धर्म परिवर्तन एक राष्ट्रव्यापी समस्या बन चुका है। इस मुद्दे पर जारी बहस के बीच सुप्रीम कोर्ट ने जबरन धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून बनाने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए इस मुद्दे को गम्भीर बताया है और दो टूक शब्दों में कहा है कि धर्मांतरण को राजनीतिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए। पिछली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि केन्द्र की तरफ से जबरन धर्मांतरण को रोकने के लिए गम्भीर प्रयास किए जाने चाहिएं वरना बहुत कठिन स्थिति आ जाएगी। पीठ ने यह भी कहा था कि ऐसे मामलों को रोकने के लिए उपाय बनाएं जिनमें प्रलोभन के लिए धर्म परिवर्तन किया जा रहा है। जबरन धर्म परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाने के कानून का इतिहास ब्रिटिश काल में ढूंढा जा सकता है। तब कई रियासतों ने धर्मांतरण विरोधी कानून तैयार किए थे। रायगढ़ राज्य धर्मांतरण विधेयक 1936, पटना धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक 1942, सरगुजा राज्य धर्म त्याग अधिनियम 1945 और उदयपुर राज्य धर्मांतरण विरोधी कानून ऐसे ही कानून थे। स्वतंत्रता के बाद राज्य सरकारों के बनाए गए कानूनों में जबरन धर्म परिवर्तन को भारतीय दंड प्रक्रिया की धारा 295-A और 298 के तहत दंडनीय अपराध माना गया। इसके तहत दूसरों की धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर आहत करना और दुर्भावना रखना दंडनीय अपराध है। जिसके लिए जेल और जुर्माना दोनों का प्रावधान है। धर्मांतरण को राजनीतिक रंग नहीं देने की टिप्पणी शीर्ष अदालत ने तब की जब तमिलनाडु की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता ने याचिका को राजनीतिक रूप से प्रेरित बताया और कहा कि तमिलनाडु में धर्मांतरण का कोई सवाल ही नहीं है। तब इस पर पीठ ने स्पष्ट कहा कि यदि आपके राज्य में धर्मांतरण नहीं हो रहा तो अच्छा है, यदि हो रहा है तो यह बुरा है। इसे एक राज्य को लक्षित करने के रूप में न देखें और इसे राजनीतिक मुद्दा न बनाएं।
धर्म परिवर्तन राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरनाक है। मजहब की पहचान के आधार पर जब देशों का निर्माण किया जाता है तो उसमें इंसान की पहचान को निकाल लिया जाता है। धर्म के नाम पर ही भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ था। धर्म परिवर्तन होते ही व्यक्ति की निष्ठाएं बदल जाती हैं। उसकी सांस्कृतिक पहचान को बदलने का प्रयास किया जाता है। इससे उसकी राष्ट्र निष्ठा में बदलाव आना स्वाभाविक प्रक्रिया हो जाती है क्योंकि उसके पूजा स्थल ही बदल जाते हैं। देश में लव जिहाद का मुद्दा गर्म हो जाने के बाद और हिन्दू युवतियों की नृशंस हत्याओं के बाद देश में धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी है। सत्य है कि धर्म ही मनुष्य में संस्कार भरता है। लेकिन कोई भी धर्म मनुष्य को दानव बनाने का उपदेश नहीं देता, लेकिन जिस तरह से श्रद्धा को किसी बेजान वस्तु की तरह 35 टुकड़ों में काट कर फैंक दिया गया और जिन परिस्थितियों में टीवी अभिनेत्री तुनिषा ने कथित रूप से आत्महत्या की उसके बाद लव जिहाद पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
यदि शादी के लिए हिन्दू युवतियों को प्रेम पाश में बांधकर उनका धर्म परिवर्तन कराया जाता है तो यह सरासर लव जिहाद ही है। कौन नहीं जानता कि गरीब इलाकों में निचले तबके के हिन्दुओं को मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का प्रलोभन देकर ईसाई मिशनरियां जबरन धर्म परिवर्तन करवाती आ रही हैं। धर्म परिवर्तन कोई आज का नहीं हो रहा। 60 के दशक में तमिलनाडु के एक गांव में सभी हिन्दू लोग इस्लाम धर्म में परिवर्तित हो गए थे तो तब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी भी बहुत चिंतित हो गई थीं। क्योंकि भारत की गरीबी को निशाना बनाते हुए गरीब तमिल नागरिकों का मजहब अरब देशों से आने वाले पैट्रो डाॅलरों के लालच से बदला गया था। इंदिरा गांधी को ही तब धर्म परिवर्तन के खिलाफ तमिलनाडु मूलक कानून लाना पड़ा था। मगर इसके बाद 1981 में पुनः एक गांव के 300 दलित परिवारों ने धर्म परिवर्तन कर लिया था, मगर इस बार कारण हिन्दू धर्म के भीतर ही जाति मूलक दुर्व्यवहार था। मामले ने इतना तूल पकड़ लिया था कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे उदार नेता को भी उस गांव में जाकर परिवारों को दुबारा हिन्दू धर्म अंगीकार करने का अनुरोध करना पड़ा था।
कई राज्यों में धर्म परिवर्तन का खेल अब भी जारी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऊंची जाति के हिन्दुओं और समाज के कमजोर वर्गों के बीच सम्पर्कों और संवाद की कमी की वजह से दूसरे धर्मों के नेता इस बात का ढिंढोरा पीटते हैं कि कमजोर तबके के लोगों को अपमानित किया जा रहा है और वे इन्हें धर्म परिवर्तन के लिए उकसाते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू से ही आदिवासियों और समाज के कमजोर वर्गों से लगातार संवाद बनाए हुए है, ताकि धर्मांतरण को रोका जा सके। अतः सभी कोणों को ध्यान में रखते हुए और दलगत राजनीति से ऊपर उठकर एक ऐसे सख्त धर्मांतरण विरोधी कानून की जरूरत महसूस की जा रही है ताकि ऐसे मामले हो ही नहीं पाएं।