लाट साहब यानी गवर्नर या राज्यपाल। संविधान निर्माताओं की सोच के अनुसार राज्य में संघ का प्रतिनिधि, केन्द्र और राज्य के संंबंधों में संतुलन साधने वाला एक सेतु। देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार भारत में राज्यपालों की भूमिका भी बदली। राजनीति में ऐसा समय भी था जब राज्यपाल पद को लेकर कोई कौतुहल नहीं रहता था। बहुदलीय राजनीति के अस्तित्व में आने के बाद यह न केवल विवादित हो गया बल्कि आकर्षण और अदृश्य सत्ता का एक बड़ा केन्द्र बनकर उभरा। केन्द्र की सत्तारूढ़ सरकारें अपनी रीति-नीति से जुड़े लोगों को बैठा कर न केवल अपना राजनीतिक हित साधने लगीं बल्कि उन्हें अब केन्द्र के एजैंट के रूप में परिभाषित किया जाने लगा।
राज्यों में मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों में टकराव कोई नई बात नहीं। दिल्ली में केजरीवाल सरकार और उपराज्यपाल में काफी टकराव हुआ था। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्यपाल ओ.पी. धनखड़ में सीधी भिड़ंत होती रहती है। निर्वाचित सरकारों के खिलाफ राज्यपालों की सक्रियता के खिलाफ सवाल पहले भी खड़े होते थे और आज भी खड़े हो रहे हैं। कई राज्यपालों का असंवैधानिक आचरण भी अनेक बार सामने आ चुका है।
एक महान गौरवमयी, संवैधानिक संस्था अपनी नकारात्मक भूमिकाओं के कारण लगातार गरिमाहीन, अप्रतिष्ठित एवं राजनीतिक बन गई। राज्यपाल पद की निरंतरता पर भी सवाल उठने लगे। संविधान निर्माताओं की आशाओं के धूमिल होने, नियुक्ति, विवेकाधिकार का पक्षपाती उपयोग, राष्ट्रपति शासन में विवादित भूमिका, विपक्ष के साथ तनावपूर्ण संबंध, केन्द्र-राज्य संबंधों के संदर्भ में असंतुलित भूमिका, बर्खास्तगी, स्थानांतरण, राजनीतिक सक्रियता और विवादास्पद भूमिकाओं संबंधी उठने वाले अनेक सवालों के कारण इस पद के औचित्य पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।
राजधानी दिल्ली में पहले अधिकारों को लेकर केजरीवाल सरकार और उपराज्यपाल अनिल बैजल में काफी भिड़ंत हुई थी। मामला उच्च अदालतों में पहुंचा, अंततः शीर्ष अदालत ने सब कुछ तय कर दिया। केजरीवाल सरकार ने भी अपना रवैया नरम कर लिया। कोरोना काल में मुख्यमंत्री केजरीवाल और उपराज्यपाल में क्वारंटाइन मामले में ठन गई थी। कोरोना वायरस से निपटने के लिए सत्ता और सत्ता से जुड़ी संस्थाओं को तालमेल बनाकर चलने की जरूरत है लेकिन दिल्ली में संकट के समय भी राजनीति की गई। तीखी बयानबाजी भी हुई और शब्दों की मर्यादाएं भी टूटीं। उपराज्यपाल अनिल बैजल ने अचानक आदेश जारी कर दिया कि जिस व्यक्ति को कोरोना के लक्षण होंगे उसे तुरन्त सरकारी आइसोलेशन में 5 दिन रखा जाएगा। इस आदेश पर विवाद खड़ा हो गया था।
केजरीवाल सरकार ने दिल्ली में बढ़ते मरीजों को देखते हुए शुरूआती लक्षण में लोगों को घरों में ही रहने के लिए कहा था। संक्रमितों के घर में आइसोलेशन खत्म करने के उपराज्यपाल के आदेश का सरकार ने विरोध किया। मुख्यमंत्री का कहना था कि इससे दिल्ली के लोगों में डर बैठेगा और वह जांच ही नहीं करवाएंगे। दिल्ली में मेडिकल स्टाफ की कमी है। जून के अंत में अगर संक्रमितों की संख्या काफी बढ़ गई तो क्वारंटाइन सैंटरों में मरीजों के लिए नर्स और डाक्टर कहां से लाएंगे। पूरे देश से हटकर दिल्ली के लिए अलग नियम क्यों बनाएंगे। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि रेलवे ने आइसोलेशन कोच तो दिए हैं लेकिन इतनी गर्मी में वहां रहेगा कौन? आखिर केजरीवाल के तर्क अपनी जगह सही थे। बैठकों का दौर चला तो अंततः उपराज्यपाल ने 5 दिन क्वारंटाइन में जाना अनिवार्य बनाने का आदेश वापस ले लिया। वैसे तो उपराज्यपाल को आदेश देने की जरूरत ही नहीं थी। यह आदेश सरकार के कामकाज में अनाधिकार हस्तक्षेप था। अब जबकि इस मुद्दे पर टकराव खत्म हो चुका है तो अब सरकार और उपराज्यपाल को तालमेल बनाकर कोरोना महामारी से निपटने की व्यवस्था करनी चाहिए। केन्द्र सरकार ने प्राइवेट अस्पतालों में केवल 24 फीसदी बैड को सस्ता करने की सिफारिश की है जबकि दिल्ली सरकार कम से कम 60 फीसदी बैड सस्ते चाहती है।
राज्यपाल पद को लेकर खड़े हुए सवालों के समाधान में ही इस पद की सार्थकता निहित है। आखिर संविधान में इस पद के सृजन का प्रावधान अकारण तो नहीं किया गया। ऐसा भी नहीं है कि राज्यपाल सिर्फ नकारात्मक भूमिका ही निभाते हैं। अच्छे योग्य व्यक्ति सृजनात्मक भूमिका भी निभाते हैं। राज्य के विकास में मंत्रिमंडल के साथ कदम बढ़ाते हैं। सरकारों के हर काम में हस्तक्षेप लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन है। राज्यपालों और उपराज्यपालों को संघ और राज्य में समन्वय स्थापित करना चाहिए, यही राज्य के हित में है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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