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भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद

देश की स्वतन्त्रता के 75 वर्ष पूरे होने के अमृत महोत्सव काल में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने देश वासियों का जो आह्वान किया है उसका मन्तव्य आधुनिक समय की चुनौतियों से मुकाबला करते हुए उनका हल इस तरह खोजने का है कि प्रत्येक गरीब से गरीब व्यक्ति की राजनैतिक व आर्थिक आजादी का वह सपना पूरा हो सके जिसे हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों ने अंग्रेजी राज से मुक्ति दिलाते हुए देखा था। यह आजादी हमने कई पीढि़यों का बलिदान देकर पाई है और उस लोकतन्त्र की स्थापना की है जिसमें किसी दलित से लेकर किसान व मजदूर का बेटा-बेटी भी देश का प्रधानमन्त्री बनने का सपना पूरा कर सके। लोकतन्त्र की यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है कि आज एक ‘चाय बेचने वाले का बेटा’ नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री पद की शोभा बढ़ा रहा है। निश्चित रूप से एेसा इस देश की राजनीतिक लोकतान्त्रिक पद्धति के तहत ही संभव हुआ है जिसमें राजनैतिक दलों की ही प्रमुख भूमिका होती है। अतः भारत के लोकतन्त्र में राजनैतिक दलों की भूमिका प्रशासन पद्धति में निर्णायक होती है।

इस दृष्टि से 15 अगस्त के दिन लालकिले की एेतिहासिक प्राचीर से श्री मोदी द्वारा ‘भ्रष्टाचार’ व ‘भाई भतीजावाद’ का जिक्र करना भारत की राजनीति का एेसा मोड़ है जिसमें समूची व्यवस्था के शुद्धीकरण का मन्त्र छिपा हुआ है। एेसा नहीं है कि आजादी के बाद श्री मोदी का यह पहला प्रयास है परन्तु सार्वजनिक रूप से स्वयं प्रधानमन्त्री द्वारा लालकिले से अपने राष्ट्र के नाम सम्बोधन में इसका आह्वान करना अनुकरणीय कदम है। 1963 में भारत के पहले प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ‘कामराज प्लान’ भी इसी वजह से लाये थे परन्तु उसका स्वरूप दूसरा था और उसका लक्ष्य केवल कांग्रेस पार्टी के भीतरी ढांचे को दुरुस्त करना था। श्री मोदी का लक्ष्य समूची राजनैतिक व्यवस्था के ढांचे को दुरुस्त करना है।

यह भी हकीकत है कि भ्रष्टाचार की गंगा हमेशा ऊपर से नीचे की तरफ बहती है। इसके साथ ही लोकतन्त्र में राजनैतिक तन्त्र प्रशासनिक व्यवस्था के हर तन्त्र पर अपना असर डालता है। मोटे तौर पर यदि किसी विभाग का मन्त्री भ्रष्टाचारी होगा तो उसके नीचे काम करने वाले बड़े अफसर से लेकर नीचे चपरासी तक सभी भ्रष्टाचारी बन जायेंगे। अतः सबसे पहले राजनैतिक भ्रष्टाचार पर ही लगाम लगा कर निचले स्तर तक के लोगों को सुधारा जा सकता है। मगर आर्थिक उदारीकरण के दौर में भ्रष्टाचार का स्वरूप भी बदला है और इसने सरकारों के स्तर पर ही ‘एकमुश्त’ का रूप ले लिया है जिसे सुधारने के लिए प्रधानमन्त्री ने लाल किले से प्रण लिया है और लोगों का इसमें सहयोग मांगा है। इस भ्रष्टाचार की कड़ी चुनावों से पहले मतदाताओं को सौगात की मुफ्त ‘रेवड़ियां’ बांटने तक जाती है। श्री मोदी को इस बात का दुख भी है कि जिन राजनीतिज्ञों को भ्रष्टाचार के अपराध में जेल तक हो जाती है और जिन पर अदालतों में जनता का धन हड़प करने के पक्के मुकदमे भी सजा की तजवीज करते हैं, उनका ही महिमा मंडन करने से कुछ लोग बाज नहीं आते। एेसी परंपरा आने वाली पीढि़यों में लोकतन्त्र के प्रति उदासीनता का भाव पैदा करती है। इससे जितना जल्दी हो बचा जाना चाहिए।  दूसरा मुद्दा भाई-भतीजावाद का है। इसकी जड़ें भी मूल रूप से राजनीति में ही छिपी हुई हैं जिसकी बेल प्रशासनिक तन्त्र तक फैलती है।  भारत में आज एेसे क्षेत्रीय दलों की भरमार है जिन्होंने अपनी राजनैतिक पार्टियों को ‘कदीमी खानदानी परचून’ की दुकानें बना रखा है।

बिहार हो या उत्तर प्रदेश अथवा प. बंगाल हो या तेलंगाना अथवा तमिलनाडु , सभी राज्यों में एेसी खानदानी दुकानें स्वयं को राजनैतिक दल बताती हैं और लोगों को जाति, धर्म के अलावा समुदाय या वर्ग के नाम फुसला कर अपनी दुकान की ‘बिक्री’ बढ़ाती हैं। एेसे दलों का कोई राष्ट्रीय नजरिया नहीं हो सकता क्योंकि उनका लक्ष्य केवल अपने परिवार की उन्नति और उसकी सम्पत्ति बढ़ाना और अपने ‘वारिस’ को तैयार करना होता है जो आम लोगों की जेब पर ‘डाका’ डाल कर ही हो सकता है। भाई-भतीजावाद सबसे पहले ‘योग्यता’ को खाता है और उसके बाद जनता के हिस्से की सम्पन्नता को चट कर जाता है। पिछले तीन दशक से मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद भारत में जिस जातिगत व समुदायगत राजनीति का उदय हुआ था उसकी समाप्ति का समय अब आ चुका है और यह कार्य भी श्री मोदी के हाथों से ही होना लिखा है क्योंकि उन्होंने राजनीति के मूलभूत सिद्धान्तों को इस तरह बदला है कि हर जाति-मजहब का नागरिक सबसे पहले स्वयं को भारतीय और देश की संस्कृति व इसकी मिट्टी से प्रेम करने वाला समझे। इतनी सी बात अन्य राजनैतिक दलों की समझ में नहीं आ रही है और वे चुनावों के समय रस्सी पर ‘उल्टे’ लटक कर भी भाजपा को हराने में असफल हो जाते हैं।

मोदी की लोकप्रियता का राज भी यही है। बेशक कुछ लोग इसे कभी हिन्दुत्व भी कह देते हैं। परन्तु हमें याद रखना चाहिए कि 15 अगस्त से पहले 14 अगस्त भी आता है जिस दिन 1947 में भारत को मजहब के आधार पर बांट कर ‘नाजायज मुल्क पाकिस्तान’ बनाया गया था। इसकी बुनियाद ही लाखों हिन्दुओं की लाशों पर रखी गई थी। हालांकि बाद में उस समय के पूर्वी पंजाब में मुसलमानों को भी प्रतिक्रियावश इसका शिकार होना पड़ा था। मगर इसके बावजूद हिन्दोस्तान ने पिछले 75 सालों में जो छलांग अपनी विविधता को संजोते हुए लगाई है उससे पूरी दुनिया आज हैरत में ही नहीं बल्कि इस मुल्क के लोगों के ज्ञान व उनकी मेहनत व लगन की दीवानी है।  अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की कही हुई बात आज सच साबित होती नजर आ रही है क्योंकि लन्दन के सर्वोच्च पद की लड़ाई में वर्तमान भारतीय मूल का ही एक नागरिक ही केन्द्र में बना हुआ है।

गाजियों में ‘बू’ रहेगी जब तलक ईमान की 

तख्ते लन्दन तक चलेगी तेग हिन्दोस्तान की