शिक्षा के मामले में भारत के शिक्षा संस्थानों का शर्मसार होना कोई नई बात नहीं। निजी शिक्षा संस्थान काफी कुख्यात हो चुके हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग हर वर्ष ऐसे विश्वविद्यालयों की सूची जारी कर छात्रों को आगाह करता रहता है कि इन संस्थानों में दाखिला न लें, क्योंकि इन सभी की डिग्रियां मान्यता प्राप्त नहीं हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के दिशा-निर्देशों के मुताबिक कोई भी प्राइवेट या डीम्ड यूनिवर्सिटी अपने राज्य के बाहर रेग्युलर या डिस्टैंस मोड (पत्राचार) में डिग्री नहीं दे सकतीं। इसके बावजूद डीम्ड विश्वविद्यालयों ने राज्यों के बाहर डिग्रियां बांटी। इस सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट ने 2015 के फैसले में स्पष्ट कहा था कि कोई भी डीम्ड विश्वविद्यालय राज्य के बाहर डिग्रियां नहीं बांट सकता, फिर भी धड़ल्ले से डिग्रियां बंटी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की गाइड लाइन्स में कहा गया है कि कोई भी प्राइवेट या डीम्ड विश्वविद्यालय देश या देश के बाहर कैम्पस ऑफ सैंटर नहीं खोल सकते लेकिन इन्होंने कैम्पस सैंटर जगह-जगह खोल दिए और बांटनी शुरू कर दी डिग्रियां।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग फर्जी यूनिवर्सिटीज की सूची जारी कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेता है। आयोग अवैध डिग्री देने वालों के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है, इन्हें बन्द करवा सकता है लेकिन अधिकारियों की मिलीभगत से अवैध डिग्रियां बंटती रहीं। हद तो तब हो गई जब इन विश्वविद्यालयों ने पत्राचार द्वारा इंजीनियरिंग, मेडिकल, फिजियोथैरेपी, बीएड और अन्य तमाम तकनीकी विषयों में डिग्रियां बांटनी शुरू कर दीं। जरा सोचिये! क्या घर बैठे कोई इंजीनियर कैसे बन सकता है, केवल पढ़ने मात्र से कोई इंजीनियर नहीं बन सकता क्योंकि यह शिक्षा तो पूरी तरह प्रैक्टिकल पर आधारित है। आर्ट विषयों की शिक्षा घर बैठे सम्भव है लेकिन इंजीनियरिंग और अन्य तकनीकी शिक्षा घर बैठे सम्भव नहीं। अज्ञानी स्नातक पत्राचार से डिग्री तो ले लेते हैं लेकिन देश हो या विदेश में जाकर विफल ही रहते हैं। यह ऐसा है कि जैसे कोई कॉलेज पैसा लेकर कागज का प्रमाण पत्र दे। ऐसी डिग्री का क्या फायदा? शिक्षा के व्यवसायीकरण और अंधाधुंध लूट ने शिक्षा व्यवस्था काे तबाह करके रख दिया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी शिक्षा के व्यवसायीकरण और लूट को रोकने में विफल रहा।
अब सुप्रीम कोर्ट ने पिछले 16 साल से डीम्ड विश्वविद्यालयों से पत्राचार में इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने वाले हजारों छात्रों को बड़ा झटका दिया है। शीर्ष अदालत ने मामले की गम्भीरता को समझते हुए ऐसी सभी डिग्रियां अमान्य घोषित कर दी हैं। इस फैसले से छात्रों का भविष्य अंधकारमय हो गया है। साथ ही ऐसी डिग्रियों के बल पर नौकरियां हासिल करने वालों के सामने भी संकट खड़ा हो गया है। सवाल यह है कि जब यूजीसी आैर ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजूकेशन ने इंजीनियरिंग और अन्य तकनीकी कोर्सों की पढ़ाई के लिए पत्राचार की पढ़ाई को मान्यता नहीं दी थी ताे फिर इतने वर्षों में ऐसी डिग्रियां कैसे बंटी? यूजीसी और शिक्षा से जुड़े किसी तंत्र ने नहीं देखा कि देश के युवाओं को डिग्रियां बांट-बांटकर उनके भविष्य से खेला जा रहा है। सैंट्रल या स्टेट यूनिवर्सिटीज के समकक्ष होने के कारण हजारों छात्र हर साल दाखिला लेते हैं लेकिन पत्राचार शिक्षा से व्यावहारिक ज्ञान की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शीर्ष अदालत ने ऐसे चार संस्थानों को पिछली तारीख में मंजूरी देने के मामले में सीबीआई जांच का आदेश भी दिया है। आखिर किसी न किसी प्राधिकार ने तो उन्हें मंजूरी दी ही होगी। जांच के बाद ऐसे लोगों को दंडित किया जाना जरूरी है। अलबत्ता कोर्ट ने प्रभावित स्नातकों ने अपनी डिग्री बचाने के लिए एक और मौका दिया है। उन्हें एआईसीटीई की परीक्षा में बैठना होगा।
परीक्षा पास करने से ही उनकी डिग्री बचेगी। अब इन विश्वविद्यालयों के नाम से यूनिवर्सिटी शब्द हटाने के आदेश भी दिए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से जो छात्र कम अंक लेकर न्यूनतम योग्यता के आधार पर दाखिला ले लेते थे, अब वे ऐसा नहीं कर सकेंगे। भारत में बेरोजगारी की उच्च दर और उच्च शिक्षा के अत्यधिक खर्च के कारण शैक्षिक धोखाधड़ी से अवैध धंधा करने वाले, छात्रों आैर नौकरी चाहने वालों को फर्जी प्रमाणपत्र बेचकर, अनैतिक तरीके अपनाकर दूसरों को सफलता की राह दिखाने वाले संगठित गिरोह सक्रिय हैं। असली एमबीए की डिग्री हासिल करने के लिए तीन वर्ष लगते हैं आैर 10-12 लाख रुपए खर्च होते हैं लेकिन एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय इस राशि का दसवां अंश लेकर आपको 15 दिन में डिग्री दे देता है। ऐसी डिग्री का क्या फायदा। तभी तो भारत कौशल विकास में पिछड़ा हुआ है। फर्जी डिग्रीधारक किसी का भला नहीं कर सकते, न आपका न देश का। युवाओं को समझना होगा कि जीवन में सफलता का कोई शार्टकट रास्ता नहीं है। मेहनत से ही व्यावसायिक कुशलता प्राप्त की जा सकती है। मानव संसाधन मंत्रालय को चाहिए कि फर्जी डिग्रियां बांटने वाले संस्थानों पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कार्रवाई करे।