छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में चल रहे कांग्रेस पार्टी के 85वें महाधिवेशन का वर्तमान राजनीति में महत्व यह है कि यह अपने नेता राहुल गांधी की ‘भारत-जोड़ो’ यात्रा के दौरान पैदा किये गये वैकल्पिक जन-विमर्श के साये में हो रहा है। बरसों से निर्जीव समझी जा रही यह पार्टी फिलहाल नव ऊर्जा से आवेशित लग रही है और विपक्षी खेमे में अपने वर्चस्व के लिए ताल ठोकती लग रही है। लोकतान्त्रिक राजनीति में इसे सकारात्मक प्रक्रिया समझा जाता है क्योंकि अभी तक विपक्ष को बहुत छिन्न- भिन्न और कमजोर माना जा रहा था। मगर इसके साथ कांग्रेस की चुनौतियां भी कम बड़ी नहीं हैं। सबसे बड़ी चुनौती प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता और उनकी पार्टी भाजपा का जन विस्तार है। देखना यह होगा कि कांग्रेस अपनी पुरानी साख के घेरे में किस तरीके से पहुंचने का प्रयास करती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह एक लोकतान्त्रिक पार्टी है और इसने श्री मल्लिकार्जुन खड़गे को अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनकर एक ही गांधी परिवार के साये में लिपटे रहने का आरोप भी निस्तारित कर दिया है। साथ ही श्री खड़गे के रूप में इसने एक दलित व मजदूर के बेटे के हाथ में अपनी बागडोर देकर अपनी खिसकी हुई जमीन को पुनः पाने का उपक्रम करने का अवसर भी लपक लिया है मगर इसे अभी वह रुतबा हासिल करना है जिसकी पहचान इसके नाम के साथ पिछली सदी से रही है।
यह हकीकत है कि भारत की पिछली सदी का इतिहास वही रहा है जो कांग्रेस पार्टी का इतिहास रहा है मगर वर्तमान सदी के दौरान 2004 से 2014 तक के अपने शासन के आखिरी चरण में इसकी ‘चादर’ इस कदर ‘मैली’ बना दी गई कि भाजपा नेता श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री बनने में कोई कठिनाई नहीं हुई। यदि कांग्रेस इस सम्मेलन से अपनी चादर को ‘धवल’ बनाने के मुहीम पर राहुल गांधी द्वारा पैदा किये गये जन-विमर्श को पकड़ कर जुगत भिड़ाती है तो देश में एक मजबूत विपक्ष का उभार हम महसूस कर सकते हैं। अभी तक रायपुर से जो खबरें मिल रही हैं वे काफी रोचक और राजनीति को भीतर तक प्रभावित करने वाली हैं। मसलन पार्टी अपने संविधान में संशोधन करके यह प्रावधान कर रही है कि इसकी सर्वोच्च निर्णायक संस्था कार्य समिति में पचास प्रतिशत सदस्य अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग व अल्पसंख्यक समुदाय के हों और कांग्रेस अध्यक्ष ही कार्य समिति के सभी सदस्यों को नामांकित करें। यह बदलते भारत की सामाजिक अपेक्षाओं के अनुरूप कदम है क्योंकि लोकतन्त्र में राष्ट्रीय राजनैतिक दल नागरिकों की सामाजिक संरचना का प्रतिनिधित्व किये बगैर सत्ता में जनता की भागीदारी सुनिश्चित नहीं कर सकते। दूसरे पार्टी के सभी पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष व प्रधानमन्त्री स्वयमेव रूप से कार्य समिति के सदस्य होंगे। देखना यह होगा कि पार्टी अपने राजनैतिक व आर्थिक प्रस्ताव में किन मुद्दों को उठाकर उनका हल खोजने की तजवीज पेश करती है। साथ ही सामाजिक न्याय एवं युवा व रोजगार से सम्बन्धित प्रस्तावों में उसका नजरिया कौन सी तस्वीर पेश करता है।
कुल छह प्रस्ताव पार्टी के तीन दिन तक चलने वाले सम्मेलन में पारित किये जायेंगे जिनमें एक कृषि प्रस्ताव भी होगा। कृषि या ग्रामीण क्षेत्र का कांग्रेस पार्टी के साथ महात्मा गांधी के जमाने से ही गहरा रिश्ता रहा है जिसे 1991 में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू करने के बाद लावारिस बना दिया गया था। इस सम्बन्ध में पार्टी का आर्थिक प्रस्ताव भी विचार करने योग्य होगा क्योंकि पार्टी इस हकीकत से भाग नहीं सकती कि देश में आर्थिक उदारीकरण की जनक वही है। दरअसल कांग्रेस को वर्तमान आर्थिक-राजनैतिक परिदृश्य में वह ठोस विकल्प सुझाना होगा जिससे भारत में राष्ट्रीय सम्पत्ति में गरीबों की भागीदारी बढ़ सके और उनका सामाजिक व शैक्षणिक उत्थान भी संभव हो सके। आजादी के बाद कांग्रेस शासन के दौरान जिस लोक कल्याणकारी राज की परिकल्पना के भीतर औद्योगिकीकरण से लेकर आर्थिक अधिकारिता के कार्यक्रम चलाये गये क्या उस तरफ लौटने की संभावना बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में बनाई जा सकती है, इस तरफ भी पार्टी को अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना होगा? इसके बिना कोई भी वैकल्पिक जन विमर्श टिकाऊ नहीं हो सकता।
इस महाधिवेशन में विपक्ष की समग्र एकता में कांग्रेस की भूमिका क्या होगी और वह किस तरह परस्पर विरोधी हितों वाले क्षेत्रीय दलों के साथ तारतम्य बैठाने का प्रयास करेगी, इसके किसी सटीक फार्मूले की तवक्कों भी राजनैतिक हलकों में रह सकती है। मगर सबसे बड़ी तवक्कों देश की जनता को इस पार्टी से यही हो सकती है कि वह देश में शक्तिशाली विपक्ष की भूमिका निभाये। अभी चालू वर्ष के दौरान ही छह और राज्यों के चुनाव होने हैं जिनमें पार्टी को शानदार प्रदर्शन करने की रणनीति अपने महाधिवेशन में बनानी होगी । इस मार्ग में सबसे बड़ी बाधा स्वयं कांग्रेस पार्टी की आपसी गुटबाजी भी मानी जाती रही है मगर अब कांग्रेसियों को समझना होगा कि यह सत्तारूढ़ पार्टी नहीं बल्कि विपक्ष की पार्टी है अतः उन्हें अपनी पुरानी मानसिकता को त्यागना होगा और लोगों के बीच जाकर काम करने की कला सीखनी होगी। महाधिवेशन इस दृष्टि से क्या नजरिया अपनाता है, यह भी देखने वाली बात होगी?
आदित्य नारायण चोपड़ा
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