जहरीली शराब ने एक बार फिर उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के रानीगंज गांव में 14 लोगों की जान ले ली जिनमें एक ही परिवार के 4 सदस्य भी शामिल हैं। इसी साल फरवरी में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जहरीली शराब पीने से लगभग 100 लोगों की मौत हो गई थी। इसके अलावा फरवरी में ही असम में जहरीली शराब से करीब 150 लोगों की जान चली गई थी। जहरीली शराब से लोगों के मरने की खबरें लगातार आती रही हैं लेकिन न तो मौत के व्यापार पर सरकारें काबू पा सकी हैं और न ही पुलिस प्रशासन।
अवैध रूप से बनने वाली शराब का शिकार अक्सर गरीब लोग ही होते हैं। राज्य सरकारें कुछ अफसरों, सिपाहियों को निलम्बित करती है, जांच का आदेश देती है, मृतकों के परिजनों के लिए मुआवजा घोषित करती है और कुछ दिनों बाद मामला शांत हो जाता है, फिर किया जाता है एक नए हादसे का इंतजार। हालांकि पुलिस ने 4 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है। रानीगंज गांव के लोग आरोप लगा रहे हैं कि जिस शराब के पीने से लोगों की मौत हुई वह आबकारी विभाग के पंजीकृत विक्रेता से खरीदी गई थी।
सरकार या प्रशासन की निगरानी के तहत संचालित दुकान से जहरीली शराब की बिक्री अपने आप में एक बड़ा सवाल है। अगर मौत का व्यापार करने वाले पंजीकृत दुकानों से ऐसी शराब की बिक्री करने लगे तो यह लोगों की जिन्दगियों से खिलवाड़ है। इस कांड में जिम्मेदारी तय होनी ही चाहिए। दरअसल राज्य सरकारें शराब को ही हजारों उत्पादों की तरह एक उत्पाद भर मान बैठी हैं। राज्य सरकारों को सर्वाधिक राजस्व शराब की बिक्री से ही मिलता है। कुछ राज्य सरकारों ने शराब को नैतिकतावादी दृष्टि से देखकर कई बार शराबबंदी लागू की। कभी आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव की सरकार ने राज्य में शराबबंदी लागू की तो उसका परिणाम यह हुआ कि राज्य का खजाना खाली हो गया था, उसके पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने तक के पैसे नहीं बचे थे।
हरियाणा में कभी बंसीलाल सरकार ने शराबबंदी लागू की तो अवैध शराब की बिक्री का धंधा शुरू हो गया। प्लास्टिक की थैलियों में शराब बिकने लगी थी। राज्य सरकारें नैतिकतावादी दृष्टिकोण अपनाकर दरअसल पाखंड करती हैं। गुजरात और बिहार जैसी राज्य सरकारें शराबबंदी के नाम पर पुलिस सख्ती से इसका इस्तेमाल बन्द करने का भ्रम पाले हुए हैं।
कौन नहीं जानता कि गुजरात और बिहार में शराब की घर-घर सप्लाई का धंधा जोरों पर है। कई बेरोजगार युवक इस धंधे में लिप्त हैं। कोरियर सेवा की तरह शराब घर-घर तक पहुंचाई जाती है। जिन राज्यों में शराबबंदी नहीं है, वहां राज्य सरकारें शराब पर अधिकतम टैक्स लगाकर ज्यादा से ज्यादा राजस्व हासिल कर लेती हैं।
अमीर लोगों को शराब महंगी होने से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता लेकिन गरीबों को तो अवैध भट्ठियों में बनती शराब का सहारा रहता है लेकिन उन्हें मिलती है मौत और बीमारियां। राज्यों में अवैध शराब का समानांतर धंधा हमेशा फलता-फूलता रहा है। अवैध शराब का कारोबार करने वालों से भले ही समाज को नुक्सान पहुंचे लेकिन पुलिस और प्रशासन के लोगों के लिए यह धंधा काफी फायदेमंद है। पुलिस और प्रशासन तो इनसे हर महीने उगाही करते हैं। जिस माह हिस्सा नहीं पहुंचे, उसी दिन अवैध भट्ठी पकड़ी जाती है। पैसा तो ऊपर तक जाता है।
शराब माफिया और पुलिस का गठबंधन तो इतना जबर्दस्त है कि कोई भी सत्ता इस गठबंधन को तोड़ नहीं पाई। कौन नहीं जानता कि अवैध शराब बनाने से लेकर ठेकों तक पहुंचाने का एक बड़ा तंत्र विकसित हो चुका है। अलग-अलग दामों पर बिकने वाली अवैध शराब की जानकारी थानाधिकारी से लेकर बीट अफसर तक को न हो, ऐसा माना ही नहीं जा सकता। शराब के नाम पर क्या बनाया जा रहा है, क्या नहीं, इससे पुलिस और प्रशासन को क्या लेना-देना। इसे बनाने में तो इथेनॉल, मिथाइल एल्कोहल, ऑक्सीटोसिन के अलावा खतरनाक रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है। रानीगंज गांव में मौतों के बाद फिर कुछ अवैध भट्ठियां तोड़ी जाएंगी। जांच के नाम पर अभियान चलाया जाएगा।
राजनीतिक बयानबाजी भी होगी लेकिन न तो राजनीतिक नेतृत्व और न ही समाज ऐसी पहल करता दिखाई देता है कि शराब की खपत कम हो। वैसे तो शराब के विज्ञापनों पर प्रतिबंध है लेकिन फिल्मी सितारे नामी-गिरामी ब्रांडों के नाम पर सोडे के विज्ञापन में काम कर लाखों कमा रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश में शराब की खपत लगातार बढ़ रही है। भारत ही क्यों अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नशा एक बड़ी समस्या बन चुका है। नशे की बढ़ती प्रवृत्ति के साथ-साथ अपराध भी लगातार बढ़ रहे हैं। भारत की विडम्बना यह है कि सामाजिक हितों पर जब चोट होती है तो बड़े-बड़े संगठन राष्ट्रव्यापी आंदोलन करते हैं लेकिन गरीबों की मौत पर कोई आंदोलन नहीं होता। सवाल सबके सामने है कि समाज से बुरी आदतों को कैसे दूर किया जाए। इस समस्या का समाधान भी समाज को ही खोजना होगा। समाज को किसी भी उत्पाद के इस्तेमाल का सलीका तो आना ही चाहिए।