भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या बेशक 56 लाख से पार बताई जा रही है मगर वास्तव में यह दस लाख से ज्यादा नहीं है क्योंकि 56 लाख में से 45 लाख से ज्यादा व्यक्ति कोरोना मुक्त हो चुके हैं। 130 करोड़ की आबादी में इतने मरीज तो ‘मौसमी फ्लू’ के भी हो जाते हैं। भारत में जिस तरह संक्रमण ग्रस्त व्यक्ति स्थानीय उपचार से ही ठीक हो रहे हैं उसे देख कर लगता है कि भारतीय चिकित्सकों ने इसकी ‘रग’ को पकड़ लिया है और वे मरीजों को भला चंगा कर रहे हैं। हालांकि ऐसी खबरें भी आती रहती हैं कि अमुक राज्य में आक्सीजन सिलेंडरों की कमी है या अस्पतालों में बिस्तरों का अभाव है किन्तु सबसे ऊपर समझने वाली बात यह है कि कोरोना कोई ऐसी लाइलाज बीमारी नहीं है जिसका शुरू में ही इलाज न किया जा सके।
भारत में कोरोना संक्रमण से मरने वालों की संख्या विश्व के औसत में बहुत कम इसीलिए है क्योंकि यहां के आम लोगों ने इस बीमारी से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। भारत की जलवायु की भी इसमें प्रमुख भूमिका मानी जाती है और इसके साथ ही देशी जड़ी-बूटियों का प्रयोग जिस तरह से भारत के गांवों में किया जाता है उससे भी आम भारतीयों की प्रतिरोधक क्षमता में इजाफा होता रहता है। मुख्य विचारणीय विषय यह है कि यदि भारत में कोरोना से ठीक होने वालों की संख्या 82 प्रतिशत तक न होती तो हमारी चिकित्सा तन्त्र का क्या हाल होता।
सार्वजनिक चिकित्सा प्रणाली जिस तरीके से कुछ राज्यों में छोड़ कर शेष सभी में बदहाल है उसे देखते हुए आम भारतीयों का इस बीमारी पर पार पाना असंभव हो जाता। फिलहाल देश में 30 प्रतिशत कोरोना उपचार की व्यवस्था सार्वजनिक क्षेत्र में है और 70 प्रतिशत निजी क्षेत्र में। निजी क्षेत्र में जिस तरह शुरू में मरीजों का आर्थिक शोषण किया गया उससे सभी लोग परिचित हैं। संसद में ही यह तथ्य उजागर हो चुका है कि निजी अस्पताल में एक मरीज से 90 लाख रुपए तक की फीस वसूली गई। यह भी सर्वविदित है कि भारत के 80 प्रतिशत लोगों की क्षमता निजी अस्पतालों में इलाज कराने की नहीं है तो फिर 82 प्रतिशत लोग कैसे ठीक हो रहे हैं?
यह भारत में प्रचलित आयुर्वेदिक व यूनानी चिकित्सा तरीकों का कमाल है कि औसत व गरीब आदमी जड़ी-बूटियों का सेवन करके बीमारी से एक हद तक लड़ रहा है और हमारे कस्बों व छोटे शहरों में निजी एकल चिकित्सालय चलाने वाले डाक्टरों ने इसका तोड़ निकाल लिया है। बेशक ये तोड़ अंग्रेजी दवाओं का ही है जो गरीब आदमी को भला-चंगा कर रहा है किन्तु यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आयुर्वेदिक औषधियां आम आदमी की पहुंच में हैं और ‘गिलोय’ जैसी जड़ी-बूटी को पका कर आम जनता प्रतिरोधक क्षमता का विकास कर रही है।
अब यह भी प्रश्न कहां होता है कि फिर इस बीमारी से मृत्यु की खबरें अब भी क्यों आ रही हैं? संभवतः यह ऐसी पहली बीमारी है जो पूरी दुनिया में ऊपर से नीचे की तरफ चली है अर्थात इसने पहले अमीर व संभ्रान्त समझे जाने वाले लोगों को अपना शिकार बनाया और उसके बाद यह समाज के गरीब तबकों की ओर बढ़ी। यह विस्मयकारी तथ्य है क्योंकि सबसे पहले इसके शिकार विश्व के विभिन्न देशों के राजनेता ही हुए और भारत में भी यह बीमारी हवाई जहाज में सफर करने वाले विदेशों से भारत आये लोगों द्वारा ही लाई गई।
हालांकि इसे मात्र संयोग भी कहा जा सकता है परन्तु हकीकत तो यही रहेगी कि 24 मार्च को लागू किये गये लाॅकडाऊन वाले दिन भारत में कोरोना मरीजों की संख्या कुल 600 से भी कम थी। जाहिर है कि यह संक्रमण फैलने के पीछे इसके विषाणुओं का तेजी से फैलाव रहा है परन्तु इसके साथ ही संक्रमित लोगों के भला- चंगा होने के पीछे भारतीय चिकित्सा पद्धतियों की सफलता रही है, यह तथ्य हमें इसलिए स्वीकार करना चाहिए क्योंकि पूरी दुनिया में भला-चंगा होने वाले लोगों का औसत बहुत ही कम है। इस सन्दर्भ में संसद में पारित उस विधेयक का जिक्र किया जाना आवश्यक है जिसके तहत गुजरात में आयुर्वेदीय चिकित्सा शोध संस्थान स्थापित करने का प्रावधान किया गया है।
राज्यसभा में जब यह विधेयक लगभग सर्वसम्मति से पारित हुआ तो प्रत्येक राज्य के सांसदों ने मांग रखी कि उनके सम्बन्धित राज्य में भी ऐसे संस्थान कायम किये जाने चाहिए। केरल व प. बंगाल के सांसदों के साथ ही उत्तर-पूर्वी राज्यों के सांसदों ने भी देशी चिकित्सा प्रणाली के असरदार होने व इसके आम आदमी की पहुंच में होने की हकीकत का बयान जिस तरह किया उससे यही सिद्ध हुआ कि 21वीं सदी के दौर में भी हमारी घरेलू चिकित्सा प्रणाली पूर्णतः वैज्ञानिक है। इसके साथ ही होम्योपैथी के विस्तार पर भी सांसदों ने जोर दिया था। कोरोना महामारी के सन्दर्भ में आज सबसे अधिक समझने वाली बात यह है कि इसका हौवा आम जनता के बीच से समाप्त किया जाये जिससे रसातल में जाती भारतीय अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाया जा सके।
यातायात व परिवहन से लेकर अन्तर्राज्यीय व्यापार को शुुरू किया जाए। इस मामले में एक ही उदाहरण काफी है कि भारत में आक्सीजन का उत्पादन मांग से अधिक हो रहा है परन्तु विभिन्न अस्पतालों मे इसके सिलेंडर यातायात अवरुद्ध होने की वजह से नहीं जा पा रहे हैं। अब समय आ गया है कि हमें यात्री रेलगाड़ियां भी चलानी चाहिएं और यात्रियों के लिए मुंह पर मास्क लगाना आवश्यक कर देना चाहिए। प्रसन्नता की बात ही कही जायेगी कि भारत के छोटे कस्बों व शहरों में जन-जीवन सामान्य होने के करीब लौट रहा है।