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नये संसद भवन का निर्माण

भारत जब स्वतन्त्र हुआ और 1952 में पहले राष्ट्रीय चुनाव हुए तो लोकसभा की कुल 489 सीटें थीं, जो अब बढ़ कर 545 हो चुकी हैं।

भारत जब स्वतन्त्र हुआ और 1952 में पहले राष्ट्रीय चुनाव हुए तो लोकसभा की कुल 489 सीटें थीं, जो अब बढ़ कर 545 हो चुकी हैं। इसी प्रकार जब पिछली सदी के शुरू में अंग्रेज सरकार ने भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली लाने का विचार किया तो नई दिल्ली शहर का निर्माण कार्य शुरू किया गया और वर्तमान संसद भवन के साथ ही अन्य इमारतों का निर्माण कार्य शुरू हुआ।
अंग्रेज वास्तुकारों ( जिनके साथ भारतीय वास्तुकार भी थे ) ने नई दिल्ली के भवनों के बनाने में पाश्चात्य वास्तुकला के साथ भारत की वास्तुकला को भी समाहित किया और एक खूबसूरत व मनमोहक नई दिल्ली को तामीर किया। अंग्रेजों ने वायसराय हाऊस (जिसे अब राष्ट्रपति भवन कहा जाता है) का निर्माण बहुत दूरदर्शिता पूर्ण ढंग से किया था क्योंकि उस समय वायसराय इसी भवन से बैठ कर पश्चिम एशिया के  ब्रिटिश उप निवेश (कालोनियों) का शासन भी देखते थे। यह स्थिति प्रथम विश्व युद्ध (1917) के बाद बनी थी।
अतः आज की पीढ़ी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पश्चिम एशिया के बहुत से देशों में 1959 तक भारतीय मुद्रा रुपया ही चलती थी, परन्तु अंग्रेजों ने जिस सेंट्रल एसेम्बली (संसद) का भवन बनवाया था वह बौद्ध काल की इमारत ‘सांची स्तूप ’की प्रतिकृति थी। इसकी मुख्य इमारत सांची के स्तूप की भांति ही गोलाकार थी जिसके कई प्रवेश द्वार थे।
अतः वर्तमान संसद भवन का महत्व हमें सम्पूर्ण भारतीय सांस्कृतिक सन्दर्भों में रख कर देखना होगा मगर इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम इतिहास को पकड़ कर भविष्य के बारे में चिन्ता न करें। जब 1911 मे ब्रिटेन के सम्राट जार्ज पंचम ने भारत आकर अपना दरबार लगाया तो उन्होंने घोषणा की थी कि उनकी सरकार भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली लायेगी और एक नया शहर नई दिल्ली बसाया जायेगा।
यह काम पूरा होने में लगभग 15 वर्षों का समय लगा और नई दिल्ली तामीर हुई।  अब सवाल यह खड़ा किया जा रहा है कि भारत को नये संसद भवन की जरूरत क्यों है जबकि उसके पास ऐतिहासिक रूप से अत्यन्त महत्वपूर्ण इमारत संसद भवन है।  भारत जब आजाद हुआ था तो इसकी आबादी मात्र 35 करोड़ के करीब थी जो अब बढ़कर 130 करोड़ हो चुकी है। इतनी बड़ी जनसंख्या का संसदीय लोकतन्त्र में सहभागितापूर्ण प्रतिनिधित्व अनिश्चित समय तक स्थगित नहीं रखा जा सकता है।
स्व. वाजपेयी की सरकार के दौरान 2002 में 84वां संविधान संशोधन संसद में पारित हुआ जिसके अनुसार चुनाव क्षेत्रों का अगला परिसीमन 2026 के बाद होने वाली जनगणना के आधार पर ही होगा। यह कार्य 2001 में हुई जनगणना के बाद किया जाना था जिसे वाजपेयी सरकार ने अगले 25 वर्षों तक के लिए टाल दिया था। इससे पूर्व 1971 में हुई जनगणना के बाद ही संसद की सदस्य संख्या में इजाफा हुआ था।
इससे पहले 1976 में इंदिरा गांधी सरकार ने परिसीमन को 2001 की जनगणना तक टाल दिया था।  अतः सवाल यह है कि  आगामी दस वर्षों के भीतर लोकसभा के चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन करना जरूरी हो सकता है क्योंकि तब तक देश की आबादी और बढ़ जायेगी।  फिलहाल भारत की आबादी में प्रतिवर्ष एक प्रतिशत का इजाफा होता है।  जब लोकसभा की सीटें बढे़ंगी तो राज्यसभा की सीटें भी बढे़ंगी और वर्तमान संसद की क्षमता को देखते हुए यह तंग होने लगेगी। अतः मोदी सरकार ने नये संसद भवन का निर्माण करने की योजना रखी।
विपक्ष ने इसकी आलोचना इसलिए की कि यह कार्य तब किया जा रहा है जब भारत की अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है और सरकार के पास राजस्व की कमी है। विपक्ष का कहना था कि इस परियोजना को स्थगित करके इस पूरी परियोजना पर खर्च होने वाला 24 हजार करोड़ रुपए उपयोग कोरोना और लाकडाऊन से त्रस्त गरीब जनता की मदद करने में किया जाना चाहिए था।
इसी आधार पर इस परियोजना के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिकाएं भी दायर की गईं जिनमें नई दिल्ली का पर्यावरण से लेकर शहरी विकास कानूनों का उल्लंघन करने की दलील दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने 2-1 के बहुमत से फैसला दिया कि वह सरकार के इस नीतिगत निर्णय को सही मानता है और परियोजना के बाबत शहरी व अन्य कानूनों के प्रावधानों में किये गये संशोधनों को गैर कानूनी नहीं मानता क्योंकि यह सरकार के अधिकार क्षेत्र का मामला है।
अतः यह स्वीकार किया जायेगा कि सरकार के फैसले को संवैधानिक मान्यता मिल चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण माना जायेगा क्योंकि इसमें सरकार के फैसलों की संवैधानिक समीक्षा तकनीकी रूप से इस प्रकार की गई है जिससे संसद के अधिकारों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उनकी समीक्षा किये जाने के सम्बन्धों का विस्तार से खुलासा किया गया है।
मगर मुद्दे की बात यह है कि क्या वर्तमान संसद के सदस्यों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए अथवा नहीं ?जाहिर है इसका फैसला 2024 में काबिज होने वाली नई सरकार ही करेगी। वैसे व्यावहारिक तौर पर भारत की संसद सदस्यों की संख्या फिलहाल भी कम नहीं कही जा सकती।
245 सदस्यों की राज्यसभा और 545 सदस्यों की लोकसभा को चलाना ही कम मुसीबत भरा काम नहीं है परन्तु इसके साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि आखिर एक सांसद कितनी जनसंख्या वाले चुनाव क्षेत्र का प्रभावी ढंग से प्रतिनिधित्व कर सकता है ?  इसे देखते हुए कभी न कभी तो परिसीमन कराना ही पड़ेगा और तब संसद छोटी पड़ेगी।

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