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अपराधियों की राजनीति

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राजनीति में अपराधी व दागी लोगों से निपटने के लिए समय– समय पर जो मांग उठती रही है उसके बारे में राजनितिक दल कितने गंभीर हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सत्ताधारी भाजपा आैर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस में एेसे नेताओं की संख्या 16 प्रतिशत के करीब है। इतना ही नहीं राज्यों के मुख्यमंत्री पद तक पर दागी और गंभीर अपराधों के आरोपी शान से राज्यों का शासन चला रहे हैं परन्तु आर्थिक अपराधों की दास्तान अलग है और 420 ( धोखाधड़ी) करने के आरोपी भी राजनीति में जमकर आजमाइश कर रहे हैं मगर यह भी सत्य है कि राजनीति में जब से जातिवादी और साम्प्रदायिक शक्तियों ने अपनी पैठ बनाई है तभी से एेसे अपराधी तत्वों का बोलबाला राजनीति में ज्यादा हुआ है। यह हकीकत है कि 1984 के सिख दंगों के बाद से साम्प्रदायिक राजनीति को ‘नैतिक वैधता’ देने की कोशिश की गई और इसका पूरे सियासी माहौल पर जो प्रभाव पड़ा उसने स्वतन्त्र भारत की चुनावी राजनीति की बुनावट को उधेड़ कर रख दिया और इसके बाद इसी आधार पर विभिन्न राजनीतिक दलों ने जहां एक तरफ अपनी चुनावी जमीन को उपजाऊ बनाने के प्रयास शुरू किए वहीं इसके समानान्तर जातिवादी दलों ने जातिगत आधार पर अपनी अस्मिता को कायम रखने के लिए जातिमूलक ‘राबिनहुड’ उतारने शुरू कर दिए। गौर से देखा जाए तो जातिवादी और साम्प्रदायिक ताकतें एक-दूसरे की सम्पूरक बनकर भारतीय राजनीति में उतरीं और इन्होंने उन सभी उदार तथा जनाभिमुखी ताकतों को हाशिये पर डाल दिया जो इंसानी हुकूकों के लिए बिना किसी भेदभाव के सामाजिक समता की लड़ाई लड़ रही थीं।

अतः यह समझना बहुत जरूरी है कि 1988 में उग्र हुए श्रीराम मन्दिर आन्दोलन की काट के लिए 1989 में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग का कार्ड क्यों चला था? इसे भाजपा के ‘कमंडल’ के विरुद्ध ‘मंडल’ का कार्ड कहा गया। बिना शक यह 1984 के बाद केवल पांच वर्षों के भीतर घटा घटनाक्रम ही था मगर इसने भारतीय राजनीति की ‘परिभाषा और परिवार’ को बदल कर रख डाला और एक जमाने की ‘दस्यु सुन्दरी’ कही जाने वाली मरहूम फूलन देवी तक संसद में लोगों द्वारा ही चुनकर भेज दी गई मगर यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ और उत्तर से लेकर पश्चिम तक के कई राज्याें में राजनीति के ये प्रयोग सफल होते गए। चाहे उत्तर प्रदेश हो या बिहार अथवा गुजरात अथवा मध्यप्रदेश या राजस्थान अथवा महाराष्ट्र, सभी में मंडल और कमंडल के आपसी युद्ध ने राजनीति में अपराधियों का महिमामंडन करना शुरू कर दिया। इसमें शीर्ष स्थान महाराष्ट्र का रहा जहां के शिवसेना के नेता स्व. बाला साहेब ठाकरे की संविधान को सीधे चुनौती देने और भारतीय सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने की हिमाकत को नवाजा गया और प्रतिरोध में कुछ मुस्लिम संगठनों की तरफ से एेसे ही बदगुमां लीडरों को उतारने की कोशिश की गई। यह सिवाय अपराधीकरण के महिमामंडन के अलावा और कुछ नहीं था। एेसे तत्वों ने बड़े इत्मीनान से अपने-अपने इलाके बांट कर पूरी भारतीय राजनीति को अपराधों के दबदबे में लाने की कोशिश की। यही वजह है कि केन्द्र से लेकर विभिन्न राज्यों तक में एेसे नेताओं की भरमार है जो चुनावी राजनीति को एेसे कुत्सित समीकरण के दायरे से बाहर आने ही नहीं देना चाहते हैं मगर सत्ता की धमक एेसे राजनेताओं के साथ लग जाने की वजह से पूरी लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती।

दूसरी तरफ राजनीतिक दलों द्वारा केवल चुनावी विजय के लिए सभी प्रकार के समझौते करने की नीति ने आम जनता को भी एेसे मुद्दों के प्रति संवेदनहीन बनाने में अहम भूमिका निभाई वरना क्या वजह है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के आजम खां और वर्तमान मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ में एक समय में एेसा वाकयुद्ध हुआ था जिससे दोनों ही सम्प्रदायों के गुंडा तत्व कहे जाने वाले लोगों को नैतिक बल मिला था? इन दोनों ही नेताओं पर जमकर आपराधिक मुकद्दमे चल रहे हैं। दरअसल राजनीति में फैली ‘कीचड़ को कीचड़’ से साफ करने का जब प्रयास किया जाता है तो सर्वत्र कीचड़ फैलने के दूसरा परिणाम नहीं निकल सकता। कर्नाटक में भाजपा कोयले की खान से एेसे हीरे को ढूंढ कर लाई है जिन्होंने अपने मुख्यमन्त्रित्व काल में अपने पूरे परिवार को ही सत्ता के लाभों की गंगाजली पिलाने का पुख्ता इन्तजाम बांधा था। इनका नाम बी.एस. येदियुरप्पा है लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि राजनीति को अपराधमुक्त करने के लिए प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने एक सुझाव काफी पहले दिया था कि एेसे सभी आरोपियों की जांच एक वर्ष के भीतर हो जानी चाहिए मगर इसके लिए सबसे पहला कदम सत्ताधारी दल को ही उठाना चाहिए और अपनी पार्टी से सभी एेसे राजनीतिज्ञों को कान से पकड़ कर बाहर करना चाहिए जिनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इससे दूसरे दलों को भी एेसा ही करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। श्री मोदी की इस बारे में पवित्र मंशा को किसी भी तरह राजनीतिक दलदल में नहीं फंसाया जाना चाहिए। चुनाव आयोग की भूमिका भी इस बारे में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि चुनावी प्रत्याशियों की पात्रता के बारे में अंतिम फौरी फैसला उसका ही मान्य होता है मगर संवैधानिक प्रक्रिया पर उसका बस नहीं है। अतः सर्वोच्च न्यायालय में इस बाबत दायर अपील पर विद्वान न्यायाधीशों का यह कहना कि केन्द्र सरकार तेजी से फैसला करने वाली अदालतों के निर्माण के लिए आवश्यक धन उपलब्ध कराए जिनमें राजनीतिज्ञों पर लगे आरोपों का फैसला जल्दी हो सके, विचारणीय मुद्दा है। क्योंकि चुनाव आयोग ने यह दलील जल्दबाजी में दी है कि गंभीर अपराधों में संलग्न राजनीतिज्ञों पर ताउम्र चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए।

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