भारत में मजहब या धर्म को लेकर जब-जब भी समाज में नफरत का माहौल बनाया गया है तब-तब भारत ही कमजोर हुआ है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण 1947 में देश का हुआ बंटवारा है जिसकी बुनियाद में मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना द्वारा फैलाई गई नफरत थी। जिन्ना ने यह नफरत मजहब की पहचान को लेकर ही फैलाई थी और उन सब साझा विचारों को नकार दिया था जिनसे भारत की मजबूती पिछले हजारों वर्षों से बनी हुई थी। जरा गौर कीजिये आज जिस ‘सूडान’ से हजारों भारतीय मूल के नागरिकों को सुरक्षित निकाला जा रहा है वह घोषित रूप से एक इस्लामी राष्ट्र है और यहां के भारतीयों को सकुशल स्वदेश पहुंचाने में जो देश ‘सऊदी अरब’ सबसे ज्यादा मदद कर रहा है वह तो इस्लाम का गढ़ माना जाता है। आज की पीढ़ी को अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि 1947 में भारत के मजहब की बुनियाद पर ही दो भागों में बंट जाने के बाद हमारे दूरदर्शी व महाविद्वान संविधान निर्माताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्ष या पंथ निरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया था और इसके संविधान की प्रस्तावना में ही लिख दिया था कि भारत राज्य का कोई अाधिकारिक धर्म नहीं होगा और यह एक सेकुलर या धर्म निरपेक्ष देश कहलायेगा।
जिस नफरत के बूते पर हिंसा का तांडव करा कर जिन्ना ने भारत को ही दो टुकड़ों में महात्मा गांधी जैसे महामानव व युगदृष्टा के रहते बांट डाला उस नफरत की तीक्ष्णता व तीव्रता वर्तमान समय में क्या हो सकती है, इसका अन्दाजा कोई भी सामान्य भारतीय आसानी से लगा सकता है। अतः सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश कि नफरती बयानों या हेट स्पीच पर भारत के सभी राज्यों व केन्द्र शासित राज्यों की सरकारें स्वयंमेव संज्ञान लेकर भारतीय दंड संहिता के तहत तुरन्त कार्रवाई करें और इसके दोषियों को पकड़े आज के समय की मांग है क्योंकि वर्तमान में राजनीति का जो स्तर हो गया है उसमें नफरती बोल बोलने वालों के महिमामंडन का न केवल चलन बड़ा है बल्कि एेसे लोगों को समाज का नायक बना कर भी प्रस्तुत करने की घृष्टता हो रही है।
भारत के संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि मजहब किसी भी नागरिक की निजी स्वतन्त्रता का मामला है। इसमें यदि किसी दूसरे मजहब का पालन करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध घृणा या नफरत फैलाने का प्रयास कोई भी व्यक्ति करता है तो वह सजा जाब्ता कानून के तहत मुजरिम बन जाता है और समाज में बदअमनी व देश को तोड़ने तक के अपराधों का भागी हो जाता है। भारत के चुनाव कानून जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 के तहत कोई भी राजनैतिक दल वोट पाने के लिए मजहब या धर्म का इस्तेमाल नहीं कर सकता। जिस संविधान से यह देश चलता है और लोकतान्त्रिक प्रणाली के तहत हर पांच साल बाद होने वाले चुनावों में नागरिक अपने एक वोट का इस्तेमाल का प्रयोग करके राज्य व राष्ट्रीय सरकार बनाते हैं उस वोट को स्त्री-पुरुष या हिन्दू-मुसलमान के आधार पर नहीं बांटा गया है बल्कि भारत के नागरिक होने के अधिकार पर बांटा गया है। विचार करने वाला तथ्य यह है कि यदि राजनीति मजहब के आधार पर ही होने लगे तो फिर लोकतन्त्र और इसमें मिले नागरिक अधिकारों की महत्ता क्या रह जायेगी ? नागरिक अधिकारों का विश्व सभ्यता के विकास में एक क्रम रहा है और यह सातवीं सदी से लेकर 13वीं शताब्दी तक चले धार्मिक युद्ध जिसे अंधेरा युग भी कहा जाता है, उसके बाद उभरा है।
नागरिक अधिकारों के साथ ही लोकतन्त्र का विचार भी इसके समानान्तर ही उपजा। हमें भारतीय इतिहास की परतों में विचार स्वातन्त्र्य व लोकतन्त्र या जनता के राज के बीच भेद करके देखना होगा। क्योंकि जैन दर्शन ने ही सबसे पहले स्यातवाद अर्थात कथनचित का सिद्धान्त दिया था जिसमें वितार विभिन्नता का सम्पूर्ण सम्मान था। लोकतन्त्र किसी धार्मिक दर्शन या मजहबी यकीन का प्रतिफल नहीं होता बल्कि यह व्यक्ति की वैज्ञानिक सोच का वह परिणाम होता है जिसमें प्रत्येक मजहब को मानने वाले व्यक्ति को राजसत्ता एक समान अधिकारों से नवाजती है। यह काम तभी हो सकता है जबकि समाज में सौहार्द व प्रेम का माहौल रहे क्योंकि इसके बिना कोई भी राष्ट्र न तो आर्थिक रूप से और न ही भौगोलिक रूप से मजबूत रह सकता है। यही वजह है कि भारत को हमारे संविधान निर्माताओं ने ‘थियोक्रेटिक की जगह टेरीटोरियल’ देश बनाया। यदि समाज में कोई भी व्यक्ति मजहब की आड़ लेकर दूसरे मजहब के लोगों के खिलाफ घृणा फैलाने की तकरीरें करता है तो वह दंड का भागी बनता है और राज्य की मजबूती के लिए शासन या सत्ता का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह एेसे व्यक्ति को उसके मजहब का ध्यान रखे बगैर कानून के शिकंजे में कसे। सर्वोच्च न्यायलय के विद्वान न्यायाधीशों न्यायमूर्ति के.एस. जोसेफ व बी.वी. नागरत्ना ने यही कहा है। गांव से लेकर शहर तक में रहने वाला एक आम हिन्दोस्तानी भी यह जानता है कि वह जिस जीवन शैली में रहता है उसे चलाने के लिए सभी धर्मों को मानने वाले लोग अपने-अपने कार्यों से उसकी मदद करते हैं। जब इस काम में उसका धर्म आड़े नहीं आता तो समाज में इसी की बुनियाद पर नफरत का जहर घोलने की जरूरत क्यों है?
आदित्य नारायण चोपड़ा
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