देश के सर्वोच्च नागरिक अलंकरण भारत रत्न को लेकर जो विवाद पैदा होता रहता है वह किसी भी रूप में उचित नहीं है, क्योंकि इसे पाने वाली शख्सियत रंचमात्र भी किसी भी प्रकार के विवाद के घेरे में नहीं रहनी चाहिए मगर इस पुरस्कार की पात्रता का सिद्धान्त किसी व्यक्तिगत पसन्द या नापसन्द का मोहताज नहीं हो सकता और न ही किसी विशेष क्षेत्र के सरकारी सेवारत लोगों को इस बारे में किसी प्रकार का सुझाव देना चाहिए। जो लोग यह सोचते हैं कि यह सम्मान केवल विशेष क्षेत्र में विशिष्ट सेवा के लिए होता है, वे मूलतः इसलिए गलत होते हैं, क्योंकि इसका दायरा विशिष्ट सेवा के घेरे से बाहर बहुत विशाल और राष्ट्र के प्रति समर्पण की दूरदृष्टि से परिपूर्ण होता है।
वर्तमान थल सेना अध्यक्ष जनरल विपिन रावत ने स्व. फील्ड मार्शल करिअप्पा को भारत रत्न देने का सुझाव देकर अपने पद व उसकी गरिमा का उल्लंघन किया है। एक तो सेवारत जनरल रहते हुए उन्हें सेना के ही किसी पूर्व जनरल के बारे में एेसा सुझाव देने से पहले भारत की अनुशासित विशाल सेना के मनोबल की प्रतिष्ठा का ध्यान रखना चाहिए था आैर दूसरे भारत के नागरिकों द्वारा चुनी गई लोकतान्त्रिक सरकार की बुद्धिमत्ता, विवेक और निर्णय क्षमता के दायरे में अनाधिकार प्रवेश करने से बचना चाहिए था। उनका कार्य भारतीय सीमाओं की सुरक्षा के इंतजाम 24 घंटे चाक-चौबन्द रखने का है और सेनाओं की आवश्यकताओं का ध्यान रखना है। बिना शक भारत रत्न अलंकरण राजनीतिक आग्रहों से ऊपर रहना चाहिए मगर हम इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते कि भारत की पूरी प्रशासनिक व्यवस्था ही राजनीतिक बनावट पर आधारित है अतः किसी भी चुनी हुई सरकार के फैसलों में राजनीतिक अंश का आना स्वाभाविक है। हमने सेना को राजनीति से पूरी तरह दूर रखने का मजबूत तन्त्र स्थापित किया हुआ है जिसे देखते हुए अभी तक के स्वतन्त्र भारत के इतिहास में हमारे सैनिक सिपहसालारों ने कभी भी सेवारत रहते हुए उन इलाकों को छूना भी गवारा नहीं किया जहां जरा-सी भी राजनीति हो।
सेवानिवृत्त जनरल करिअप्पा को स्व. राजीव गांधी के शासनकाल 1986 में ही फील्ड मार्शल की उपाधि से विभूषित किया गया था, जबकि उनसे पहले 1971 में बंगलादेश युद्ध जीतने वाले सेना के जनरल एसएचएफजे मानेकशा को स्व. इंदिरा गांधी ने फील्ड मार्शल के पद से अलंकृत कर सेना का सम्मान किया था। यही वजह है कि जनरल करिअप्पा के नाम से पहले आम हिन्दोस्तानी के दिमाग में जनरल मानेकशा का नाम आता है मगर मानेकशा जीवन पर्यन्त राजनीति से दूरी बनाये रहे, जबकि जनरल करिअप्पा राजनीति में आने का मोह नहीं त्याग सके। सेना से रिटायर होने के बाद उन्होंने कई बार एेसे विवादास्पद वक्तव्य भी दिये जो सैनिक शासन या अमरीकी तर्ज पर राष्ट्रपति प्रणाली की वकालत करते थे। इतना ही नहीं वह दो बार लोकसभा चुनाव भी लड़े मगर दोनों ही बार बुरी तरह परास्त हुए।
मूल सवाल यह है कि भारत रत्न सम्मान का लक्ष्य व उद्देश्य क्या है? वास्तव में यह उपाधि स्वतन्त्र भारत में केवल उन्हीं हस्तियों को देने की गरज से शुरू की गई थी जिन्होंने अपने जीवनकाल के दौरान ही देश सेवा के किसी भी क्षेत्र में स्थापित मान्यता से भी ऊपर जाकर नया कीर्तिमान बनाया हो चाहे उनका पेशा कोई भी रहा हो। अतः जब 1954 में पहली बार भारत रत्न दिया गया तो देश की तीन विभूतियां सम्मानित की गईं जिनमें स्व. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन व सी.वी. रमन शामिल थे। इनमें से एक राजनेता, दूसरे दार्शनिक व तीसरे वैज्ञानिक थे। यह भी जरूरी नहीं था कि हर वर्ष किसी न किसी विभूति को इस योग्य समझा जाये मगर 1965 में भारत-पाक युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री की असामयिक मृत्यु के बाद यह परंपरा स्व. इंदिरा गांधी ने तोड़कर उन्हें भारत रत्न से मृत्योपरान्त अलंकृत करने का फैसला किया। इसके लिए सम्मान देने की शर्तों में संशोधन करना जरूरी था, परन्तु यह भी सत्य है कि इस संशोधन के बाद भारत रत्न देने में राजनीति भी शुरू हो गई।
केन्द्र में विभिन्न राजनीितक दलों की सरकारें आने की वजह से भारत रत्न के तेवर भी बदलने लगे और यह सम्मान भी वोटों की राजनीति के शिकंजे में कसता चला गया। इसमें कांग्रेस समेत सभी पार्टियों ने अपना-अपना योगदान अपने-अपने हिसाब से देना शुरू कर दिया और विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने नेताओं को भारत रत्न रेवडि़यों की तरह बांटने की सिफारिश करने लगे। यदि बहुत स्पष्ट शब्दों में तीखी बात कही जाये तो राजनीतिक दलों ने अमूल्य रत्नों के भी भाव लगाने शुरू कर दिए। सवाल यह है कि क्या यह पद्धति जारी रहनी चाहिए? बेहतर हो कि भारत रत्न स्व. शास्त्री को देने के लिए जो नियम संशोधन किया गया था उसे रद्द किया जाये और केवल जीवित व्यक्तियों को ही इस सम्मान से अलंकृत करने का नियम पुनः चालू हो, क्योंकि भारत के आधुनिक इतिहास में एेसी सैकड़ों विभूतियां विभिन्न क्षेत्रों में रही हैं जिनमें से किसी एक को भी नजरंदाज करने से दूसरे की योग्यता पर राजनीतिक अखाड़ा जमाया जा सकता है। हर पेशे में एेसी महान विभूतियों की उपस्थिति गिनाई जा सकती है।