दलितों में क्रीमी लेयर

दलितों में क्रीमी लेयर
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भारत के संविधान में वही सब कुछ समाहित है जिसका वादा महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता संग्राम लड़ते हुए देश के लोगों से किया था। चाहे वह प्रत्येक वयस्क को मताधिकार का मुद्दा हो या अनुसूचित जातियों व जनजातियों के आरक्षण का हो। बाबा साहेब अम्बेडकर को भारत का संविधान लिखने के लिए भी महात्मा गांधी ने कांग्रेस के नेताओं को मजबूर किया था और सुनिश्चित किया था कि भारत के पांच हजार साल पुराने इतिहास में एेसी पुस्तक आये जिसमें हर जाति वर्ग के व्यक्ति को बराबर का दर्जा दिया जाये। अतः भारत का संविधान मानवीय इतिहास का अनूठा दस्तावेज माना जाता है। इसमें रद्दोबदल का अधिकार बेशक संसद के पास है मगर इसके आधारभूत ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। यह सनद रहनी चाहिए कि संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द बेशक 1976 में इमरजेंसी के दौर में जोड़ा गया हो मगर 1973 में ही सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानन्द भारती मुकदमे में साफ कर दिया था कि धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का अभिन्न अंग है जिसके साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है। इसी प्रकार अनुसूचित जातियों व जनजातियों को दिया गया आरक्षण संविधान के आधारभूत अंगों का एक अंश है जो हजारों साल से इन जातियों के साथ किये जा रहे भेदभाव को देखते हुए किया गया था।
दलितों के साथ, हिन्दू समाज के साथ ही समस्त भारतीय समाज में जिस प्रकार की छुआछूत व्याप्त थी उसे देखते हुए ही महात्मा गांधी ने 1930 से लेकर 1936 तक अस्पृश्यता निवारण आन्दोलन चलाया था और इस दौरान उन पर कई बार जानलेवा हमले भी हुए थे। अतः यह मामला इतना सतही नहीं है कि आजादी के 75 वर्षों बाद ही हम अनुसूचित जातियों व जनजातियों में 'क्रीमी लेयर' का मसला खड़ा करने लगें। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने पिछले 1 अगस्त को जो फैसला इस सन्दर्भ में दिया है उसमें दलितों के बीच विभिन्न उपवर्गों की बात सही है मगर इनमें क्रीमी लेयर को खोजना वस्तुगत तथ्यों के अनुकूल नहीं लगता क्योंकि हजारों सालों से हिन्दू समाज ने अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों के साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार किया है। हजारों साल के अन्याय को क्रीमी लेयर की आड़ में हम तर्कसंगत कैसे मान सकते हैं ?
सवाल यह नहीं है कि आरक्षण के चलते दलितों के कुछ उपवर्गों के लोगों की स्थिति में सुधार आया है, सवाल यह भी नहीं है कि इन उपवर्गों के लोग आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं, बल्कि असली सवाल यह है कि इन लाभार्थी समझे जाने वाले उपवर्गों के बारे में समाज की दृष्टि बदली है या नहीं? इसका उत्तर हमें नकारात्मक मिलता है। अतः एनडीए सरकार का यह कहना पूरी तरह उचित है कि दलितों में क्रीमी लेयर के प्रश्न पर वह सर्वोच्च न्यायालय से सहमत नहीं है और इसका संविधान में कोई प्रावधान नहीं देखती है। अब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी इससे मिलती-जुलती राय प्रकट की है और सरकार को आगाह किया है कि वह जल्दी ही एक विधेयक लाकर इस खतरे को दूर करे और सुनिश्चित करे कि दलितों या अनुसूचित जाति या जनजाति वर्ग में किसी प्रकार का बदलाव नहीं होगा। श्री खड़गे स्वयं अनुसूचित जाति के हैं और भलीभांति जानते हैं कि वर्तमान समाज में भी इस वर्ग के लोगों के साथ किस प्रकार का भेदभाव समाज में किया जाता है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि दक्षिण भारत के कई इलाकों में आज भी दलितों को मन्दिर में जाने से रोका जाता है और उत्तर भारत में भी उनके साथ निकृष्ठतम व्यवहार किया जाता है। आज भी दलित बस्तियां गांवों के बाहरी छोरों पर स्थित हैं यहां तक कि इनके मन्दिर तक अलग होते हैं। फिर चाहे वे किसी भी उपवर्ग के हों। समाज में सभी उपवर्गों के साथ छुआछूत अभी तक व्याप्त है। हजारों सालों से दलितों का साया पड़ जाने पर भी अपवित्र हो जाने की जिस समाज में कुरीति हो उसे क्या 75 सालों में समाप्त किया जा सकता है। अतः बहुत जरूरी है कि हम समय रहते आवश्यक विधेयक लाकर दलितों के बीच क्रीमी लेयर की अवधारणा को जड़ से समाप्त करें और आरक्षण को तब तक जारी रखें जब तक कि इस वर्ग के लोगों को शेष समाज अपने बराबर न समझे। हमारा संविधान यही कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म या सम्प्रदाय अथवा समुदाय का हो, एक समान है।
संविधान की प्रस्तावना ही न्याय, समता व बन्धुत्व के सिद्धान्त से बंधी हुई है। आरक्षण का उद्देश्य भी यही था। हम अपने आदिवासी भाइयों को जंगली मानते थे। यदि आरक्षण के चलते इनकी कुछ जातियों की स्थिति में बदलाव आया है तो हम उसे क्रीमी लेयर कैसे कह सकते हैं। भारत में हर जाति में सैकड़ों उपजातियां होती हैं। उदाहरण के लिए यदि क्षत्रियों की जातियों को ही गिना जाये तो ये हजारों में जाकर बैठेगी। इनमें भी ऊंच-नीच का भेदभाव होता है। पूरे हिन्दू समाज में ही यह बीमारी व्याप्त है। जब इकसार कोई जाति ही नहीं है तो पूरा दलित वर्ग या अनुसूचित जातियों के लोग कैसे हो सकते हैं। इस प्रकार की क्रीमी लेयर तो हमें हर जाति में मिल जायेगी मगर समाज में इनकी स्थिति क्या है, देखने वाली बात यह है। अतः दलितों के बीच क्रीमी लेयर ढूंढना व्यावहारिक तौर पर संविधान के प्रावधानों के अनुकूल कैसे कहा जा सकता है अतः संविधान संशोधन विधेयक जल्दी लाये जाने की जरूरत है।

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