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मजदूरों की ठेलमठाली में फंसा देश !

लाॅकडाऊन के लागू होने के बाद देश के करोड़ों दिहाड़ी मजदूरों व कामगरों को लावारिसों की तरह छोड़ने का मतलब सिर्फ और सिर्फ समूची अर्थव्यवस्था को पलीता लगाते हुए विकास को चौपट करना माना जायेगा।

लाॅकडाऊन के लागू होने के बाद देश के करोड़ों दिहाड़ी  मजदूरों व कामगरों को लावारिसों की तरह छोड़ने का मतलब सिर्फ और सिर्फ समूची अर्थव्यवस्था को पलीता लगाते हुए विकास को चौपट करना माना जायेगा। सर्वप्रथम यह समझा जाना चाहिए कि भारतीय लोकतन्त्र में इन मजदूरों को भी ‘एक वोट’ का वह निर्णायक अधिकार दिया गया है जो किसी ‘उद्योगपति’ को मिला हुआ है। देश की सत्ता में एक मजदूर की भागीदारी भी उतनी ही है जितनी किसी रियासत के पूर्व राजा- महाराजा की। भारत के लोकतन्त्र में जनता की सरकार का मतलब गरीब आदमी की सरकार के अलावा और कुछ नहीं होता क्योंकि वह बहुसंख्या में है और जिस व्यवस्था को हमने लागू किया है उसमें ‘बहुमत’ की सरकार ही गठित होती है। इसलिए सबसे पहले यह साफ होना चाहिएं कि मजदूर किसी की दया के मोहताज नहीं हैं बल्कि लाॅकडाऊन के चलते सरकारी खजाने पर उसका हक बनता है। मजदूर की मेहनत ही कारखानों में मशीनें घुमाती है और कामगर की लगन ही इसमें हुए उत्पादन को गुणवत्ता के मानकों पर खरा उतारती है। ये मजदूर ही धरती का सीना चीर कर अनाज उगाते हैं और रेलपटरियों काे बिछा कर पूरे देश को जोड़ते हैं।
 मगर अफसोस कि आज वे ही इन रेल पटरियों पर दम तोड़ रहे हैं। यह कसूर लाॅकडाऊन का नहीं बल्कि उस मानसिकता है जो मजदूरों का फैक्टरियों में प्रयोग होने वाले ‘कच्चे माल’ की तरह देखती है। मैं कोई कम्युनिस्ट नहीं हूं जो लफ्फाजी करके गरीबों का दिल बहला रहा हूं बल्कि वह जमीनी हकीकत बयान कर रहा हूं जिसकी बदौलत भारत पिछले 72 साल में तरक्की करके यहां तक पहुंचा है। 
महात्मा गांधी का यह कहना हर युग में सार्थक रहेगा कि ‘सरकार का हर काम यह ध्यान में रख कर होना चाहिए कि इसका प्रभाव सबसे गरीब आदमी पर क्या पड़ेगा ?’ क्या गजब का खेल चल रहा है कि मजदूरों को केन्द्र में रख कर सस्ती राजनीतिक बिसात बिछाने की कोशिशें की जा रही हैं। इसे देख कर एेसा लगता है कि जैसे राजनीतिज्ञों का वैचारिक दिवाला पिट गया है। क्या मजदूर कोई मिट्टी का खिलौना हैं कि जो चाहे जैसे रख दे और जब चाहे दौड़ा दे? ये सभी इस देश के सम्मानित नागरिक हैं और वे मतदाता हैं जिनके वोट से सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। सवाल पैदा होता है कि हरियाणा ने किस तरह कोरोना पर काबू पाकर ऐसा माहौल बना दिया कि इस राज्य में प्रवासी मजदूर वापस आने की प्रार्थना कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश व बिहार के अधिकांश प्रवासी मजदूर वापस इस राज्य में आने के लिए उत्सुक हैं जबकि अन्य राज्यों से प्रवासी मजदूर अपने मूल राज्यों में जाने की गुहार लगा रहे हैं।
 सवाल यह है कि सरकारों ने इन प्रवासी मजदूरों को अपने राज्य में ही रोके रखने के लिए क्या उपाय किये? हकीकत यह है कि लाॅकडाऊन के पिछले 40 दिनों में ही हर पांच में से एक आदमी की नौकरी जा चुकी है। ये आंकड़े देश के प्रतिष्ठित संस्थान ‘सीएमआईई’ के हैं।  जाहिर है कि आज जो प्रवासी मजदूर अपने घरों को जाने को बेताब हैं कल को वे हरियाणा की तरह वापस आने को भी उतावले होंगे। जिस तरह से मजदूर पैदल ही अपने पैतृक स्थानों की ओर जाने के लिए बेजार हो रहे हैं उससे सरकारी मदद योजनाओं की पोल खुल जाती है। 
असली मुद्दा यह होना चाहिए था कि अर्थव्यवस्था के सुचारू होने तक सभी मजदूरों की आर्थिक मदद इस प्रकार की जाती कि वे अपने घर वालों को कोरोना के प्रहार से बचने की ताकीद अपने मोबाइल फोनों से करते मगर यहां तो गाड़ी उल्टी ही घुमा दी गई और राज्य सरकारें एक-दूसरे राज्य से मजदूरों को बुलाने की होड़ में लग गईं। इससे पता चलता है कि जिस ‘कल्याणकारी राज’ की परिकल्पना हमारे संविधान में की गई है उसे जमीन पर उतारने का साहस कोई नहीं कर पा रहा है। इसे गफलत का माहौल ही कह सकते हैं कि एक बाजू दूसरे बाजू से अलग घूम रहा है। 
दरअसल हमारी प्राथमिकता अब अर्थव्यवस्था को सुचारू बनाने की होनी चाहिए। केवल उन्हीं राज्यों में आंशिक आर्थिक गतिविधियां हों जहां कोरोना का प्रकोप अभी तक चालू है। इनमें गुजरात व महाराष्ट्र प्रमुख हैं। यह जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है कि वे अपने आर्थिक ढांचे का प्रबन्धन किस तरह करती हैं। आखिरकार शराब की दुकानें खोलने का फैसला भी तो लाॅकडाऊन के चलते ही किया गया! बेशक यह कहावत सही है कि ‘जान है तो जहान है’ मगर इस कहावत को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता कि ‘रुजगार है तो संसार है।’ सवाल यह है कि अगर मजदूरों को उनके घर अब लाॅकडाऊन के तीसरे चरण के अन्त में मुफ्त में भेज भी दिया जाता है तो उन्हें वापस रोजगार के लिए अपने कार्य स्थलों पर कर्जा लेकर आने को मजबूर होना पड़ सकता है? हकीकत तो यह है कि हम उलझन में फंस चुके हैं। इस उलझन को सुलझाया जा सकता था अगर लाॅकडाऊन का प्रथम चरण शुरू होते ही पूर्व वित्तमन्त्री श्री पी. चिदम्बरम की सलाह मान ली गई होती। उन्होंने यह सलाह एक कांग्रेस नेता के तौर पर नहीं बल्कि एक वित्त विशेषज्ञ के तौर पर दी थी कि देश के कुल 26 करोड़ परिवारों के आधे 13 करोड़ परिवारों के जन-धन खातों में पांच-पांच हजार रुपए जमा करा दिये जायें। आपदा के समय नेता राजनीतिक दलों के नहीं बल्कि लोगों के नेता होते हैं और सरकार किसी राजनीतिक दल की नहीं बल्कि जनता की होती है और वह भी गरीब आदमी की सरकार होती है। हरियाणा ने इसका साक्षात उदाहरण प्रस्तुत किया है।

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