लंबे अर्से से यही देखने में आता है कि राजनीति में आने के बाद कुछ लोग समझते हैं कि वे कुछ भी कर सकते हैं और अपराधों की दुनिया में लिप्त चाहे वे लूट-खसोट कर दौलत के अंबार लगाएं, लोगों की जमीनों पर जबरन कब्जे करें, बलात्कार करें, हत्याएं करें या करवाएं अथवा कोई अन्य अपराध करें, उन्हें कोई भी कुछ भी नहीं कह सकता, उनका कानून कुछ बिगाड़ नहीं सकता। जैसा कि माफिया डॉन शहाबुद्दीन, अतीक, मुख्तार, शाहजहां शेख आदि के मामलों में देखने में आया है। न जाने राजनीति में कौन सा चुंबक है कि चाहे वह कोई डॉक्टर हो, बड़े अधिकारी या कोई फिल्मी सेलेब्रिटी हो, सभी सियासत की चकाचौंध में लिप्त हो जाना चाहते हैं। वास्तव में जनमानस सेवा का यह कार्य स्वयं सेवा और बेतहाशा राजनीतिक लाभ और रोटियां सेंकने का धंधा बन गया है। यादि हर राजनेता मात्र 20-30 प्रतिशत भी मोदी जैसा बन जाए तो भारत के भाग्य ही बदल जाए।
जब मुस्लिम बाहुबली, पहले बिहार के शहाबुद्दीन, फिर उत्तर प्रदेश के अतीक बंधु और अब मुख्तार अंसारी, तीनों की मौत जिस प्रकार से रमजान के महीने में पुलिस के संरक्षण या अस्पताल में हुई है, बावजूद इसके कि इन तीनों पर दर्जनों हत्या, डकैती, फिरौती, ज़मीन माफियागीरी आदि के मुकदमे दर्ज थे, जिस प्रकार से इनकी मौत हुई, वह बकौल मुस्लिम तबके, शक की सूई के दायरे में आता है, क्योंकि बहुत से मुसलमान और विशेष रूप से मुख्तार के भाई अफजाल इसे, जेल प्रशासन के होते क्रूर हत्याएं मानते हैं कि मुख्तार को ज़हर दिया गया है, जैसा कि उन्होंने यह बात अपने बेटे उमर को बताई थी। मुस्लिम समाज की भी लगभग यही सोच है कि मुख्तार की हत्या धीमा ज़हर दिए जाने पर ही हुई है। भले ही सरकारी रिपोर्टें कुछ भी कहें, भीड़ तंत्र की अपनी अलग ही सोच होती है। कोई कुछ भी कहे, मगर विश्वास इन्हीं रिपोर्टों पर किया जाता है, क्योंकि उनसे बाहर कोई नहीं जा सकता क्योंकि इन पर सरकारी अफसरों के हस्ताक्षर और ठप्पे होते हैं और इनको नकारने का अर्थ है, सरकारी तंत्र को झुठलाना।
मुख्तार की अंतिम शव यात्रा में कुछ अनहोनी देखने को मिली कि उनकी मैय्यत को कांधा देने व मिट्टी देने हजारों लोग उनके मुहम्मदाबाद पैतृक क़ब्रिस्तान काली बाग के रास्ते में पहुंच गए। हालांकि रात से ही मुख्तार अब्बास अंसारी की दिल के दौरे से हुई मृत्यु की खबर सुनते ही बावजूद इसके कि रमज़ान का पाक महीना चल रहा है, हज़ारों लोग अंसारी के "फाटक" पर पहुंच गए जिनसे मुख्तार के बड़े भाई, सिबगतुल्लाह अंसारी ने वापिस जाने को कहा, मगर वे माने नहीं। दिन होते-होते मुख्तार के हजारों चाहने वाले उनके आखिरी सफ़र पर कांधा देने के लिए हाज़िर हो गए। एक तो रमज़ान का दिन, उस पर रोज़ा और फिर धूप, बावजूद इन तमाम बातों के, लोगों का एक सैलाब उमड़ा पड़ा था।
गाजीपुर के एक हमारे प्रोफेसर मित्र ने बावजूद इसके कि मुख्तार के ऊपर नाना प्रकार के 66 केस लगे थे, 8 केसों के चलते उनको जेल में डाला गया था और आने वाले दिनों में हत्या, फिरौती आदि के और भी केस खुलते और उनको शायद तमाम ज़िंदगी जेल में काटनी पड़ती, उनकी प्रशंसा करते हुए बोले कि वह व्यक्ति लोगों का मसीहा था। यही कारण है कि मिट्टी देने आए लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित करने से रोकने में प्रशासन असमर्थ रहा। हालांकि इस संबंध में अफजाल अंसारी की डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट से बहस भी हो गई, जिनका कहना था कि धारा 144 लगी हुई है और केवल परिवार के लोग ही मिट्टी देने जा सकते हैं, जिस पर अफजाल ने कहा कि ऐसा कोई क़ानून नहीं जो श्रद्धालुओं को मिट्टी देने से रोके अथवा उन पर पाबंदी लगाए। इससे ये बात स्थापित हो गई कि भले ही मुख्तार एक जघन्य अपराधी था, उसका बड़ा दबदबा था और गाज़ीपुर के लोगों में उसकी छवि मसीहा और रॉबिन हुड समान थी। यह कुछ इसी प्रकार से था जैसे कुख्यात सियासी अपराधी शहाबुद्दीन अपने चाहने वालों के लिए मसीहा और रॉबिन हुड थे। यहां इन बदनाम जमानत राजनेताओं के गुनाह धोकर उन्हें सफ़ेद पोश बना कर पेश करने का कोई यत्न नहीं है, बल्कि तस्वीर का दूसरा रुख दिखाने का प्रयास है, क्योंकि अपराधी चाहे कितना भी बड़ा रॉबिन हुड क्यों न हो, क़ानून के लंबे हाथों से बच नहीं सकता।
रही बात सीवान (बिहार) के बाहुबली शहाबुद्दीन की तो कोविड-19 संक्रमण के कारण निधन हो गया। मृत्यु से पूर्व वह जेल में ही कोरोना वायरस के संक्रमण की चपेट में आया था और दिल्ली स्थित दीन दयाल उपाध्याय अस्पाल में इलाज चल रहा था। राष्ट्रीय जनता दल के पूर्व नेता शहाबुद्दीन को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 2018 में बिहार की सीवान जेल से तिहाड़ जेल लाया गया था, क्योंकि उसके विरुद्ध भी कई आपराधिक मुकदमे थे। एक मित्र, जो पेशे से वकील थे, उन्होंने शहाबुद्दीन की मृत्यु पर रोष प्रकट करते हुए कहा कि वह एक दयावान व्यक्ति थे क्योंकि जब एक बार वह ट्रेन से फर्स्ट क्लास डिब्बे में यात्रा कर रहे थे और उनकी एक सीट कम थी तो शहाबुद्दीन के पास एक अतिरिक्त सीट थी, जिसे उन्होंने बिना कुछ लिए उनको दे दिया।
जहां तक लैंड माफिया अतीक और उनके भाई अशरफ की बात है तो उसके बारे में कुछ भी कहना काम है, क्योंकि लोगों के सामने ही और पुलिस के होते हुए हत्यारों ने गोलियों से भून दिया और पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। अतीक के क्षेत्र के लोगों का कहना है कि कई बार के विधायक, अतीक और उनके भाई को जिस प्रकार से अस्पताल ले जाते समय मौत के घाट उतार दिया गया, प्रशासन और पुलिस को शक के दायरे में लाता है। चाहे वह शाहबुद्दीन हो, अतीक व उनका भाई हो या मुख्तार अंसारी हो, तीनों को डर था कि न्यायिक हिरासत में वे सुरक्षित नहीं हैं और उनके साथ कुछ भी अनहोनी हो सकती है, मगर तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि कोर्ट ने मुख्तार को जेल में ज़हर दिए जाने के बारे में उनके पुत्र उमर द्वारा लगाए गए आरोप पर इंक्वायरी का आदेश दिया है।
मुख्तार के कुछ रिश्तेदारों का मानना है कि पूर्ण प्रशासन पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से लेकर न्यायालय तक इंक्वायरी कराए जाने तक सब मिले हुए हैं और कोई भी ठीक रिपोर्ट नहीं देने वाला। वास्तव में ऐसा नहीं सोचना चाहिए, मगर कई लोगों का यह शगल होता है कि राजनीती से अधिकतम रेवड़ियां कमाने के लिए वे किसी भी दूषित विचाराधारा से चिपट जाते हैं। कहीं न कहीं प्रशासन पर भरोसा करना ही पड़ता है, और हमें अंत में सब कुछ भगवान पर छोड़ देना चाहिए।
– फ़िरोज़ बख्त अहमद