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कांग्रेस : कांटों की राह पर फूल!

श्री गुलाम नबी आजाद के कांग्रेस छोड़ने के बाद क्या इस पार्टी में अब कुछ नहीं बचा है? यह ऐसा सवाल है जिसे कांग्रेसी ही सबसे ज्यादा एक-दूसरे से पूछ रहे हैं।

श्री गुलाम नबी आजाद के कांग्रेस छोड़ने के बाद क्या इस पार्टी में अब कुछ नहीं बचा है?  यह ऐसा सवाल है जिसे कांग्रेसी ही सबसे ज्यादा एक-दूसरे से पूछ रहे हैं। एक जमाना था जब कांग्रेस पार्टी को पूरे देश की एकमात्र ऐसी पार्टी माना जाता था जिसमें सभी विचारधाराओं के लोग समाहित रहते थे और समय व आवश्यकता के अनुसार पार्टी में इन सभी लोगों की उपयोगिता बनी रहती थी। परन्तु स्वतन्त्रता के बाद कांग्रेस से ही अलग होकर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों का गठन हुआ जिनमें समाजवादी व मध्यमार्गी पार्टियां प्रमुख थीं। केवल कम्युनिस्ट व जनसंघ ऐसी पार्टियां थी जिनका जन्म कांग्रेस के गर्भ से नहीं हुआ क्योंकि इन दोनों की ही विचारधारा एक तीसरा राजनैतिक दर्शन प्रस्तुत करती थी। इनमें से कम्युनिस्ट अब मृतप्रायः हैं और जनसंघ भाजपा के रूप में देश की केन्द्रीय सत्तारूढ़ पार्टी हो चुकी है। इस 75 वर्षों की दौड़ में कांग्रेस हांशिये पर सिमटती जा रही है। इसकी  एक सबसे बड़ी वजह यह है कि आजादी के बाद भी कांग्रेस का छोटे-छोटे समुच्यों में विभक्तीकरण (बालकनाइजेशन) हुआ है। महाष्ट्र की अपनी राष्ट्रवादी कांग्रेस (शरद पवार) है। प. बगाल की अपनी तृणमूल कांग्रेस (ममता बनर्जी) है। आन्ध्र प्रदेश की अपनी बाईएसआर कांग्रेस है। तेलंगाना राष्ट्रीय समिति का उदय भी कांग्रेस से ही हुआ है। 
उत्तर प्रदेश में भी नब्बे के दशक में कलाबाजी में माहिर माने जाने वाले नरेश अग्रवाल ने भी सबसे पहले लोकतान्त्रिक कांग्रेस बना कर इस पार्टी को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया। इनके अलावा केरल से लेकर अन्य राज्यों में भी ऐसी बहुत सी आंचलिक कांग्रेस पार्टियां अलग-अलग नामों से काम कर रही हैं। 1967 के चुनावों में  पहली बार जब देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ था तो भी कांग्रेस से निकल कर ही विभिन्न नेताओं ने इन सरकारों की बागडोर संभाली थी। एक मात्र पंजाब राज्य ऐसा था जहां अकालियों व जनसंघ ने मिल कर सरकार बनाई थी। इसके बाद 1969 में पूरी कांगेस के दो फाड हो गये और स्वयं इन्दिरा गांधी ने अपने चमत्कारिक नेतृत्व के बूते पर नई कांग्रेस खड़ी कर दी परन्तु इस पार्टी का चरित्र पुरानी संगठित कांग्रेस से पूरी तरह अलग था। इसके बाद 1971 में आये इन्दिरा तूफान में पार्टी का यही चरित्र इसका स्थायी भाव बन गया औऱ पार्टी में विचार विविधता का दायरा सिकुड़ता चला गया। इन्दिरा जी के मुंह से निकला शब्द ही पार्टी का सिद्धान्त माना जाने लगा। बाद में इमरजेंसी लगी और तदोपरान्त कांग्रेस का 1978 में पुनः विभाजन हुआ परन्तु यह सब इन्दिरा जी का ही तेज-प्रताप था कि पार्टी सशक्त बनी रही  इसके बाद 1984 का वह वीभत्स समय आया जिसमें कांग्रेस के बचे-खुचे सिद्धान्तों की धज्जियां भी उड़ गईं। यहां से एक नई तरह की ही कांग्रेस निकली जिसने पूरे देश की राजनीति का ही ध्रुवीकरण कर डाला। यह परिवर्तन राष्ट्रीय राजनीति की दिशा मोड़ने वाला था। इसके बाद राजनीति को नये पैमाने बनाने में बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। अब 38 साल बाद अगर हम कांग्रेस की हालत देखते हैं तो यह किसी विशालकाय हाथी का ऐसा शरीर है जिसके कानों को पकड़ कर लोग कह रहे हैं कि यह एक छाज है। जिनके हाथ में पैर हैं वे इसे कोई खम्भा समझ रहे हैं, जिनके हाथ में पूंछ है वे इसे बहुत बड़ी झाड़ू मान रहे हैं और जो हाथी के ऊपर बैठे हैं वे इसे किसी पहाड़ का मैदान मान रहे हैं। परन्तु वास्तव में कांग्रेस का समन्वित अस्तित्व का आभास नहीं कर रहे हैं।
गुलाम नबी आजाद के कांग्रेस छोड़ देने के बाद सबसे बड़ा परिवर्तन यही आया है कि यह पार्टी आयने में अपना चेहरा देख कर खुद ही यकीन नहीं कर पा रही है। परन्तु इसके बावजूद कांग्रेस का अस्तित्व तो है और वह अखिल भारतीय है बेशक ही यह छितरा हुआ ही क्यों न हो। इस पार्टी का अध्यक्ष बनने की जिज्ञासा जो राजनीतिज्ञ भी प्रकट करता है उसमें इतनी दूरदृष्टि होनी चाहिए कि वह बदलते समय में राष्ट्रीय लक्ष्यों का निर्धारण इस प्रकार कर सके कि उसके कृतित्व व व्यक्तित्व की आभा से पार्टी के साधारण कार्यकर्ता को ऊर्जा मिल सके और उसकी राजनैतिक इच्छा शक्ति मजबूत हो सके। पार्टी को एसे समय में हवाई रास्तों से उतरे हुए नेताओं की जरूरत नहीं है बल्कि जमीन की मिट्टी से पाजा हुए एसे नेताओं की जरूरत है जो फिजां को सूंघ कर ही राजनैतिक तापमन का पता लगा सकें। सबसे पहले यह समझना होगा कि 1997 में जब पार्टी अध्यक्ष का चुनाव हुआ था तो उसमे स्व. सीताराम केसरी ने श्री शरद पवार व स्व. राजेश पायलट को हराया था। उसके बाद 2001 में स्व. जितेन्द्र प्रसाद जी ने श्रीमती सोनिया गांधी के समक्ष खड़ा होने की हिम्मत जुटाई थी। उनका यह काम सिर्फ कांग्रेस पार्टी के भीतर के लोकतन्त्र को सतह पर लाने का था और भारत के लोगों को यह बताने का था कि पार्टी अध्यक्ष पद आम कांग्रेसी के लिए भी है। इसमें वह हार कर भी सफल रहे थे क्योंकि उनकी नजर में पार्टी हित सर्वोपरि था।  आज कांग्रेस को फिर से किसी जितेन्द्र प्रसाद जैसे नेता की जरूरत है जिसका व्यापक जनाधार भी हो और जिसमें दूर दृष्टि भी हो। यह रास्ता बहुत दुश्वारी भरा है क्योंकि कांग्रेस की महान विरासत को जिन्दा रखने का सवाल है। इसलिए  वही आगे आये जिसे फूलों की जगह कांटों से भी खेलना आता हो। 
‘‘इन आंवलों के पांव के घबरा गया था मैं 
जी खुश हुआ है राह को पुरखार देख कर।’’

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