स्वतन्त्रता के बाद भारत ने लोकतन्त्र की जिस संसदीय प्रणाली को अपनाया था उसका मुख्य कारण यह था कि इस व्यवस्था में आम जनता की सत्ता में सीधी भागीदारी रहे और उसकी समस्याओं का समाधान भी जनप्रतिनिधियों की सहभागिता के साथ इस प्रकार हो कि इसमें शासन करने वाले पक्ष और विरोध में बैठे पक्ष के बीच सहमति बनाकर सत्ता का संचालन हो। अतः इस प्रणाली को असरदार बनाने के लिए चुने हुए सदनों के ऐसे नियम बनाये गये जिनसे सत्ता व विपक्ष दोनों के बीच ही सामंजस्य स्थापित रहे। इस मामले में चुने हुए सदनों विधानसभा, विधान परिषद व लोकसभा और राज्यसभा के अध्यक्षों या पीठासीन अधिकारियों अथवा सभापतियों को अपने-अपने सदनों के भीतर उन अधिकारों से पूर्णतः लैस किया गया जिससे वे सदन में चुनकर आये प्रत्येक सदस्य के अधिकारों का संरक्षण कर सकें और सदन की कार्यवाही को किसी भी न्यायिक समीक्षा से परे रख सकें। इसके लिए पीठासीन अधिकारियों को न्यायिक अधिकार भी दिये गये जिससे सदन के भीतर के सभी मामलों का निपटारा सदन संचालन के लिए बने नियमों के अनुसार हो सके। सदन के भीतर इसके अध्यक्ष या सभापति को न्यायाधीश के समकक्ष दर्जा देने का अर्थ यही था कि चुने हुए प्रतिनिधियों की अपने-अपने सदनों के भीतर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर किसी प्रकार का अंकुश न लग सके जिसके लिए इन सदस्यों को विशेषाधिकार भी दिये गये। यह अनूठी व्यवस्था राजनैतिक दलों द्वारा बहुमत पाने पर बनी सरकारों की सत्ता को सदैव मर्यादित आचरण करने के साथ ही विपक्ष को आपे से बाहर होने से रोकने के लिए अध्यक्षों को उन अधिकारों से भी लैस किया गया जिससे वे सरकार के किसी मन्त्री से लेकर विपक्ष के सदस्य की जवाबदेही सदन के प्रति तय कर सकें।
लोकतन्त्र में चुने हुए सदनों को राज्य व केन्द्र के सन्दर्भ में सर्वोच्च माना गया और इनमें कही या लिखी गई बातों को पत्थर की लकीर की तरह लिया गया। यह सारी व्यवस्था चुने हुए सदनों को जनता का सच्चा प्रतिनिधि बनाने के लिए ही की गई। परन्तु हम देख रहे हैं आजादी के बाद से इन सदनों की कार्यप्रणाली में लगातार गिरावट आ रही है और शोर-शराबे के बीच सदनों की कार्यवाहियां निपटती सी लग रही हैं। बेशक ये सदन केवल वाद-विवाद के प्रतियोगिता स्थल नहीं हो सकते मगर इनमें होने वाली बहस ठोस तर्कों के आधार पर हो और सम्बद्ध विषय की पेचीदा पर्तें खोलती लगें, इसे देखना भी अध्यक्षों का काम हो जाता है। आजकल राजस्थान की राजधानी जयपुर में अखिल भारत के पीठासीन अधिकारियों का दो दिवसीय सम्मेलन चल रहा है जिसका उद्घाटन उपराष्ट्रपति व राज्यसभा के सभापति श्री जगदीप धनखड़ ने किया। भारत में ऐसे सम्मेलन पूर्व में भी होते रहे हैं और उस क्रम में यह 83वां सम्मेलन है। इस सम्मेलन का जो लक्ष्य निर्धारित किया गया है, उसके अनुसार भारत को जी-20 देशों की अध्यक्षता मिलने के वर्ष में भारत की विधायिका किस प्रकार पूरे विश्व के लोकतान्त्रिक देशों के लिए एक नजीर बन सकती है? दूसरे इस मुद्दे पर भी सम्मेलन में विचार होगा कि विधायिका और न्यायपालिका के बीच सम्बन्ध सुधारने के लिए क्या कदम उठाये जायें?
जहां तक पहले प्रश्न का सम्बन्ध है तो स्पष्ट है कि भारत की विधायिका की साख विश्व के लोकतान्त्रिक देशों में अभी तक बहुत ऊंचाई पर रख कर देखी जाती रही है परन्तु पिछले कुछ दशकों से इसमें प्रायः ह्रास हो रहा है। इसकी वजह बहुत साफ है कि सदनों में चुनकर आने वाले सदस्यों के आचरण में गिरावट आ रही है और वे सदन की ही बंधी हुई स्वस्थ परंपराओं का उल्लंघन तक करने में हिचकिचाहट महसूस नहीं करते हैं। जिस प्रकार विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं में खुलकर हाथापाई तक हो जाती है उसे देखते हुए पीठासीन अधिकारियों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। साथ ही विभिन्न राज्यों में विधानसभाओं का सत्र जितने कम समय के लिए बुलाने की परंपरा बढ़ रही है वह भी विधायिका के लिए नुकसानदेह है क्योंकि ऐसा करने से चुने हुए प्रतिनिधियों की जनता के प्रति जवाबदेही ही नैपथ्य में जाती है। अतः बहुत जरूरी है कि चुने हुए प्रतिनिधि अपने सदनों में अपेक्षाकृत अधिक समय तक बैठें और जनता के मुद्दों व उसकी समस्याओं के बारे में सदनों के भीतर अधिकाधिक विचार-विमर्श करें। लेकिन न्यायपालिका व विधायिका के बीच के सम्बन्धों का मामला बहुत नाजुक है क्योंकि भारत के संविधान ने दोनों ही स्तम्भों के अधिकारों के बीच जो लक्ष्मण रेखा खींची हुई है उसका उल्लंघन किसी सूरत में नहीं होना चाहिए। इस मामले में हमें यह ध्यान रखना होगा कि सदनों की कार्यवाही की समीक्षा करने का अधिकार किसी भी न्यायालय को नहीं है मगर संविधान सम्मत संचालन होते देखने का हक सर्वोच्च न्यायालय को मिला हुआ है क्योंकि अन्त में सर्वोच्च न्यायालय ही देश में संविधान का शासन सुनिश्चित करने का सिपहसालार है। हमारे पास ऐसी कई नजीरें हैं जब सर्वोच्च न्यायालय को विधानसभा की कार्यवाही पूर्ण रूपेण संविधान सम्मत तरीके से चलाने के निर्देश देने पड़े हैं, सबसे ताजा उदाहरण कुछ वर्ष पहले उत्तराखंड का है। अतः लोकतन्त्र हर स्तर पर मर्यादा की अपेक्षा रखता है। यह बेवजह नहीं था कि समाजवादी नेता स्व. डा. राममनोहर लोहिया अक्सर कहा करते थे कि लोकतन्त्र लोकलज्जा से चलता है। उनका आशय इस तन्त्र में जन्मी विसंगतियों को दूर करने से ही होता था।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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