इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारत के इतिहास में कांग्रेस पार्टी की 2019 के चुनावों में हुई हार अभी तक की सबसे बड़ी हार है। इस हार ने भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने वाली इस पार्टी ने अपने उस राष्ट्रीय रुतबे को खतरे में डाल दिया है जो इसकी पिछली पराजयों में भी ‘झांकता’ रहता था। इसका कारण यह है कि लगातार 5 वर्ष तक विपक्ष में रहने के बावजूद पार्टी मतदाताओं के समक्ष कारगर ‘वैकल्पिक विमर्श’ प्रस्तुत नहीं कर सकी। वास्तव में यह कांग्रेस की उस मूल विचारधारा की पराजय है जिसमें नये जमाने के कांग्रेसियों ने मनमाने ढंग से संशोधन करके समझा कि वे कांग्रेस के ‘नये संस्करण’ को उसकी ‘तपोवन भूमि’ के मूल अवयवों से तटस्थ बना सकते हैं।
ताजा इतिहास ही हमें बताता है कि जो पार्टी अपनी विचारधारा से समझौता करती है उसे समय ही निगल लेता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण डा. राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और चौधरी चरण सिंह का लोकदल है जिसमें संसोपा का ही नहीं बल्कि चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की स्वतन्त्र पार्टी का भी विलय हो गया था। बिना शक इसके बिखरने के बहुत कारण थे जिनका सिरा 1977 में गठित जनता पार्टी के बनने और बिखरने से जुड़ा हुआ है परन्तु इसी जनता पार्टी में जनसंघ का भी विलय हुआ था जिसने 1980 में भाजपा का स्वरूप लेकर अपनी विचारधारा को कस कर पकड़े रखा और आज वह लगातार दूसरी बार देश की सत्तारूढ़ पार्टी है।
अतः समय चाहे जिस गति से भी बदल जाये मगर विचारधारा के वे मूल अवयव त्यागना अपनी पराजय स्वयं स्वीकार करने के लक्षण ही होते हैं। इन चुनावों में राष्ट्रवाद ऐसा मुद्दा था जिस पर कांग्रेस ने पलायनवादी रुख अख्तियार किया जबकि इस पार्टी का आजादी के बाद का पूरा इतिहास ही राष्ट्रवाद के उच्च मानकों से भरा पड़ा है। पूरी पार्टी में सिर्फ एक नेता मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री श्री कमलनाथ ने इसे मुकाबले में लेने की कोशिश की और 1971 के बांग्लादेश युद्ध से लेकर 1974 में हुए पहले परमाणु परीक्षण का खुलकर जिक्र किया लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने इसे नजरंदाज किया। कांग्रेस इतना तक नहीं समझ सकी कि जब 2014 से पूर्व अपनी केन्द्र सरकार के अन्तिम समय में इसने भोजन का अधिकार (राइट टू फूड) और देश भर के रेहड़ी-पटरी वालों को नियमित करने का कानून बनाया था तो उसका कोई असर मतदाताओं पर क्यों नहीं हुआ था?
जबकि उस समय इस पार्टी के स्वयं को चुनावी राजनीति का धुरंधर समझने वाले नेता पत्रकारों को समझाते थे कि जिन 5 करोड़ लोगों को भोजन के अधिकार का लाभ पहुंचेगा वे तो उनके ही पास आयेंगे मगर 2019 में जो हश्र कांग्रेस का हुआ वह भाजपा का पिछलग्गू बनने से ही हुआ। भाजपा ने छोटे किसानों को 6 हजार रुपए साल की मदद की घोषणा करके उसे लागू कर दिया तो कांग्रेस ने 6 हजार रुपए महीने की घोषणा करके सभी को ‘न्याय’ देने का धुआंधार प्रचार कर डाला। भाजपा के हिन्दुत्व की काट को मन्दिरों के ज्यादा से ज्यादा चक्कर काटने से कुन्द करने का प्रयास किया गया। क्या कांग्रेस पार्टी के नेताओं को इसका जवाब मन्दिरों के स्थान पर शिक्षा के मन्दिरों ‘स्कूलों’ में जाकर नहीं देना चाहिए था? जिस पार्टी ने अपने घोषणापत्र में सकल उत्पाद का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने का वादा किया हो क्या उसे ऐसा करने से परहेज था?
जरा विचार कीजिये 1969 में पूरी कांग्रेस में अकेली पड़ जाने और अपनी सरकार के गिर जाने तक का जोखिम उठाकर स्व. इदिरा गांधी ने आधी रात को 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने का फैसला क्यों किया था और वह भी राष्ट्रपति से अध्यादेश जारी करा कर? जाहिर है राजनीति समानान्तर सकारात्मक विमर्श खड़ा करने की कला होती है और इसके पीछे विचारधारा उत्प्रेरक का कार्य करती है। विचारधारा से समझौता कर लेने के बाद यह प्रेरणा समाप्त हो जाती है। इन तथ्यों को इस रोशनी में नहीं देखा जाना चाहिए कि पराजय के बाद सब ‘उपदेश’ देने लगते हैं बल्कि स्वयं विवेक से निरपेक्ष भावना से अत्मालोचन किया जाना चाहिए। कांग्रेस में आज भी तेज दिमाग घाघों की कमी नहीं है। अतः फिलहाल मसला यह है कि इस पार्टी की आगे की दिशा क्या हो?
लोकसभा में केवल 52 सीटें जीतकर आने वाली इस पार्टी को श्रीमती सोनिया गांधी की छत्रछाया में ही आगे का सफर तय करना होगा और इस प्रकार करना होगा कि यह अपनी विचारधारा के सभी अवयवों को पुनः जोड़कर सशक्त विकल्प प्रस्तुत कर सके। लोकतन्त्र में मजबूत विपक्ष की भी उतनी ही जरूरत होती है जितनी कि मजबूत सरकार की। श्री राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ने का जो फैसला लिया है वह पराजय के बाद वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों में उपजा हुआ तार्किक विचार है। इस पर ज्यादा हाय-तौबा करना इसलिए उचित नहीं है क्योंकि पार्टी को सामूहिक तौर पर आगे बढ़ने की जरूरत है और इकट्ठा रहने की जरूरत है जिसके लिए श्रीमती गांधी का शीर्षस्थ रहना ही पर्याप्त है। अतः उनका कांग्रेस संसदीय दल का नेता बनना ही स्वयं में पार्टी को जोड़े रखने में समर्थ होगा और संसद के माध्यम से वह अपनी पार्टी से अलग होकर बनी विभिन्न कांग्रेसों के साथ तालमेल बैठा सकेंगी, ऐसा करना भविष्य में जरूरी हो सकता है।