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कांग्रेस : चुनौतियों का अम्बार

लोकतन्त्र पक्ष और विपक्ष के दो पहियों पर मजबूती के साथ चलता है और इस प्रकार चलता है कि इसके संचालन में जनशक्ति का प्रभुत्व बना रहता है

लोकतन्त्र पक्ष और विपक्ष के दो पहियों पर मजबूती के साथ चलता है और इस प्रकार चलता है कि इसके संचालन में जनशक्ति का प्रभुत्व बना रहता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश पर साठ वर्षों तक शासन करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज की प्रमुख विपक्षी पार्टी है अतः इस पार्टी का सांगठनिक व सैद्धान्तिक और वैचारिक ढांचा इस तरह मजबूत होना जरूरी है जिससे जनता के समक्ष हमेशा सुदृढ़ विकल्प मौजूद रहे। अक्सर यह विचार देश में कुछ स्वयं कांग्रेसी नेताओं द्वारा ही फैलाया जाता रहा है कि उनकी पार्टी नेतृत्व विहीनता के दौर में काम कर रही है। इसका जवाब शनिवार को हुई पार्टी के सर्वोच्च निर्णायक मंच से श्रीमती सोनिया गांधी ने दे दिया है कि वह बेशक अन्तरिम अध्यक्ष हैं मगर पूर्णकालिक अध्यक्ष के तौर पर काम कर रही हैं। श्रीमती गांधी का कांग्रेस को जीवन्त रखने में योगदान कम नहीं है क्योंकि 1989 के बाद लगातार 2004 तक इस पार्टी को ‘पराभव काल’ से बाहर निकाल कर वही लाई थीं जब केन्द्र में डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लगातार दस साल तक यूपीए की सरकार चली थी।
यह बात बिल्कुल सही है कि 2014 से कांग्रेस पुनः विपक्ष में ही बैठी हुई है और उनके पुत्र श्री  राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बन जाने के बावजूद इसके दिन नहीं फिर सके और यह 2019 का लोकसभा चुनाव भी हार गई। परन्तु इसके समानान्तर यह भी सही है कि कांग्रेस का भविष्य नेहरू-इन्दिरा परिवार के हाथ में ही सामान्य कांग्रेसी सुरक्षित मानते हैं और एेसी ही राय कांग्रेस के समर्थक आम मतदाता की भी है। इसकी वजह यह है कि स्वतन्त्रता संग्राम लड़ कर भारत को अंग्रजों की दासता से मुक्त कराने वाली कांग्रेस पार्टी की विरासत बहुत गौरवशाली और राष्ट्र के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की गाथाओं से भरी पड़ी है। अतः कांग्रेस कार्य समिति में श्री राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने का समवेत स्वर जिस तरह उभरा उसका तार्किक आधार यही है कि देश के हर गांव से लेकर शहर तक आज भी गांधी-नेहरू और इन्दिरा गांधी की कुर्बानियों को लोग भूले नहीं हैं और कांग्रेस की सबसे बड़ी राजनैतिक विरासत यही है जिसकी वजह से आम कांग्रेसी कार्यकर्ता पार्टी का नेतृत्व दूसरे हाथों में जाने की कल्पना भी नहीं कर पाता है।
यह सत्य है कि पिछली सदी का भारत का इतिहास कांग्रेस पार्टी के इतिहास के समरूप रहा है क्योंकि स्वतन्त्र भारत को लोकतान्त्रिक प्रणाली देने का श्रेय इसके नेताओं को ही जाता है और इनमें भी सर्वप्रथम महात्मा गांधी को जिन्हें हर भारतवासी राष्ट्रपिता मानता है। बेशक मौजूदा दौर की कांग्रेस में समयान्तर के साथ बहुत से अच्छे-बुरे व्यावहारिक परिवर्तन आ चुके हैं परन्तु पार्टी ने गांधी की शाश्वत विचारधारा को नहीं छोड़ा है। कुछ राजनैतिक तर्कशास्त्री आज की कांग्रेस को एेसे चौराहे पर खड़ी हुई पार्टी भी बताते हैं जिसमें हर आदमी रास्ता पूछ रहा होता है परन्तु हकीकत यह है कि आजादी के बाद से कांग्रेस दो बार बंट चुकी है (1969 और 1977) और हर बार यही सिद्ध हुआ है कि असली कांग्रेस वही बनी जिस तरफ नेहरू-गांधी परिवार की विरासत रही। मगर वर्तमान समय की चुनौती थोड़ी बदल सकती है क्योंकि भारत में अब स्वतन्त्रता के बाद पैदा हुई पीढ़ी के लोगों का बोलबाला है मगर इसके साथ यह भी हकीकत है कि भारत की तासीर नहीं बदली है और इसके एक राष्ट्र होने की परिभाषित नियमावली नहीं बदली है जिसकी वजह से गांधीवाद की आधारशिला अखंड स्वरूप में विद्यमान है। हमें यह पता होना चाहिए कि भारत को एक संघ राज्य (फेडरल स्टेट) के रूप में अंग्रेजों ने 1935 में तब ही मान्यता दी थी जब स्व. मोतीलाल नेहरू द्वारा लिखे गये संविधान के प्रारूप को ​ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार अधिनियम-1935 में समाविष्ट किया था। उससे पहले 1919 के भारत सरकार अधिनियम में अंग्रेजों ने भारत को विभिन्न जातीय समूहों व समुदायों का एक भौगोलिक स्थल माना था। परन्तु वर्तमान समय में कांग्रेस की चुनौतियां बहुत भारी-भरकम इस वजह से हैं कि इसका जनाधार लगातार सिकुड़ रहा है। पिछले 25 सालों के दौरान इस पार्टी से अलग होकर कई क्षेत्रीय कांग्रेस पार्टियों का गठन हो चुका है।
अतः राहुल गांधी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि वह राष्ट्रीय स्तर पर सभी अन्य कांग्रेसियों में विश्वास जगायें कि वह ही केन्द्र में वैकल्पिक नेतृत्व देने में सक्षम हो सकते हैं क्योंकि अगले वर्ष पार्टी के महासम्मेलन में श्री गांधी का अध्यक्ष चुना जाना लगभग तय माना जा रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि 2004 के युवा राहुल गांधी और 2021 के राहुल गांधी में जमीन-आसमान का अन्तर आ चुका है और वह राजनीति की बारीकियों को पकड़ने लगे हैं। कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप भी लगता है मगर लोकतन्त्र में नेता वही होता है जिसे जनता समर्थन देती है। दुनिया के बहुत से लोकतन्त्रों में वंशवाद के आधार पर नेतृत्व उभरता रहता है जिसकी वजह जनता का समर्थन ही होता है। इन अर्थों में कांग्रेस को वंशवादी पार्टी कहा जा सकता है मगर इसके पीछे जुड़ने वाले जनसमर्थन को कैसे झुठलाया जा सकता है। किन्तु मौजूदा दौर की राजनीति बहुत पेंच भरी हुई है अतः कांग्रेस कार्य समिति ने जो राजनैतिक प्रस्ताव पारित किया है उसे समग्रता में देखा जाना चाहिए क्योंकि इसमें राजनीति के स्तर को बदलने की बात भी कही गई है। लोकतन्त्र में इन प्रयासों का स्वागत इसलिए किया जाता है जिससे कोई भी चुनी हुई सरकार आधिकारिक लोकोन्मुख होकर काम कर सके। और इस व्यवस्था में कोई भी चुनी हुई सरकार लोगों की सरकार ही होती है अतः विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि उसका धर्म शासन की हर शाखा को लोकोन्मुख बनाने का होता है। बहुदलीय राजनैतिक व्यवस्था में सत्ता व और विपक्ष दोनों को ही लोग ही चुनते हैं। अतः कांग्रेस पार्टी को अपनी भूमिका विपक्ष के तौर पर प्रभावी ढंग से निभानी होगी और अपने ऊपर लगे दिशाहीनता के तमगे को उतार कर फैंकना होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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