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शांत कश्मीर में चिंगारी सुलगाने की साजिश

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और उसकी धारा 35 ए को समाप्त किए जाने के बाद सुरक्षा बलों के सटीक अभियानों से आतंकी समूहों को करारा झटका लगा है। आतंकवादी संगठनों की स्थिति काफी खराब हो चुकी है।

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और उसकी धारा 35 ए को समाप्त किए जाने के बाद सुरक्षा बलों के सटीक अभियानों से आतंकी समूहों को करारा झटका लगा है। आतंकवादी संगठनों की स्थिति काफी खराब हो चुकी है। उनके पास नेतृत्व का संकट है और साथ ही हथियारों, गोला बारूद विशेष रूप से स्वचालित हथियारों की काफी कमी है। यही कारण है कि आतंकवादी छोटे -छोटे हमलों का सहारा ले रहे हैं और वह सुरक्षा बलों के साथ सीधी फायरिंग से बच रहे हैं। आतंकी समूह द्वारा स्थानीय युवाओं की भर्ती को रोक दिया गया है। अब केवल दक्षिण कश्मीर के तीन जिले ऐसे हैं जहां अभी भी कुछ युवा आतंकियों के चंगुल में फंस कर बहक रहे हैं जबकि उत्तरी कश्मीर की स्थिति पूरी तरह शांत है। आतंकवादियों के गढ़ त्राल में भाजपा एमएलसी राकेश पंडिता की हत्या आतंकवादियों की हताशा का ही परिणाम है। राकेश पंडिता की हत्या इस बात की ओर इशारा करती है कि आतंकी संगठनों को कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापिसी खटकती है और वे फिर आतंक पैदा करने की नाकाम कोशिश करते रहते हैं। राकेश पंडिता मूल रूप से त्राल के ही रहने वाले थे लेकिन आतंकवाद के चलते उनका परिवार जम्मू शिफ्ट कर गया था। कश्मीरी पंडित समुदाय के कई लोग विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़कर घाटी में सक्रिय हैं। इससे पूर्व भी कई कश्मीरी पंडित नेताओं की हत्या हो चुकी है। राकेश पंडिता की मौत के बाद परिवार और कश्मीरी पंडित एक ही सवाल कर रहे हैं कि आखिर कब तक कश्मीरी पंडित इस तरह अपनी जान गंवाते रहेंगे? राकेश पंडिता को दो पीएसओ की सुरक्षा दी गई, इसके अलावा उन्हें श्रीनगर में सुरक्षित होटल में आवास सुविधा भी दी गई थी। लेकिन वह बिना सुरक्षा कर्मियों के ही त्राल में अपने दोस्त से मिलने चले गए। जहां तीन आतंकियों ने उन्हें अपनी गोलियों का निशाना बना दिया।
90 के दशक की बर्बरता हो या फिर दो जून 2021 को हुई राकेश पंडिता की हत्या का दर्द हर किसी को कचोट रहा है। इस हत्या ने पुराने घावों को फिर से कुरेद दिया है। घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन 1989-90 में शुरू हुआ था। 14 सितम्बर, 1989 को तत्कालीन भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष टिक्कू लाल टपलू की हत्या से कश्मीर में शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ-साथ वीभत्स होता है। टिक्कू की हत्या के बाद जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट की मौत की सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। फिर 13 फरवरी को श्रीनगर दूरदर्शन केन्द्र के निदेशक लासा कौल की निर्मम हत्या के साथ ही आतंक अपने चर्म पर पहुंच गया था। उस समय आतंकवादियों के निशाने पर सिर्फ कश्मीरी पंडित ही थे। कश्मीरी पंडितों के घरों पर ऐसे पोेेेेेेेेेेेेेस्टर लगा दिए गए थे जिनमें पंडितों को घाटी छोड़ने, जल्द से जल्द चले जाने या फिर अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने की धमकी दी गई थी। जिन मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से कभी इबादत की आवाज सुनाई देती थी तब इनसे कश्मीरी पंडितों के लिए जहर उगला जा रहा था। 19 जनवरी, 1990 को लगभग तीन लाख कश्मीरी पंडित अपना सब कुछ छोड़ घाटी से बाहर जाने को विवश हुए। तीन दशक बीत गए, कश्मीरी पंडितों की नई पीढ़ी भी युवा हो चुकी है। जितनी मुश्किलों का सामना इस समुदाय ने किया है, उनका अंत अब भी नजर नहीं आ रहा। जो कश्मीरी पंडित साहस का परिचय देकर घाटी में जाकर काम कर रहे हैं, उनके विरुद्ध भी साजिशें रची जा रही हैं।
जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद कई राजनीतिक दल कहने लगे थे कि घाटी में भारत का झंडा उठाने वाला कोई नहीं बचेगा। कुछ ने पहले तो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से ही दूरी का मन बना लिया, लेकिन बाद में वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुड़ गए। जिस तरह से लोगों ने वोट देकर लोकतांत्रिक मूल्यों पर भरोसा जताया, उससे स्पष्ट हो गया कि कश्मीर की जनता के भीतर लोकतंत्र के लिए गहरी आस्था है।
पंचायत चुनावों और जिला विकास परिषद चुनावों से कई राजनीतिक संदेश निकले और कश्मीर में विधानसभा चुनावों के लिए नई पौध तैयार हुई। बचे-खुचे आतंकी संगठन इन चुनावों से निकले राजनीतिक संदेशों को खत्म करना चाहते हैं। पिछले वर्ष जून में सरपंच अजय पंडिता की अनंतनाग में हत्या की गई थी। अजय पंडिता और राकेश पंडिता जाने-माने चेहरे थे, जो कश्मीरियों को ​वापिस लाने के काम में लगे हुए थे। सरकार की तरफ से भी प्रयास किए जा रहे हैं कि किसी तरह कश्मीरियों को वापिस लाया जा सके। सेना प्रमुख एमएम नरवणे ने एलओसी के दौरे के दौरान जम्मू-कश्मीर में स्थिति सामान्य होने के संकेत दिये हैं। अपवाद स्वरूप कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को छोड़ दें तो अब पत्थरबाजी कहीं नहीं होती, आईईडी ब्लास्ट की घटनाएं भी नहीं होती। यह सभी संकेत स्थिति के सामान्य होने के हैं। कश्मीर का अवाम भी शांति चाहता है। कुछ बचे-खुचे आतंकियों का सफाया किया जाना जरूरी है, ताकि कोई कश्मीरी पंडितों में आतंक न फैला सके।

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