90 के दशक की बर्बरता हो या फिर दो जून 2021 को हुई राकेश पंडिता की हत्या का दर्द हर किसी को कचोट रहा है। इस हत्या ने पुराने घावों को फिर से कुरेद दिया है। घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन 1989-90 में शुरू हुआ था। 14 सितम्बर, 1989 को तत्कालीन भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष टिक्कू लाल टपलू की हत्या से कश्मीर में शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ-साथ वीभत्स होता है। टिक्कू की हत्या के बाद जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट की मौत की सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। फिर 13 फरवरी को श्रीनगर दूरदर्शन केन्द्र के निदेशक लासा कौल की निर्मम हत्या के साथ ही आतंक अपने चर्म पर पहुंच गया था। उस समय आतंकवादियों के निशाने पर सिर्फ कश्मीरी पंडित ही थे। कश्मीरी पंडितों के घरों पर ऐसे पोेेेेेेेेेेेेेस्टर लगा दिए गए थे जिनमें पंडितों को घाटी छोड़ने, जल्द से जल्द चले जाने या फिर अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने की धमकी दी गई थी। जिन मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से कभी इबादत की आवाज सुनाई देती थी तब इनसे कश्मीरी पंडितों के लिए जहर उगला जा रहा था। 19 जनवरी, 1990 को लगभग तीन लाख कश्मीरी पंडित अपना सब कुछ छोड़ घाटी से बाहर जाने को विवश हुए। तीन दशक बीत गए, कश्मीरी पंडितों की नई पीढ़ी भी युवा हो चुकी है। जितनी मुश्किलों का सामना इस समुदाय ने किया है, उनका अंत अब भी नजर नहीं आ रहा। जो कश्मीरी पंडित साहस का परिचय देकर घाटी में जाकर काम कर रहे हैं, उनके विरुद्ध भी साजिशें रची जा रही हैं।