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यूरिया का संकट

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मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की सरकारें बनते ही यूरिया का संकट पैदा हो गया है। यूरिया की खरीद के लिए किसानों की लम्बी-लम्बी कतारें लग गईं। यूरिया की कालाबाजारी हुई। किसानों को 266 रुपए की बोरी खरीदने के लिए 350 रुपए चुकाने पड़े। यूरिया संकट से किसानों का आक्रोश बढ़ गया। राजस्थान के कई जिलों में भी यूरिया की कमी देखी गई। देश में दो लाख 5 हजार टन उत्पादन प्रतिवर्ष होता है। 1.65 लाख टन आयात किया जाता है। देश की कंपनियां उत्पादित यूरिया सैंट्रल पूल को देती हैं। सैंट्रल पूल से मार्कफैड के गोदामों में जाता है। वहां से प्राथमिक सहकारी सोसायटी को भेजा जाता है। 80 फीसदी यूरिया सोसायटी के जरिए आैर 20 प्रतिशत यूरिया व्यापारियों के जरिए किसानों काे मिलता है।

देश में यूरिया की कोई कमी नहीं फिर भी ऐसे हालात क्यों पैदा हुए। कांग्रेस आैर भाजपा में इस संकट पर वाकयुद्ध भी तेज है। कांग्रेस ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया है कि वह यूरिया आवंटन में कमी कर राजनीति कर रही है तो भाजपा कह रही है कि केन्द्र सरकार ने मध्यप्रदेश काे मांग से ज्यादा यूरिया दिया है। जब यूरिया मध्यप्रदेश को ज्यादा दिया गया तो सहकारी समितियों से यूरिया कहां गायब हो गया। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने यूरिया की कमी को लेकर केन्द्र सरकार को फोन करके जल्द यूरिया मुुहैया कराने की बात की तो इस पर पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज का कहना है कि राज्य को 15 दिसम्बर से पहले ही चार लाख मीट्रिक टन यूरिया मुहैया कराई जा चुकी है, लिहाजा इसे किसानों के बीच सही तरीके से बांटना चाहिए।

केन्द्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्री सदानंद गौड़ा का कहना है कि उनका मंत्रालय राज्य के मुख्य सचिवों से प्रतिदिन सम्पर्क में है और कहीं भी खाद की कोई कमी नहीं है। ऐसी मीडिया रिपोर्टें भी सामने आई हैं कि मध्यप्रदेश के हिस्से का यूरिया राजस्थान, हरियाणा आैर पंजाब में भिजवा दिया गया। मध्यप्रदेश में दिसम्बर में चार लाख टन यूरिया की डिमांड थी लेकिन सवा लाख टन ही यूरिया भेजा गया। अब मध्यप्रदेश में केन्द्र सरकार 5 रैक यूरिया देने को तैयार हुई और कुछ दिनों में 85 रैक भी पहुंच जाएंगे। उम्मीद है कि मध्यप्रदेश में यूरिया फिर से किसानों को उपलब्ध होगा। राजस्थान के कुछ जिलों में भी हालात सामान्य हो जाएंगे।

अब पूरे देश में नीम कोटेड यूरिया है। इससे यूरिया की कालाबाजारी रुक गई। नाइट्रोजन की डोज यूरिया का पहले गैर कृ​िष कार्यों के लिए काफी इस्तेमाल होता था, जिसके चलते किसान इंतजार करते रह जाते थे। देश के कई इलाकों में गेहूं और धान आदि की फसल के दौरान किल्लत हो जाती थी, लेकिन नीम का लेप होने से वह सिर्फ खेती के कार्यों में इस्तेमाल लायक ही बची है। यूरिया के अंधाधुंध इस्तेमाल को सीमित करने और कालाबाजारी रोकने के लिए वर्ष 2015 के मई महीने से सरकार ने सम्पूर्ण यूरिया उत्पादन को नीम लेपित करना अनिवार्य कर दिया था। नीम को अच्छा कीटनाशक आैर बैक्टीरिया रोधी भी माना जाता है। इसके इस्तेमाल से फसलों में रोग कम लगते हैं तो कीड़ों का प्रकोप भी कम होता है।

राजस्थान के ज्यादातर हिस्सों में गेहूं की बुआई हो चुकी है और फसल को खाद की जरूरत पड़ रही है। खाद की कमी को लेकर किसान धरने-प्रदर्शन भी कर रहे हैं। किसान सुबह से कंबल ओढ़ कर यूरिया वितरण केंद्रों पर लाइन लगाकर खड़े हो जाते हैं। हालत यह है कि पुलिस की निगरानी में किसानों को आधार कार्ड पर एक या दो कट्टे वितरित किये जा रहे हैं। किसानों का कहना है कि रबी की फसलों में सिंचाई के साथ यूरिया खाद की जरूरत होती है। गेहूं और लहसुन का उत्पादन बढ़ाने के लिए भी यूरिया की जरूरत होती है लेकिन यूरिया की कमी से फसल का उत्पादन घट सकता है। किसानों को इस बार लहसुन का अच्छा भाव नहीं मिला, इसके चलते लहसुन की बुआई को छोड़ किसान गेहूं की बुआई का रुख कर चुके हैं, जिससे यूरिया की मांग में इजाफा हुआ है। एक तरफ राज्य सरकारें किसानों का ऋण माफ कर रही हैं, किसानों के मुद्दे पर जमकर सियासत की जा रही है, दूसरी तरफ किसानों को खाद भी नहीं मिल पा रही है।

भारत के विकास के लिए किसानाें की समस्याओं का समाधान किया जाना बहुत जरूरी है। राज्य सरकारों को चाहिए कि किसानों को यूरिया उपलब्ध कराने का हरसंभव उपाय करें और केन्द्र सरकार का भी यह दायित्व बनता है कि जिन राज्यों में यूरिया की कमी है, वहां यूरिया की खेप भेजे। इस बात की जांच होनी चाहिए कि सहकारी समितियों से यूरिया कहां गायब हुआ? यूरिया के आवंटन पर भी निगरानी रखी जानी चाहिए। किसानों के मुद्दे पर सियासत होनी ही नहीं चाहिए। यूरिया आपू​िर्त की स्थिति पूरे देश में आरामदायक है तो फिर संकट क्यों खड़ा हुआ। राज्य सरकारों को यूरिया की कालाबाजारी में लिप्त तत्वों पर भी नज़र रखनी होगी।

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