जिस कांग्रेस पार्टी की कमान श्री राहुल गांधी संभालने जा रहे हैं उस पार्टी का इतिहास भारत की गौरव-गाथा के समानान्तर रहा है और देश की आजादी के लिए इसके नेताओं द्वारा दी गई कुर्बानियों से लेकर आजादी के बाद भारत के विकास के नवयुग में प्रवेश करने का प्रमुख जरिया रहा है मगर सबसे बड़ा योगदान कांग्रेस पार्टी का भारत में लोकतन्त्र की मजबूत नींव रखने का रहा है आैर इस कदर रहा है कि इसने हर संकट की घड़ी तक में भी कभी भी लोकतन्त्र पर आंच नहीं आने दी। बेशक इमरजेंसी का 18 महीने का समय इसके विपरीत कांग्रेस की महान परंपरा का उल्लंघन कहा जा सकता है मगर इस हकीकत को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि इमरजेंसी समाप्त करके लोकतन्त्र बहाली करने का काम भी उसी नेता ने किया था जिसने इसे लागू किया था और वह श्रीमती इंदिरा गांधी थीं। दरअसल लोकतन्त्र, भारत आैर कांग्रेस एक-दूसरे के पर्याय के रूप में ही स्वतन्त्र भारत में देखे जाते रहे और यही वजह थी कि इंदिरा जी को भी अपने फैसले पर पुनर्विचार करके आपातकाल को हटाकर देश में चुनाव कराने का निर्णय करना पड़ा था। यह भारत के इतिहास में खींची गई पत्थर की लकीर है कि आजादी मिलने के बाद पं. जवाहर लाल नेहरू ने भारत के लोगों के विकास की जो योजना तैयार की वह प्राचीन भारत की नवीन मान्यताओं की उन अपेक्षाओं को पूरी करती थी जिनमें ‘दरिद्र नारायण’ को केन्द्र में रखा गया था।
नेहरू की सभी योजनाओं के केन्द्र में लगातार समाज का सबसे गरीब व्यक्ति इस प्रकार रहा कि वह आजाद भारत की खुली हवा का अहसास कर सके और समझ सके कि उसकी आने वाली पीढि़यों के लिए विकास की संभावनाओं पर किसी एक विशेष वर्ग का कब्जा नहीं रह सकता। नेहरू की यही सोच आजाद भारत की कांग्रेस की विचारधारा की आत्मा बनी और इसी के बूते पर यह पार्टी देश के आम लोगों का विश्वास जीतती रही परन्तु नेहरू ने कभी भी अपनी विचारधारा को दूसरों पर लादने की कोशिश नहीं की और इसके समानान्तर खुली आलोचना को दावत देकर उन्होंने उसमें और सुधार किया। इसके लिए उन्होंने संसद को सबसे कारगर मंच बनाया और इसकी गरिमा स्थापित करने में कोई कमी नहीं आने दी। यहां तक कि संसद के भीतर ही अपनी ही पार्टी के सांसदों की आलोचना का भी स्वागत किया। कांग्रेस द्वारा स्थापित की गई इस परंपरा का सबसे बड़ा उदाहरण हमें 1958 में देखने को तब मिला जब पं. नेहरू के ही दामाद स्व. फिरोज गांधी ने उनकी सरकार के वित्तमन्त्री टी.टी.के. कृष्णमाचारी पर एक उद्योगपति के साथ पक्षपात करने का आरोप लगाया। पं. नेहरू ने बिना किसी देरी के कृष्णमाचारी का इस्तीफा लेकर जांच आयोग का गठन कर दिया। दरअसल कांग्रेस के भीतर आन्तरिक लोकतन्त्र का भी यह जबर्दस्त उदाहरण था। यह भी कैसे भूला जा सकता है कि आन्तरिक लोकतन्त्र की वजह से ही 1969 में कांग्रेस का पहला विभाजन हुआ था और फिर 1978 में भी इसकी पुनरावृत्ति हुई थी। दोनों ही बार यह कार्य इंदिरा जी ने किया था।
बेशक यह कहा जा सकता है कि स्व. इंदिरा गांधी ने अपने पिता पं. नेहरू के रास्ते से हटकर अपनी पार्टी में लोकतन्त्र को सीमित किया मगर इसके बावजूद उन्होंने पार्टी के भीतर इस प्रक्रिया को पूरी तरह पारदर्शी बनाये रखा। इस बाबत हुई आलोचना पर भी उन्होंने एतराज नहीं किया बल्कि लोकतन्त्र का जरूरी हिस्सा बताया। इसकी यही वजह थी कि कांग्रेस पार्टी आजादी के बाद स्थापित हुई कोई एेसी पार्टी नहीं थी जिसे अपना वजूद बनाये रखने के लिए आन्तरिक मतभेदों को छिपाने की जरूरत हो बल्कि वह पार्टी थी जिसके भीतर मार्क्सवादी विचारों से लेकर हिन्दूवादी विचारों तक के लोग काम कर चुके थे। यह पार्टी भारत की विविधता का प्रतिबिम्ब बनकर ही भारतीयों का प्रतिनिधित्व धर्म, जाति, सम्प्रदाय व वर्ग की दीवारों को तोड़कर करती रही और यह कार्य इसने मुस्लिम कट्टरवाद के पनपने के बावजूद किया। इसका सबूत धर्म के आधार पर भारत के दो टुकड़े हो जाने के बाद हिन्दोस्तानियों द्वारा दिया गया इसे प्रचंड समर्थन था।
हिन्दोस्तानियों की यह एकता कांग्रेस का आधार बनी और यही आधार भारत की मजबूती की बुनियाद बना लेकिन इस बुनियाद की नींव शुरू से ही गरीब आदमी के उत्थान का सिद्धान्त रहा और इसी को ध्यान में रखकर कांग्रेस ने भारत की शिक्षा नीति, स्वास्थ्य नीति व खाद्य नीति तैयार की। यह बेवजह नहीं था कि इंदिरा गांधी ने 1970 में योजना आयोग के सदस्यों से कहा था कि “भारत के लिए इससे बड़ी शर्म की बात कोई और नहीं हो सकती कि वह अनाज के लिए विदेशों से मदद मांगे। किसानों को मजबूत बनाने के लिए आप जो भी कर सकते हैं करिये, इसमें किसी प्रकार की कोई भी दिक्कत नहीं आने दी जायेगी।’’ अतः कांग्रेस का इतिहास भारत के विकास की हर पौड़ी का गवाह रहा है। परमाणु परीक्षण से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान तक के क्षेत्र में इसकी सरकारों द्वारा बनाई गई नीतियां नियामक के तौर पर किसी भी पार्टी की सरकार के लिए काम करती रही हैं। अतः राहुल गांधी के सिर पर कोई छोटी–मोटी जिम्मेदारी नहीं आ रही है बल्कि उस भारत को जगाने की जिम्मेदारी आ रही है जो एक तरफ एक ही संस्कृति के नाम पर हिंसक तक हो जाता है आैर दूसरी तरफ जातिगत द्वेष के नाम पर दलितों को दलित ही बनाये रखना चाहता है। उन पर इस गफलत को दूर करने की जिम्मेदारी भी कांग्रेस का इतिहास डाल रहा है कि वह लोगों को जगायें और समझायें कि देश इसमें रहने वाले लोगों से बनता है। वे सशक्त और सामर्थ्यवान होंगे तो देश भी होगा। वे मिलजुल कर एक रहेंगे तो देश भी एक रहेगा और इसकी एकता व अखंडता भी मजबूत होगी।