कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी आजकल दस दिन की अमेरिका यात्रा पर हैं जहां भारतीय मूल के प्रवासी नागरिक विभिन्न समूहों में उन्हें सुनना पसन्द कर रहे हैं। अमेरिका में करीब 50 लाख भारतीय अनिवासी रहते हैं और उनका अपने देश अमेरिका की राजनीति में दखल होने के साथ ही वहां की अर्थव्यवस्था में भी अच्छा योगदान है। इसके साथ ही ये प्रवासी लोग भारत में बसे अपने परिवारों को भी आर्थिक मदद भेजकर भारत के विदेशी मुद्रा कोष में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। जाहिर तौर पर इनकी भारत की आन्तरिक राजनीति में भी रुचि रहती है क्योंकि उनका पितृ देश भारत ही है। राहुल गांधी मूल रूप से एक राजनीतिज्ञ हैं और भारत की ऐसी पार्टी कांग्रेस के अव्वल समझे जाने वाले नेता हैं जिसने देश को अंग्रेजी साम्राज्यवाद की दासता से 1947 में मुक्ति दिलाई। मुक्ति का आन्दोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने ही लड़ा। राहुल गांधी इंदिरा गांधी के पौत्र व राजीव गांधी के पुत्र भी हैं अतः उनके बारे में विदेशों में बसे भारत मूल के लोगों की जिज्ञासा न हो एेसा संभव ही नहीं है।
राहुल अमेरिका प्रवास के दौरान शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों व विभिन्न अमेरिकी राजनीतिज्ञों से भी मुलाकात करेंगे और यहां के विश्वविद्यालयों में भी वहां की युवा पीढ़ी से रूबरू होंगे। मगर पहले ही दिन अमेरिका के सान फ्रांसिस्को शहर में आयोजित एक सभा में उनके द्वारा प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी पर की गई टिप्पणी पर जिस तरह भारत में बवाल उठा है उससे तीन महीने पहले ब्रिटेन के दौरे में उनके द्वारा भारत में लोकतन्त्र की स्थिति पर की गई टिप्पणी पर नई दिल्ली में उठे विवाद की याद ताजा हो गई है। उस समय भाजपा ने सड़क से लेकर संसद तक इस मामले में भारी हंगामा बरपा कर दिया था और राहुल गांधी से अपने कथन पर माफी मांगने की आवाज लगाई थी। इसके चलते संसद का बजट सत्र ही बेमानी हो गया था और बजट भी शोर- शराबे में बिना बहस के ही पारित हो गया था। इसके समानान्तर जो अदालती घटनाक्रम उनके 2019 में दिये गये एक चुनावी भाषण को लेकर चला उससे उनकी संसद सदस्यता ही जाती रही लेकिन इस पूरे घटनाक्रम से भारत की जनता में जो पैगाम पहुंचा उसने संभवतः अपना असर कर्नाटक विधानसभा चुनावों में दिखाया और आज परिणाम सामने हैं। मगर इसका मतलब यही निकलता है कि भारत की जनता घटनाएं घट जाने के बाद अपना विमर्श स्वयं बनाती है। विदेशों में जाकर राहुल गांधी जब लोकतन्त्र की बात करते हैं तो वह इस व्यवस्था का मूल्यांकन सकल विश्व के सन्दर्भ में करने के लिए स्वतन्त्र होने चाहिए मगर भारत की विशुद्ध घरेलू राजनीति के आन्तरिक मसलों पर विदेशों की धरती पर खड़े होकर नुक्तीचीना करने की परंपरा हमारे देश में एक दशक पहले तक नहीं थी। मगर यह मात्र परंपरा थी। समय बदलने पर परंपराओं को तोड़ना कोई अपराध भी नहीं होता है।
केन्द्र में सत्ता बदल होने पर जब इस परंपरा को तोड़ा गया तो उसके कारणों को भी हमें समझना होगा। 1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत की अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश के साथ ही विदेश नीति में परिवर्तन व परिमार्जन इसलिए जरूरी था जिससे भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग बन सके। यह कार्य 1991 के बाद से भारत की सभी केन्द्र सरकारों ने सफलतापूर्वक किया और इसी दौरान पूरी विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की ‘ज्ञान शक्ति’ का डंका बजा जिसकी वजह से यह सूचना प्रौद्योगिकी व कम्प्यूटर साफ्टवेयर उद्योग का सिरमौर बना। युवा पीढ़ी में अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान तक इसकी विशिष्ट सम्पत्ति बन गई। अवासी भारतीय विदेशों में 1991 के बाद से ही विशेष सम्मान के साथ देखे जाने लगे। भारत धीरे- धीरे दुनिया के उद्यमों के आकर्षण का केन्द्र बनने लगा जिसमें अनिवासी भारतीयों की भूमिका क्रांतिकारी रूप से बदलने लगी। अतः 2014 के बाद से श्री मोदी ने भारत के राजनैतिक सन्दर्भों को भी संज्ञान में लेकर बदलते भारत की राजनीति पर तब्सरा करना शुरू किया।
बेशक राहुल गांधी भी यदि आज यही कर रहे हैं तो वह निश्चित रूप से बदलते भारत के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में अनिवासियों को सचेत करने का काम कर रहे हैं। भारत के भीतर ऐसे मामलों पर विवाद होना बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है। टैक्नोलोजी के इस दौर में और सूचना क्रान्ति के इस युग में दोनों के बीच की दूरियां भी मिनटों तक सीमित हो गई हैं तो राजनैतिक दलों को इस खेल को भी खेलना ही होगा। यह बात और है कि ये पार्टियां किस तरह अपने विमर्शों को प्रस्तुत करती हैं। विविधता में एकता के अलम्बरदार और राज्यों के संघ में मजबूत भारत की विवेचना भाजपा व कांग्रेस अपने-अपने नजरिये से कर रही हैं और अनिवासी भारतीयों के बीच अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रही हैं। इसमें दोनों द्वारा एक-दूसरे की आलोचना किया जाना राजनीति के नियम के अलावा और कुछ नहीं माना जा सकता।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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