देश के नेताओं की बदजुबानी तो आम बात है। चुनाव आते ही नेताओं की फौज जनता का रुख करती है। इस दौरान अपने भाषणों में, बयानों में कब किसके बोल बदल जाएं, इसकी कोई गारंटी नहीं होती। वर्तमान में ऐसा लगता है कि मानो अमर्यादित बयानों की बाढ़ सी आ गई है। वैचारिक मतभेद, असहमतियां और विरोध शुरू से राजनीति का अभिन्न अंग रहे हैं। कई कद्दावर नेता ठोस तर्कों के आधार पर विभिन्न विषयों पर जोरदार ढंग से विरोध जताते रहे हैं। जिन लोगों ने संसद की गरिमामय बहस सुनी है, उन्हें आज भी कद्दावर नेताओं के तर्क याद हैं। भारत का दुर्भाग्य रहा कि विरोध और असहमतियां जताने का अप्रतिष्ठाजनक रूप हमें आज देखने को मिल रहा है वह शायद ही पहले किसी दौर में मिला हो। वह भी दिन थे जब हमारे राजनेताओं का आचरण शालीन और विनम्र होता था। उनके एक-एक शब्द का गहरा अर्थ होता था। हमने वह दौर भी देखा जब आकाशवाणी पर इन्दिरा जी बोलती थीं तो बाजार रेडियो पर उन्हें सुनने के लिए थम जाता था। अटल जी बोलते थे तो पक्ष ही नहीं, विपक्षी दलों की पार्टियों के कार्यकर्ताओं की भीड़ लग जाती थी। अब भारतीय राजनीति में भाषा की ऐसी गिरावट आ चुकी है कि शब्द भी सहमे हुए हैं, क्योंकि उनका लगातार दुरुपयोग जारी है।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने गुजरात में चुनाव प्रचार शुरू करने से पूर्व अपनी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को नसीहत देते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध हल्की भाषा का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। उन पर व्यक्तिगत प्रहार भी ठीक नहीं हैं। मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं, उनकी गरिमा का ख्याल रखा जाना चाहिए। तब लगा था कि कांग्रेस इस नसीहत को आत्मसात कर लेंगी लेकिन गुजरात विधानसभा चुनावों के पहले दौर के मतदान से पूर्व चुनाव प्रचार समाप्त होते-होते कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर के प्रधानमंत्री के प्रति अशोभनीय और अमर्यादित बयानबाजी कर सियासत को गर्मा दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मणिशंकर द्वारा बोले गए शब्द का भरपूर इस्तेमाल किया आर उसे चुनावी मुद्दे में तब्दील कर दिया। मणिशंकर अय्यर अपने विवादित बयानों के लिए पहले ही चर्चित हैं। 2014 के चुनावों में भी तालकटोरा स्टेडियम में कांग्रेस अधिवेशन में मणिशंकर अय्यर ने पीएम कैंडिडेट नरेन्द्र मोदी को ‘चायवाला’ कहकर मजाक उड़ाया था। उन्होंने कहा था कि 21वीं सदी में नरेन्द्र मोदी कभी भी देश के प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे। यहां आकर चाय बांटना चाहें तो हम उनके लिए जगह देने को तैयार हैं। तब भी भाजपा ने इसे खूब भुनाया था और भाजपा चुनावों में धुआंधार जीतती गई।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नरेन्द्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहा था तो उन्होंने इसे गुजरात की अस्मिता से जोड़ा और कांग्रेस को पटखनी दे दी थी। मणिशंकर अय्यर कांग्रेस के लिए आत्मघाती ही साबित हुए। अय्यर राजीव गांधी के करीबी नेताओं में शुमार रहे हैं। उनके बयान के बाद पैदा हुए सियासी विवाद के बाद पार्टी ने उन्हें कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से निलम्बित कर दिया है। कांग्रेस के इस एक्शन को राहुल गांधी के युग का आगाज माना जा रहा है। यद्यपि भाजपा इसे कांग्रेस की मजबूरी या नौटंकी कहे लेकिन राहुल गांधी ने अपने पिता के करीबी रहे मणिशंकर को बाहर का रास्ता दिखाया, यह भी उनकी बदलती शैली का संकेत है। राहुल के ट्वीट पर मणिशंकर अय्यर ने 6 बार माफी मांगी लेकिन कहते हैं आंख से निकले आंसू, कमान से छूटा हुआ तीर और होठों से निकले शब्द कभी वापस नहीं लौटते। राहुल ने तुरन्त एक्शन लेकर पार्टी के भीतर और बाहर सख्त संदेश दिया है जिसका असर गुजरात चुनाव के बाद भी दिखाई देगा। राहुल गांधी के अध्यक्ष पद का पर्चा भरने पर भाजपा इसे वंशवाद बताकर कांग्रेस को घेर रही थी तो तब भी मणिशंकर ने मुगलों का उदाहरण दिया था कि ”जब शाहजहां ने जहांगीर की जगह ली थी तब चुनाव हुए थे। यह सब जानते हैं कि जो बादशाह है उसकी सन्तान को सत्ता मिलेगी।” तब उनके बयान पर प्रधानमंत्री ने पलटवार किया था कि ”औरंगजेब राज उन्हीं को मुबारक हो।”
मणिशंकर अय्यर ने 2013 में भी मोदी को विभिन्न उपनामों से सम्बोधित किया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह भारत का सम्मान बढ़ाया है, उनका राजनीतिक कद काफी बढ़ चुका है। देश की जनता भी उनसे स्नेह करती है और सम्मान देती है। मणिशंकर को कुछ बोलने से पहले जनभावनाओं का आकलन कर लेना चाहिए। आज के दौर में ऐसे राजनेता बहुत कम रह गए हैं जो अपनी बोलचाल में मर्यादित भाषा का इस्तेमाल करते हैं। दरअसल नेता उसे ही माना जाता है जिसका वाणी पर संयम हो लेकिन बहुत कम नेता इस मामले में परिपक्वता नहीं दिखा रहे। सभी अपनी राजनीतिक सुविधाओं के अनुरूप शब्दों का इस्तेमाल कर एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी जगह बना ली है। भाजपा में भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं जो सड़कछाप बयानों के लिए चर्चित हैं। कुछ राजनीतिज्ञ तो सुर्खियों में बने रहने के लिए उलटे-सीधे बयान देते रहते हैं जिससे साम्प्रदायिक विद्वेष की भावना पैदा हो सकती है। अब जबकि राहुल गांधी की ताजपोशी होने वाली है, कांग्रेस को इस बात का मंथन करना चाहिए कि पार्टी की पुरानी साख को कैसे बहाल किया जाए। लोगों को लगे कि कांग्रेस सिद्धांतों और विचारों वाली पार्टी है जो कि भाषा की मर्यादा के प्रति गंभीर है। राहुल गांधी को कांग्रेस के भीतर बैठे चाटुकारों से मुक्ति प्राप्त करनी ही होगी और पार्टी को वैचारिक शक्ति का रूप देना होगा।