राजधानी के ‘शाहीनबाग’ में चल रहे नागरिकता कानून विरोधी आन्दोलन को लेकर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एकाधिकबार जो टिप्पणियां की हैं उनका महत्व स्वयं इसी सबसे बड़ी अदालत को सिद्ध करना है। बुधवार को ही इसी सर्वोच्च अदालत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई ने इस सन्दर्भ में जो मत व्यक्त किया वह भी विचारणीय है। उन्होंने कहा कि नागरिकता कानून का विरोध करने का हक नागरिकों का है मगर उन्हें अपने देश की न्यायप्रणाली पर पूरा विश्वास भी होना चाहिए और न्यायाधीशों की निष्पक्षता पर यकीन होना चाहिए। किसी भी सरकारी निर्णय पर मतभेद हो सकते हैं और उन्हें व्यक्त करने व विरोध दर्ज करने का अधिकार हमारे लोकतन्त्र में नागरिकों को है।
नागरिकता कानून पर यह विरोध व्यक्त हो चुका है। इसका अंतिम फैसला अब सर्वोच्च न्यायालय को ही करना है क्योंकि नागरिकता कानून की वैधता को लेकर इसमें 144 याचिकाएं दर्ज हो चुकी हैं। संविधान की व्याख्या करते हुए देश का शासन इसी के अनुरूप चलते हुए देखने का दायित्व न्यायपालिका पर ही होता है। यह अधिकार उसे संविधान इस प्रकार देता है, कि इसी संविधान के आधारभूत मूल नियामकों के विरुद्ध जाने का अधिकार देश की सर्वोच्च संसद को भी नहीं रहता बशर्तें संविधान की सम्बन्धित धाराओं या अनुच्छेद में ही संशोधन न कर दिया जाये, मगर यह संशोधन भी संविधान की मूल मानक स्थापनाओं के विरुद्ध संभव नहीं है।
मसलन भारत राष्ट्र की समवेत अवधारणा के मूल सिद्धान्तों में जिनमें धर्म निरपेक्षता और नागरिकों के मूल बराबरी के अधिकार से लेकर जीवन जीने की स्वतन्त्र प्रणाली का हक तक शामिल है। दो वर्ष पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने निजीपन या ‘निजता’ को मूल अधिकार करार देकर भी यह स्पष्ट कर दिया था। अतः शीशे की तरह साफ है कि संसद कोई भी एेसा कानून नहीं बना सकती जो संविधान की मूलभूत ‘सैद्धान्तिक अवधारणा’ के विरुद्ध हो। जब 1969 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा किये गये 14 निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने बहुमत के निर्णय से अवैध या असंवैधानिक ठहराया था तो इन्दिरा जी ने लोकसभा को समय से पहले ही भंग करके चुनाव कराये और जीत जाने पर सम्बन्धित कानून में संशोधन किया, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण ‘सम्पत्ति का अधिकार’ था।
इन्दिरा जी ने इसमें फेर-बदल करने के लिए 25वां संविधान संशोधन विधेयक पारित कराया जिसके एक भाग को असंवैधानिक करार देने के साथ ही 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे संविधान सम्मत माना और मूल अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कहा, क्योंकि सार्वजनिक प्रयोग के लिए अधिगृहित की गई निजी सम्पत्ति का मुआवजा सरकार द्वारा नियत करने की सूरत में इसकी न्यायिक समीक्षा न करने का फैसला संविधान की मूल न्याय भावना के विरुद्ध था, परन्तु इससे पहले इन्दिरा जी ने ही संविधान में 24वां संशोधन करके नागरिकों के मूल अधिकारों को स्थगित करने सम्बन्धी विधेयक पारित करा लिया था जिस पर भारी विवाद खड़ा हुआ था, परन्तु तब भारत व पाकिस्तान के बीच बांग्लादेश युद्ध के बादल मंडराने लगे थे अतः आम जनता की तवज्जो इस मुद्दे पर नहीं जा सकी थी।
यह अगस्त 1971 का समय था, परन्तु 1973 में ही ‘केशवानन्द भारती केस’ नाम से प्रसिद्ध मुकद्दमें में इन्दिरा सरकार द्वारा किये गये इस संशोधन को भी अवैध कारर दे दिया गया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण यह था कि संसद द्वारा किये गये संशोधन को राष्ट्रपति को अपनी सहमति देनी ही होगी औऱ न्यायालय को इसकी समीक्षा करने का अधिकार नहीं होगा अतः जब 1973 में सर्वोच्च न्यायालय के छह के मुकाबले सात न्यायमूर्तियों ने अपना फैसला सरकार के खिलाफ दिया तो इन्दिरा जी ने एक कनिष्ठ न्यायाधीश अजित नाथ राय को मुख्य न्यायाधीश के पद पर पदोन्नत कर दिया जिसके खिलाफ न्यायमूर्तियों में विद्रोह पैदा हो गया और चार ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया, परन्तु इन्दिरा जी ने ही इमरजेंसी के दौरान पुनः 42वां संशोधन ऐसा किया जिसे काला कानून कहा गया और 1980 मे सर्वोच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक करार दिया जो हुकूमत की मनमानी करने का दस्तावेज था।
इसके बाद भी भारत की न्यायपालिका संसद द्वारा बनाये गये कानूनों की समीक्षा करती रही है और बहुत से कानूनों को असंवैधानिक या अवैध करार देती रही है जिससे बाबा साहेब अम्बेडकर के बनाये गये कानून की रूह से भारत में ‘संविधान का राज’ कायम रहा है। भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था की यही मूल आत्मा है जो किसी भी राजनैतिक दल को अपने बहुमत के जोश में आकर निरंकुश होने से रोकती है अतः प्रत्येक भारतवासी को संविधान की सर्वोच्चता पर पक्का यकीन होना चाहिए। यह प्रसन्नता की बात है कि शाहीन बाग में बैठी महिलाएं भारतीय संविधान के ही विभिन्न सफों का खुल कर प्रदर्शन कर रही हैं और इसकी दुहाई देकर नागरिकता कानून का विरोध कर रही हैं.. हालांकि शाहीन बाग को मुस्लिम नागरिकों की पहचान से जाेड़ दिया गया है जो सर्वथा अनुचित है क्योंकि भारत का संविधान नागरिकों की पहचान उनका धर्म देख कर नहीं करता है मगर सड़कों पर बैठी ये महिलाएं कानून के बारे में फैसला नहीं कर सकती बल्कि केवल अपना विरोध व्यक्त कर सकती हैं, जो वे पिछले लगभग साठ दिनों से लगातार कर रही हैं।
अतः अब समय आ गया है कि नागरिकता कानून की संवैधानिक समीक्षा सर्वोच्च न्यायालय वरीयता के आधार पर करें। दुखद यह है कि पिछले कुछ समय से सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा को भी झटका लगा है। खास कर नागरिकों के मौलिक अधिकारों के सन्दर्भ में उठे सवालों को टालने की तर्ज को समयोचित नहीं कहा जा सकता, जिस मुद्दे पर देश भर में प्रदर्शनों का सिलसिला चल रहा है और जिसके रुकने की संभावना नजर नहीं आती है, अगर न्यायालय उसे अपने वरीयताक्रम में डाले तो देश में अमन-ओ-अमान कायम रखने में मदद मिल सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने ही 2005 में असम में नागरिकता को लेकर संसद द्वारा बनाये गये ‘आई एमडीटी एक्ट’ को गैर कानूनी घोषित किया था। उसके बाद ही वहां ‘एनआरसी’ का सिलसिला शुरू हुआ था, परन्तु यह पूर्ण रूपेण असम तक ही सीमित था, क्योंकि वहां अवैध नागरिकता की समस्या 1971 के बाद से उग्र होती गई थी।
नागरिकता कानून का मसला पूरी तरह दूसरा है जो संविधान के आधारभूत ढांचे से जुड़ा हुआ है। न्यायालय को केवल यही फैसला करना है कि संसद द्वारा बनाया गया यह कानून कहीं संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ तो नहीं जा रहा है जिसमें सभी धर्मों को मानने वाले भारतीयों को एक नजर से देखा गया है, हालांकि इसके खिलाफ तर्क दिया जाता है कि मुसलमानों के लिए प्रथक नागरिक आचार संहिता भी यही संविधान प्रदान करता है, परन्तु यह धर्म की स्वतन्त्रता के दायरे मे अस्थायी उपाय के तौर पर ही है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय स्वयं एक समान नागरिक आचार संहिता के बारे में अपना आकलन दे चुका है।
अतः धार्मिक रीति–रिवाजों के लिए संविधान में कोई जगह ढूंढना धर्म निरपेक्षता के उस सिद्धान्त के विरुद्ध है जिसमें सरकार की भूमिका सभी धर्मों का एक समान भाव से आदर करने की है धार्मिक स्वतन्त्रता का अर्थ भी संविधान द्वारा तय किये गये बराबरी के मानकों से ऊपर नहीं हो सकता इस नजर से संविधान की सर्वोच्चता को धार्मिक आग्रहों के ऊफर स्वीकार करना स्वागत योग्य औऱ आगे जाने वाला कदम माना जायेगा। भारत के सभी हिन्दू–मुसलमान 21वीं सदी के नागरिक बनें और आपसी व्यवहार में भी इसे अमली जामा पहनाते हुए धार्मिक पहचान को अपना निजीपन ही समझें तो हम वैज्ञानिक सोच को बढावा दे सकते हैं। फिलहाल जब संविधान की सर्वोच्चता का सवाल है तो शाहीन बाग आन्दोलन अब समाप्त होना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय को इस मसले पर जल्दी से जल्दी संविधान पीठ का गठन करके सुनवाई शुरू करनी चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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