भारत की राजनीति आज जिस मोड़ पर खड़ी हुई है उसमें देश की सबसे पुरानी और अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने वाली पार्टी कांग्रेस की प्रमुख भूमिका है। परन्तु हाल में हुए पांच राज्यों में से हिन्दी भाषी क्षेत्र के तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में ही इसकी पराजय से पार्टी पूरी तरह दिशाहीन लगती है और आत्म आलोचना में इस कदर उलझ गई है कि यह भविष्य का रास्ता खोजने में ही असमर्थता महसूस कर रही है। परन्तु इस पार्टी का अतीत वही रहा है जो भारत का अतीत पिछली सदी में रहा है। यह विरासत बहुत बड़ी विरासत है परन्तु पार्टी खुद की ही ताकत को पहचान नहीं पा रही है और उलझनों की बुनावट में उलझती सी दिखाई पड़ रही है। इसके सामने भारतीय जनता पार्टी के रूप में इसका प्रमुख विरोधी मौजूद है और उसका एजेंडा स्पष्ट है मगर इसके बावजूद यह मुकाबला करने में पिछड़ रही है। इसकी एक वजह यह हो भी सकती है कि भाजपा के जितने भी विरोधी दल आज देश में विभिन्न राज्यों में बिखरे पड़े हैं उनमें से 90 प्रतिशत का जन्म कांग्रेस पार्टी की कोख से ही कभी न कभी और किसी न किसी बहाने हुआ है। मगर क्या कयामत है कि लोकसभा चुनावों में केवल चार महीने का समय शेष है और संसद के दोनों सदनों से विपक्ष के 146 सांसदों को सत्ता पक्ष ने संसद से बाहर करवा दिया है और केवल राजधानी के जन्तर-मन्तर पर ही इन सभी दलों का 'इंडिया' गठबन्धन प्रदर्शन और धरना देकर खुद को धन्य समझ रहा है।
कांग्रेस और देश के संसदीय इतिहास की यह अभी तक की सबसे बड़ी घटना है परन्तु कांग्रेसी नेताओं को विरोध की अभी भी केवल यही तरकीब नजर आ रही है कि राहुल गांधी फिर से 'भारत जोड़ो यात्रा' शुरू करें। ऐसा लग रहा है कि मानो कांग्रेसियों के दिमाग को जंग लग गया है और वे लकीर पीटकर ही जमीन से पानी निकालने पर आमादा है। राहुल गांधी ने पहले भारत जोड़ों यात्रा निकाल कर देश भर में जो चेतना भरनी थी वह भर चुके हैं और लोगों को समझा चुके हैं कि कांग्रेस की भारत की 'राष्ट्र परिकल्पना' गांधीवाद के 'प्रेम व भाईचारे' की परिकल्पना है जिसमें समाज में किसी भी वर्ग या सम्प्रदाय के लोगों के लिए नफरत की कोई जगह नहीं है। इसका असर भी देश की राजनीति पर पड़ा और पांच राज्यों में से एक तेलंगाना में पार्टी को भारी विजय मिली। मगर पार्टी रणजीत सिंह सुरजेवाला जैसे नेताओं का क्या करेगी जो राहुल गांधी की मेहनत को अपनी रणनीतिक विजय बताकर मध्य प्रदेश में कांग्रेस के हाथ से जीती हुई बाजी को हार में बदलवा देते हैं। कांग्रेस में एेसे कागजी शेरों की कमी नहीं है जो 'ट्विटर और बैठकें' करके चुनाव जीतना चाहते हैं और जमीन पर उतरने से डरते हैं।
लोकतन्त्र में संसद और सड़क को जो लोग अलग करके देखते हैं वे गणतन्त्र की नब्ज कभी नहीं पकड़ सकते। कांग्रेस ने ही इस देश में संसदीय लोकतन्त्र की जड़ें जमाई हैं और संविधान के माध्यम से 'लोक कल्याणकारी राज' की स्थापना का मन्त्र आजाद भारत के लोगों को दिया है। मगर क्या सितम है कि आज यही बात पार्टी लोगों को समझा नहीं पा रही है और भाजपा के हिन्दुत्व मूलक राष्ट्रवाद के समक्ष अपना वैकल्पिक विमर्श खड़ा नहीं कर पा रही है। इसे राजनीति की विडम्बना ही कहा जायेगा कि इसके नवोदित नेता पार्टी की मूल विचारधारा को आधुनिक व बदली हुई परिस्थितियों में करीने से जनता के सामने पेश नहीं कर पा रहे हैं और अपने विरोधी के खड़े किये गये विमर्श के सामने बौने पड़ते जा रहे हैं। राष्ट्रवाद के मोर्चे पर ही इसके पास तो स्व. इंदिरा गांधी की वह विरासत है जिसने पाकिस्तान को 1971 में बीच से चीर कर दो टुकड़ों में विभाजित कर दिया था। 'हिन्दू' के नाम पर महात्मा गांधी की वह विलक्षण विरासत है जिन्होंने बचपन से लेकर जीवन पर्यन्त राम नाम को 'अमोध अस्त्र' समझा। सवाल सिर्फ खुद की ताकत को पहचानने का है और जनता के साथ सीधे संवाद करके उसके दिल में उतरने का है।
यह बिल्कुल सही बात है कि मध्य प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस के मत प्रतिशत में बजाये गिरावट आने के इसमें थोड़ी वृद्धि ही हुई है मगर हकीकत तो यह है कि कांग्रेस को इन राज्यों में भाजपा ने हराया है। यह हार न कमलनाथ की वजह से हुई है और न अशोक गहलोत या भूपेश बघेल की वजह से बल्कि मतदाताओं तक कांग्रेस के वैकल्पिक विमर्श को न पहुंचाने की वजह से हुई है वरना क्या वजह है कि पुरानी पेंशन स्कीम को लागू करने का वादा करने वाली कांग्रेस पार्टी को मध्यम वर्ग के लोगों का पूरा समर्थन नहीं मिला? यह भारत राम का गुणगान भी करता है और साथ ही यह भी कहता है कि :
''भूखे भजनि न होए गोपाला, यह ले अपनी कंठी माला।''
इसके बावजूद यदि नौजवानों में बेरोजगारी का कांग्रेस द्वारा खड़ा हुआ मुद्दा बेअसर रहता है तो मानना पड़ेगा कि पार्टी इस विषय को जन विमर्श में तब्दील करने में नाकामयाब रही। कांग्रेसियों को यह पता होना चाहिए कि अब उनके पास कोई इंदिरा गांधी जैसी लोकप्रिय चुम्बकीय शक्ति नहीं है बल्कि अब ऐसी ताकत नरेन्द्र मोदी के रूप में भाजपा के पास है। इसका मुकाबला करने के लिए उन्हें सड़कों पर राजनैतिक संसद स्थापित करनी पड़ेगी और सीधे मतदाताओं को संसद सदस्य बनाना होगा। राजनीति में चुनावी जय-पराजय होती रहती है मगर राजनैतिक दलों के हौसले पस्त नहीं होते। इसका उदाहरण भी कोई और नहीं बल्कि आज की सत्तारूढ़ भाजपा ही है जिसके 1984 में केवल दो सांसद लोकसभा में पहुंच पाये थे। हौंसला हो तो आसमान में भी सुराख किया जा सकता है और अपनी गलतियों से सीख ली जा सकती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com