आगामी 17 जुलाई को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए अब केन्द्र की सत्ताधारी पार्टी भाजपा ने अपनी रणनीति बनानी शुरू कर दी है। इसके लिए मोदी सरकार के तीन वरिष्ठ मन्त्रियों राजनाथ सिंह, अरुण जेतली व वैंकय्या नायडू की एक समिति बनाई गई है जो विपक्षी दलों से बातचीत करके राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के नाम पर आम सहमति बनाने की कोशिश करेगी। राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद के लिए यदि सत्ताधारी व विपक्षी दलों के बीच सर्वसम्मति बनती है तो भारत के प्रजातन्त्र के लिए यह बहुत ही शुभ लक्षण होगा मगर बेहतर हो कि सभी राजनीतिक दल वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी को ही पुन: इस पद पर बनाये रखने के लिए सहमत हो जायें क्योंकि वर्तमान राष्ट्रीय परिस्थितियों में उनसे बेहतर कोई दूसरा प्रत्याशी मुश्किल से ही मिल पाये। हालांकि अभी तक केवल प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद को ही यह गौरव प्राप्त हुआ कि उन्हें लगातार दो बार राष्ट्रपति पद के लिए चुना गया। प्रणव दा के नाम पर यदि सर्वसम्मति बनती है तो यह कई मायनों में नया रिकार्ड होगा। सबसे बड़ी बात यह होगी कि वह पिछली बार कांग्रेस पार्टी के सत्ता में रहते में हुए 2012 में राष्ट्रपति बने थे जबकि अब केन्द्र में भाजपा की सरकार है। यह सरकार भी यदि उनकी योग्यता व गुणों को देखते हुए उन्हें अपना प्रत्याशी बनाती है तो पूरे विश्व में यह सन्देश जायेगा कि भारत का गणतन्त्र राजनीतिक पूर्वाग्रहों को कोई मान्यता नहीं देता और देश भर में यह सन्देश जायेगा कि सत्ताधारी भाजपा पार्टी दलीय हितों को राष्ट्रीय हितों से ऊपर नहीं मानती।
इसकी वजह यह है कि श्री मुखर्जी संवैधानिक बारीकियों और इसकी पेचीदगियों को भलीभांति समझते हैं और अपने लम्बे संसदीय जीवन में उन्होंने सभी प्रकार के उतार-चढ़ावों को देखा है मगर सबसे महत्वपूर्ण यह है कि पूरे देश के लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल में उनके प्रशंसक हैं। किसी भी राजनीतिक दल में उनके नाम पर असहमति नहीं हो सकती। दक्षिण के राज्य तमिलनाडु से लेकर उत्तर प्रदेश के प्रतिद्वन्द्वी राजनीतिक दलों ने उनका समर्थन 2012 के राष्ट्रपति चुनावों में किया था और उनका विरोध करने वाले एनडीए के घटक दल शिवसेना तक ने भी उनका समर्थन किया था। किसी एक व्यक्ति के नाम पर आपसी राजनीतिक शत्रुता रखने वाले दल भी यदि एकमत हों तो ऐसे व्यक्तित्व को ‘अजात शत्रु’ के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। यदि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जद(यू) व शिवसेना उनका समर्थन कर सकती थीं तो वर्तमान सन्दर्भों में कांग्रेस व भाजपा भी उनके नाम पर सहमत क्यों नहीं हो सकती? मगर यह तभी हो सकता है जब सत्तारूढ़ भाजपा इस बारे में अपना दिल बड़ा करके सोचे और वक्त की जरूरत को देखते हुए मुखर्जी के नाम पर विचार करे क्योंकि जद (यू) के नेता नीतीश कुमार यह सुझाव पहले ही दे चुके हैं कि श्री मुखर्जी के नाम पर सभी दलों में सर्वसम्मति बन सकती है। दक्षिण के द्रमुक व अन्नाद्रमुक दलों को भी उनके नाम पर आपत्ति नहीं है और ओडि़शा के बीजू जनता दल को भी नहीं। पिछले दिनों राष्ट्रपति चुनाव के बारे में विपक्षी दलों की जो बैठक कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में हुई थी उसमें यह विचार रखा गया था कि यदि सत्ताधारी दल की तरफ से आम सहमति के उम्मीदवार के बारे में कोशिश की जायेगी तो विपक्ष उस पर विचार करेगा मगर बातचीत सरकार की तरफ से शुरू की जानी चाहिए जिससे प्रत्याशी के बारे में विभिन्न दलों को मालूम हो सके। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अब यह कार्य तीन सदस्यीय समिति के हवाले कर दिया है जो विपक्षी दलों से बातचीत करेगी। विपक्षी दल अभी तक इशारे में यह जरूर कहते रहे हैं कि राष्ट्रपति को संविधान के बारे में ज्ञान जरूर होना चाहिए। यह जायज बात है क्योंकि राष्ट्रपति ही संविधान के संरक्षक होते हैं। जद (यू) नेता शरद यादव ने पिछले सप्ताह ही इस बारे में बयान देकर साफ कर दिया था कि ऐसा व्यक्ति राष्ट्रपति बनना चाहे जिसे संविधान पढऩा आता हो और जो संसदीय प्रणाली को समझता हो।