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जोशीमठ का संरक्षण कार्यक्रम

जोशीमठ में उपजी विपदा को लेकर प्रधानमन्त्री कार्यालय में जो उच्च स्तरीय बैठक हुई उससे स्पष्ट है कि पहाड़ों पर स्थित इस सांस्कृतिक और धार्मिक नगर की समस्या भयावह रूप ले चुकी है।

जोशीमठ में उपजी विपदा को लेकर प्रधानमन्त्री कार्यालय में जो उच्च स्तरीय बैठक हुई उससे स्पष्ट है कि पहाड़ों पर स्थित इस सांस्कृतिक और धार्मिक नगर की समस्या भयावह रूप ले चुकी है। परन्तु मूल प्रश्न यह है कि यह समस्या प्रकृति जन्य न होकर मानव निर्मित है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि जोशीमठ अब से लगभग 1400 वर्ष पहले पर्वतजन्य भूगर्भीय प्रतिक्रियाओं से उपजे भू-स्खलन से बने ढलान पर बसा था। अतः इस पर बसावट की एक निश्चित क्षमता ही हो सकती थी। हिमालय पर्वत दुनिया की सबसे नवीनतम पहाड़ शृंखला भी है। अतः इसकी बनावट और बुनावट भी किसी कोमल हिमाद 3 शृंखला की है। दूसरे अर्थों में इन पहाड़ों को ‘सुकुमार’ पर्वत भी कहा जा सकता है। अतः मानव व्यवहार भी इनके साथ इसी के अनुरूप होना चाहिए था परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका और हम लगातार इन पहाड़ों पर बोझ लादते रहे। दूसरे हमें अपने धार्मिक तीर्थ स्थलों और पर्यटन स्थलों में भी भेद करना होगा।
जोशीमठ वह स्थान है जहां आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने तप किया था और श्री बदरीनाथ धाम को पुनर्स्थापित किया था। धार्मिक स्थलों का व्यापारीकरण यदि हम करते हैं तो उनकी न केवल पवित्रता भंग होती है बल्कि उनकी सांस्कृतिक अस्मिता भी क्षरण की तरफ जाती है। पहाड़ों की अपनी सभ्यता व संस्कृति का विकास समय सापेक्ष रहा है जो पारिस्थितिकी व पर्यावरण के अनुकूल चला है।  इसलिए जब मनुष्य इन्हें व्यापारिक केन्द्र बनाकर मुनाफे के साधन में तब्दील करता है तो बाजार मूलक विकृतियों का जन्म लेना स्वाभाविक प्रक्रिया है। विकास के जो पैमाने हम पहाड़ों को लेकर तय करते हैं उनकी असली जांच पारिस्थितिकी व पर्यावरण के सापेक्ष ही की जा सकती है। अतः बहुत जरूरी है कि हम मैदानी इलाकों की विकास नीतियां इन पर लागू नहीं कर सकते। पर्वतीय क्षेत्रों की नैसर्गिक संुदरता ही मैदानी इलाके के लोगों को यहां पर्यटन करने के लिए प्रेरित करती है। अतः इस सुन्दरता को बरकरार रखना विकास की किसी भी परियोजना का मूल सिद्धान्त होना चाहिए।
अब जोशीमठ की हालत यह हो गई है कि यह दरकता हुआ शहर बन चुका है और इसमें बसे लोगों का जीवन असुरक्षित हो चुका है। प्रधानमन्त्री कार्यालय यहां के लोगों को सुरक्षित जीवन देने के लिए जो योजना तैयार कर रहा है, उसके मूल में भी समस्त पर्वतीय क्षेत्र को सुरक्षित रखने का ध्येय होना जरूरी है क्योंकि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश से कंचनजंघा और सिक्किम व नेपाल तक फैली हिमालय पर्वत शृंखला कम से कम मानव हस्तक्षेप चाहती है। पहाड़ों पर बड़े-बड़े होटल खोलकर हम बेशक शहरी सैलानियों के एशो-आराम का इन्तजाम कर सकते हैं मगर इससे अन्ततः पहाड़ों की आमन्त्रण क्षमता में ही ह्रास होता है। चाहे नैनीताल हो या शिमला अथवा अल्मोड़ा या उखीमठ सभी की समस्या बेतरतीव विकास का ढांचा है। इसकी मूल वजह व्यापारीकरण है। इस मामले में हमें उन यूरोपीय देशों का उदाहरण सामने रखना चाहिए जिन्होंने अपने पर्वतीय जीवन को आधुनिकता से परिपूर्ण करते हुए उनकी सभ्यता व संस्कृति को अक्षुण्य रखा है। इस मामले में स्विट्जरलैंड का उदाहरण सबसे मुखर रूप से दिया जा सकता है। पहाड़ों पर हम विज्ञान की आधुनिक परियोजनाओं के  प्रयोग यदि करते हैं तो मैदानी इलाकों के पर्यावरण सन्तुलन से भी छेड़छाड़ का खतरा मोल लेते हैं। जिस प्रकार जोशीमठ के पास ही दो वर्ष पहले धौली गंगा में बाढ़ आयी थी उससे हमें सबक सीखने की जरूरत थी। हालांकि सरकारी कम्पनी एनटीपीसी ने यह दावा किया है कि उसकी जल बिजली परियोजना से जोशीमठ को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है क्योंकि उसका काम जोशीमठ के पहाड़ों से दूर चल रहा है मगर हकीकत तो यही रहेगी कि पूरी हिमालय पर्वतीय शृंखला आपस में गुथी हुई है।
अब सवाल जहां जोशीमठ के सुरक्षित इलाकों को संरक्षित रखने का उठ रहा है और इस काम में राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन अधिकारियों से लेकर अन्य प्रमुख विभागों को लगाया जा रहा है उससे हमें फौरी तौर पर ही सांत्वना मिल सकती है क्योंकि जोशीमठ के नीचे पर्वत में क्या प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं, इस बारे में भूगर्भीय शास्त्री भी विश्वास के साथ कुछ नहीं कह सकते। अतः यह जरूरी है कि पर्वतों पर आबादी के बढ़ते बोझ को जांचने के लिए भूगर्भ विज्ञानियों की राय भी ली जानी चाहिए। भारत में जो भी पहाड़ी शहर बसे हुए हैं वे आजादी के पहले से ही ब्रिटिश सरकार द्वारा बसाये गये हैं और उन्होंने जो आधारभूत ढांचा इन शहरों के लिए कड़ा किया था उसी के सहारे लगातार इन शहरों में आबादी का निरन्तर विकास हो रहा है। अतः पहाड़ों के छोटे से लेकर बड़े शहर के आधारभूत नागरिक सुविधा ढांचों का भी लेखा-जोखा कराये जाने की सख्त जरूरत है। इसके साथ ही कालान्तर में भूस्खलन से बने ढलान क्षेत्रों में जहां-जहां भी पर्वतीय नगरों की बसावट हुई है, उन सभी का भूगर्भीय व ढांचागत सर्वेक्षण कराने की आवश्यकता है। पहाड़ों पर विकास का सीधा सम्बन्ध यहां बसे लोगों के सर्वांगीण विकास से होना चाहिए। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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