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कांग्रेस की किश्ती और राहुल गांधी

देश में चुनाव होने के बाद नई लोकसभा की संरचना में विपक्ष की भूमिका हाशिये पर जिस तरह दिखाई पड़ रही है उसमें कांग्रेस पार्टी अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकती।

देश में चुनाव होने के बाद नई लोकसभा की संरचना में विपक्ष की भूमिका हाशिये पर जिस तरह दिखाई पड़ रही है उसमें कांग्रेस पार्टी अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकती। पहला सवाल कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी से ही पूछा जाना चाहिए कि चुनावों में स्वयं को भाजपा सरकार का सबसे बड़ा और मुखर प्रतिद्वन्दी पेश करने के बाद वह नई लोकसभा में यही भूमिका निभाने से क्यों पीछे हटे? सवाल यह भी वाजिब है कि यदि उन्हें संसद के भीतर कांग्रेस सांसदों का नेतृत्व नहीं करना था तो उन्होंने उत्तर प्रदेश के ‘अमेठी’ लोकसभा क्षेत्र के साथ ही केरल के वायनाड से चुनाव क्यों लड़ा? जाहिर है कि उनका यह फैसला चुनावी मौसम के दौरान ‘हार-जीत’ के कयासों पर टिका हुआ था। 
यह भी तय है कि अमेठी की जमीनी हकीकत को देखते हुए ही उनके शुभचिन्तकों ने उन्हें किसी दूसरे सुरक्षित स्थान से चुनाव लड़ने की सलाह दी होगी। इसमें कोई बुराई नहीं थी क्योंकि कांग्रेसी चाहते थे कि उनका नेता हर सूरत में संसद में प्रवेश पाना चाहिए। उनसे पहले भी कांग्रेस व भाजपा के कई नेता एक के स्थान पर दो जगहों से चुनाव लड़ चुके हैं, परन्तु मूल सवाल यह है कि उनके लोकसभा में चुने जाने के बावजूद इसका लाभ उनकी पार्टी को कितना हुआ? बात समझ में आती है कि चुनावों में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद उन्होंने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना बेहतर समझा परन्तु लोकसभा चुनावों में तो वह विजयी हुए, इसके बावजूद लोकसभा में अपनी पार्टी का नेतृत्व करने से वह क्यों कतरा गये? 
दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडु व केरल के मतदाताओं ने तो उनके नेतृत्व पर भरोसा किया था। बेशक देश के 18 राज्यों में कांग्रेस पार्टी का पूरी तरह सफाया हो गया है परन्तु शेष 11 राज्यों में तो कांग्रेस की उपस्थिति है और इनमें उसे जो भी सफलता मिली है उसका राजनीतिक अर्थ यही निकाला जायेगा कि वह श्री नरेन्द्र मोदी के मुकाबले राहुल गांधी का मुंह देखकर ही मिली है। वायनाड की जनता ने उन्हें रिकार्ड वोटों से विजयी बनाकर यही भरोसा दिया था कि वह संसद में पहुंच कर अगली पंक्ति में खड़े होकर भाजपा विरोध का झंडा फहरायेंगे मगर उन्होंने यह झंडा पकड़ने से भी इन्कार कर दिया! इसका मन्तव्य क्या यह निकाला जा सकता है कि ‘नेहरू-गांधी परिवार’ के प्रति आम लोगों का सम्मोहन टूटते देखकर उन्होंने यह फैसला लिया है ? 
यदि ऐसा है तो कांग्रेस पार्टी को पूरी तरह नये परिधान में आने की तैयारी कर लेनी चाहिए और अपना कायाकल्प करने की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। एक परिवार के भरोसे देश की सबसे पुरानी पार्टी का भविष्य जोड़कर नहीं रखा जा सकता। हकीकत तो यह है कि परिवार के भरोसे अपनी नैया पार कराने वाले कांग्रेसियों ने आत्मविश्वास ही खो दिया है। राजनीति ‘आत्मविश्वास’ से चलती है। यदि ऐसा न होता तो भारतीय जनता पार्टी आज देश की सत्ताधारी पार्टी न बन पाती। साठ और सत्तर के दशक तक किसी नागरिक को ‘जनसंघी या संघी’ कहना उसे हेय सूची में डालने जैसा होता था मगर यह आत्मविश्वास ही था जिसकी बदौलत इस पार्टी की पुरानी पीढि़यां अपने रास्ते पर डटी रहीं जबकि इस पार्टी के पास न तो आजादी की विरासत थी और न ही कोई ऐसा परिवार या व्यक्तित्व था जिसके नाम पर वह मतदाताओं को आकर्षित कर सके लेकिन वह संगठनात्मक ढांचा जरूर था जो अपनी पार्टी के सिद्धान्तों पर चलना अपना ‘ईमान’ समझता था। 
इन सिद्धान्तों से तब भी राजनीतिक मतभेद थे और आज भी हैं मगर इससे पार्टी के आत्मविश्वास पर कोई फर्क नहीं पड़ा। अतः राजनीतिक सफलता प्राप्त करने के लिए आत्मविश्वास की सबसे पहली जरूरत होती है। पार्टियां हर चुनाव के समय अपनी रणनीति बदलती रहती हैं क्योंकि केवल विजय ही उनका अन्तिम लक्ष्य होता है। एक जमाना था कि जम्मू-कश्मीर जनसंघ (भाजपा) के अध्यक्ष इमरजेंसी से पहले तक शेख अब्दुर्रहमान हुआ करते थे। 1977 में जनता पार्टी बनने और इसके विघटन के बाद भाजपा ने अपनी रणनीति बदल डाली। स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के 1968 से 72 तक भाजपा के अध्यक्ष रहने पर अधिकतर चुनावी बाजियां जनसंघ के खिलाफ ही गईं मगर संसद में उन्होंने अपनी पार्टी का लगातार नेतृत्व किया और 2004 में लखनऊ से चुनाव जीतने पर अस्वस्थता के कारण यह भूमिका त्याग दी। 
कहने का मतलब यह है कि नेता कभी कमान संभालने से नहीं डरता क्योंकि उसका आत्मविश्वास उसे हमेशा प्रेरित करता रहता है। श्री राहुल गांधी के साथ-साथ खुद कांग्रेस पार्टी को ही इस पर मंथन करके स्वयं का पुनर्जागरण करना चाहिए क्योंकि भारत को एक सशक्त विपक्षी दल की बहुत सख्त जरूरत है। यदि 1969 में स्व. इंदिरा गांधी ने अपनी ही पार्टी के कद्दावर नेताओं से लोहा लेने का जोखिम न उठाया होता तो क्या वह कांग्रेस को जीवित रख सकती थीं? क्योंकि इससे पहले 1967 के चुनावों में तो पार्टी इस कदर लड़खड़ा गई थी कि इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष स्व. कामराज नाडार  स्वयं तमिलनाडु के नागरकोइल से चुनाव हार गये थे मगर जमीन सूंघ कर राजनीति की कला विकसित करने के बाद ही इन्दिरा जी ने 1971 में वह रुतबा पाया था जो आज 2019 में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने पाया है। 
यह इन्दिरा जी का आत्मविश्वास ही था जिसने उन्हें सफलतम राजनीतिज्ञ बनाया। यदि श्री राहुल गांधी महसूस करते हैं कि जमीन सूंघ कर राजनीति की रणनीति बनाने में वह सफल नहीं हो सकते तो कांग्रेस पार्टी को सामूहिक रूप से अपनी राजनीतिक विरासत के चिन्हों को टटोलते हुए परिवारवाद से छुटकारा पाना चाहिए और भारत की नई पीढ़ी के लिए राजनीतिक विकल्प तैयार करने के प्रयासों में जुट जाना चाहिए परन्तु यह काम आसान नहीं है क्योंकि इस पार्टी के नेताओं को इन्दिरा गांधी के जमाने से ‘गणेश परिक्रमा’ करके पुरस्कृत होने की लत लग गई है। इसका विकल्प भाजपा की तर्ज पर ही ‘जन परिक्रमा’ करके दिया जा सकता है। एक मायने में लोकसभा में ‘बहरामपुर के शेर’ कहे जाने वाले सांसद अधीर रंजन चौधरी का नेता पद के लिए चुनाव करके श्रीमती सोनिया गांधी ने संकेत दे भी दिया है कि कांग्रेस की ‘किश्ती’ को पार लगाने की जिम्मेदारी अब आम जनता पर ही है, 

‘‘आई अगर बला तो जिगर से टली नहीं 
इराही देकर हमने बचाया है किश्त को।’’     

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