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असली मुद्दों पर बहस जारी रहे

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काफी लम्बे अर्से बाद देश में महत्वपूर्ण मुद्दों पर सकारात्मक बहस छिड़ी है। इसका प्रमाण यह है कि विजयदशमी पर अपने सम्बोधन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत को भी अर्थव्यवस्था की समस्या का संज्ञान लेना पड़ा है। किसी भी राष्ट्र का निर्माण इसके लोगों के सर्वांगीण विकास से ही होता है। यह विकास एकतरफा नहीं हो सकता। चरित्र निर्माण का सीधा सम्बन्ध आर्थिक स्वावलम्बन और मजबूती से होता है। भारत की संस्कृति बिना शक धर्म परायणता के साये में फली-फूली है मगर इसकी भी सबसे बड़ी शर्त यही रही है कि ‘भूखे भजन न होय गोपाला।’ अतः स्पष्ट है कि अर्थ अर्थात धन के बिना ईश्वर भक्ति भी संभव नहीं है, इसलिए देश की आम जनता को आर्थिक रूप से आगे बढ़ाने के मुद्दे पर अगर बहस छिड़ी है तो वह अन्य अनुपयोगी और थोथे मुद्दों के बीच खोनी नहीं चाहिए और इसे सही दिशा देने के लिए कारगर उपाय किये जाने चाहिएं। यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि हम विचार विभिन्नता को सीमित करने के उपायों के बारे में एेसे तरीकों का इस्तेमाल करने लगते हैं जिनका किसी भी सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं हो सकता।

हम एेसे विषयों पर बहस में उलझ जाते हैं जिनका आम आदमी के जीवन से सरोकार उसके सम्पूर्ण विकास से न होकर सरसरी तौर पर अपनी पहचान को दूसरों पर गालिब करने से होता है। एेसा हमने गौरक्षा का बीड़ा उठाये हुए लोगों के बारे में देखा। स्वयं को गौरक्षक कहने वाले इन लोगों ने समाज के उन तबकों को अपने आतंक से डराने की कोशिश की जो पशुओं के व्यापार में लगे हुए थे। इन लोगों का चरित्र किसी सड़क छाप गुंडों से अलग रखकर देखना बुद्धिमानी नहीं होगी। इन गौरक्षकों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तहस-नहस करने में अपनी शेखी समझी। इसी प्रकार हम जब वन्दे मातरम् की बहस में उलझ जाते हैं तो खुद की पहचान दूसरे व्यक्ति से बेहतर बनाने की कार्रवाई में संलिप्त हो जाते हैं मगर यह केवल कोरा भ्रम है, क्योंकि वन्दे मातरम् कहने से कोई भी व्यक्ति बड़ा नहीं हो सकता और ‘जय हिन्द’ या ‘हिन्दोस्तान जिन्दाबाद’ कहने से किसी दूसरे व्यक्ति का कद छोटा नहीं हो सकता। क्या कभी किसी ने यह सोचा है कि समाज में कारोबार करने वाले दो समुदायों के बीच सम्बन्ध किस प्रकार विकसित होते हैं और उनमें आपसी रसूख का मापदंड क्या होता है?

व्यापार में मजहब के कोई मायने नहीं होते। जब भारत में मीट का कोई कारोबारी हिन्दू होता है तो उनके लिए मवेशियों की व्यवस्था करने वाला मुसलमान छोटा व्यापारी सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है। वह वन्दे मातरम् बोले या जय हिन्द कहे उससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि दोनों का लक्ष्य मुद्रा अर्थात धन कमाना होता है और यही धन उनकी सामाजिक हैसियत का फैसला करता है। अतः यह किसी भी तरह से सिद्ध किया जा सकता है कि आर्थिक सम्बन्ध ही सामाजिक सम्बन्धों का व्यापक सन्दर्भों में निर्धारण करते हैं, परन्तु अपवाद भी होते हैं। जब 1947 में भारत का बंटवारा हुआ तो ये आर्थिक सम्बन्ध जमींदोज हो गये और धर्म के आधार पर लोगों का ही बंटवारा नहीं हो गया, बल्कि अलग देश तक बन गया, किन्तु इसके विपरीत हकीकत यह है कि भारत और पाकिस्तान पिछले 70 साल से कई युद्ध झेल चुके हैं मगर दोनों देशों के बीच कारोबारी सम्बन्ध यदा- कदा टूट कर लगातार सामान्य ही बने हुए हैं। यहां तक हुआ कि जब 1999 में हम कारगिल युद्ध लड़ रहे थे तो भारत में पाकिस्तान से आयातित चीनी खाई जा रही थी। सीमा पर दोनों देशों के बीच जमकर फौजी कार्रवाई होती रहती है मगर इसके समानान्तर कारोबार भी चल रहा है। इसका मतलब यही निकलता है कि अर्थ अर्थात धन जिन्दगी की कड़वी हकीकत है जिसके बिना जीवन की गाड़ी आगे नहीं खिंच सकती। राष्ट्रीय एकता बनाये रखने में भी अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

किसी भी राज्य के आय स्रोत सूख जाने पर केन्द्र की सरकार उसे इसीलिए मदद करती है जिससे उसकी अर्थव्यवस्था बिगड़ न जाए। इसी अर्थव्यवस्था को लगातार समृद्धिशाली बनाये रखने के उपायों पर हमें सतत् चिन्तन करते रहना चाहिए जिससे प्रत्येक भारतवासी सम्पन्न बन सके। भारत के आजाद होने पर हमने जो नीतियां बनाईं वे इसी पक्ष को मजबूत करने की गरज से बनाई गईं थीं, तभी तो हम आज इस स्थिति में आ सके कि दुनिया के देश भारत को एक बहुत बड़े बाजार के रूप में देखते हैं। असली सवाल यह है कि यह ताकत हमें किस प्रकार हासिल हुई? जाहिर है कि आजादी के बाद जो आर्थिक नीतियां इस देश में चलीं, उन्हीं की बदौलत इस देश की उन्नति इस हद तक हुई कि यह दुनिया का सबसे बड़ा मध्यम आय वर्ग का उपभोक्ता बाजार बन गया। यदि एेसा न होता तो किस बूते पर हम आर्थिक उदारीकरण के नाम पर भारत के बाजारों को दुनिया की बड़ी कम्पनियों के लिए खोल सकते थे। जाहिर है कि हम में तकनीकी से लेकर पूंजीगत व प्रौद्योगिकी के स्तर तक वह आत्मविश्वास आ चुका था जिसके चलते दुनिया से प्रतियोगिता लेने की हिम्मत हम में आई। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में हमें इसी हिम्मत का मुजाहिरा नये वातावरण में करना है।

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