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कोरोना पर संसद में बहस

कोरोना संक्रमण के कारण सीमित संसदीय उदार प्रक्रियाओं के तहत चल रहे संसद के चालू अधिवेशन में जिस तरह कोरोना पर ही बहस की शुरूआत हुई है

कोरोना संक्रमण के कारण सीमित संसदीय उदार प्रक्रियाओं के तहत चल रहे संसद के चालू अधिवेशन में जिस तरह कोरोना पर ही बहस की शुरूआत हुई है उसका देशवासियों को बेसब्री से इन्तजार था क्योंकि इस संक्रमण के विस्तार से लेकर इसे नियन्त्रण में करने के लिए किये गये उपायों के बारे में  जिस तरह का भ्रम का वातावरण पूरे देश में है उस पर से पर्दा संसद के माध्यम से ही उठ सकता था। यह संयोग ही कहा जायेगा कि संसद का पिछला सत्र मार्च महीने में कोरोना की वजह से ही समाप्त हुआ था और जब संसद को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किया गया था तो पूरे देश में मात्र छह सौ के लगभग कोरोना मरीज थे जिनकी संख्या अब बढ़कर पचास लाख के करीब हो चुकी है। कोरोना ने जो सबसे बड़ा सबक इस देश को सिखाया है वह यह है कि इसकी सार्वजनिक चिकित्सा प्रणाली बहुत कमजोर हालत में है जिसे मजबूत बनाये बिना हम भविष्य की चुनौतियों का सामना नहीं कर सकते। कोरोना से मुकाबला करने के लिए सरकारी अस्पतालों में केवल 30 प्रतिशत सुविधाएं ही थीं जबकि निजी क्षेत्र में 70 प्रतिशत। इसका मतलब यही निकलता है कि समाज के 70 प्रतिशत से अधिक गरीब व्यक्तियों के लिए सरकारी सुविधाएं ही अन्ततः काम आयीं जबकि 30 प्रतिशत अपेक्षाकृत सम्पन्न वर्ग के लिए 70 प्रतिशत निजी सुविधाएं मौजूद थीं।
 निजी अस्पतालों में मोटी रकम खर्च करके इलाज कराने वाले लोगों का आर्थिक शोषण भी निजी अस्पतालों में इस प्रकार किया गया कि एक मरीज से 90 लाख रुपए तक की फीस वसूली गई। यह तथ्य राज्यसभा में ही चर्चा के दौरान सामने आया।  दूसरी तरफ हकीकत भी उजागर हुई कि कोरोना को नियन्त्रित करने के लिए ‘लाकडाऊन’ का उपाय अपेक्षानुरूप अवरोधक साबित नहीं हो पाया। तीसरा सबसे बड़ा तथ्य यह उजागर हुआ कि राज्य सरकारों ने अपने-अपने स्तर पर इसे नियन्त्रित करने के लिए उपाय खोजे। इनमें केरल की सरकार सफलतम साबित हुई जिसके प्रयासों को विश्व स्वास्थ्य संगठन तक ने सराहा।  
सवाल यह है कि एक ही देश में केरल राज्य के उदाहरण का अनुकरण करने में हम क्यों हिकिचाये? भारत का संघीय ढांचा इतना मजबूत है कि राज्य सरकारें आपस में संकट काल के दौरान सहयोग करके उसे समाप्त करने के सफल उपाय करती रही हैं। कोरोना की वजह से केन्द्र-राज्य सम्बन्ध भी एक मुद्दे के रूप में उभर कर आये खास कर इस संक्रमण के देश व्यापी लाकडाऊन की वजह से अर्थव्यवस्था जिस तरह पटरी से उतरी उससे राज्यों की अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा गई और इनमें से कुछ के पास तो अपने कर्मचारियों को वेतन तक देने के पैसे नहीं रहे। एेसी राज्य सरकारों में भाजपा शासित राज्य सरकारें भी थीं और गैर भाजपाई सरकारें भी।  वर्तमान में जीएसटी मुआवजा राशि को लेकर राज्य सरकारें जिस तरह केन्द्र से गुहार लगा रही हैं यह इसी का प्रमाण माना जा सकता है, परन्तु इस मुद्दे पर केन्द्र व राज्यों के टकराव को टालना इसलिए आवश्यक है कि  यह प्रश्न समूची राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है जो स्वयं में बहुत दबाव में हैं इसके कारण जिस तरह रोजगारों की हानि हुई है वह भारत जैसे तेजी से विकास करते देश के लिए शुभ संकेत नहीं है। जरूरत इस बात की है कि संसद इस गंभीर विषय पर केवल बहस या चर्चा करके ही चुप न हो जाये बल्कि संकट से उबरने का सर्वमान्य हल भी खोजे।
 बेशक विपक्ष असफलता के लिए सरकार पर आरोप लगा सकता है मगर हकीकत यही रहेगी कि कोरोना संक्रमण एक दैवीय आपदा के रूप में ही देखी जायेगी। अतः बहुत जरूरी है कि सत्ता पक्ष व विपक्ष के विद्वान सांसद बैठ कर इस संकट पर पार पाने के उपाय खोजें। लोकतन्त्र में चर्चा और बहुविचारों के समन्वय का बहुत महत्व होता है। संसद का मुख्य कार्य भी यही होता है अतः यह देखा जाना जरूरी है कि कोरोना ने देश के गरीब वर्ग के जीवन को किस हद तक प्रभावित किया है और यह भी जानना बहुत जरूरी है कि इस संक्रमण की वजह से पूरे देश में मची उथल-पुथल ने कितने प्रवासी श्रमिकों को निगला क्योंकि जो लोग मरे हैं वे इसी देश के विकास व निर्माण कार्यों में व्यस्त थे। उनका जीवन किसी सम्पन्न व्यक्ति के जीवन से कम करके नहीं देखा जा सकता। हमें हमेशा यह ध्यान रखना होगा कि भारत के विकास में मजदूरों और उनके श्रम का विशेष महत्व रहा है।  हमें पूंजी और श्रम के अन्तःसमीकरण को समझने के लिए समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया के उन शब्दों पर ध्यान देना होगा जो उन्होंने किसी दस्तकार या कारीगर के बारे में कहे थे। डा. लोहिया मानते थे कि दस्तकार अपने साथ पीढि़यों के हुनर की  पूंजी लेकर चलता है जिसका मूल्यांकन बाजार की व्यवस्था पूंजी के प्रभुत्व की वजह से होने नहीं देती। आजकल के सन्दर्भों में शहरी सम्पन्न जीवन को सुविधापूर्ण व सुखमय बनाने की कुंज्जी इन्हीं नवोदित कारीगरों व श्रमिकों के हाथ में होती है अतः उनका जीवन भी हमारे लिए कम मूल्यवान नहीं है। संसद की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उन लोगों के जख्मों पर मरहम लगाये जिन्हें कोरोना ने बर्बाद कर डाला है।  यह बर्बादी कई आयामों में हुई है। इसका सबसे बड़ा आयाम काम-धंधों का चौपट हो जाना और आम आदमी की क्रय क्षमता न्यूनतम हो जाना है। इसमें सुधार करने के लिए संसद के माध्यम से ही एेसा सुझाव आना चाहिए जिससे इस देश के लोगों को लगे कि संसद में भेजे गये उनके प्रतिनिधि अपना काम ईमानदारी से कर रहे हैं। यह ईमानदारी सत्ता व विपक्ष दोनों के ही तरफ के सांसदों को दिखानी होगी क्योंकि दोनों ही पक्षों के सांसद आम जनता के वोटों से चुन कर आते हैं। मगर इसके साथ ही कोरोना से घबराने की भी जरूरत नहीं है क्योंकि इस महामारी को भारत के ही औषधीय तरीके पछाड़ रहे हैं और 100 में से 90 लोगों को भला-चंगा कर रहे हैं। 

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