहार सरकार का कहना है कि महाराष्ट्र पुलिस इस मामले में सही ढंग से जांच नहीं कर रही आैर न ही वह मामले की तह तक जाना चाहती है।  परन्तु इसे सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इन्तजार है जो सुशान्त मामले में बिहार राज्य का अधिकार क्षेत्र तय करेगा। लोगों का भरोसा सीबीआई पर है और हर कोई चाहता है कि सुशांत की मौत का सच सामने आना ही चाहिए और सुशांत को न्याय मिलना ही चाहिए। 

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