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किसानों की कर्जमाफी और खेती

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वर्ष 1958-59 का स्वयं बजट पेश करते हुए जब भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने यह कहा था कि ‘सब कुछ इन्तजार कर सकता है मगर किसानों से ताल्लुक रखने वाला कृषि क्षेत्र बिल्कुल इन्तजार नहीं कर सकता क्योंकि भारत की समृद्धि की यह प्रथम सीढ़ी है।’ इसका मतलब यही था कि आने वाली पीढि़यां यह गांठ बांध लें कि भारत की तरक्की का रास्ता गांवों से ही होकर गुजरेगा और इसी पैमाने पर इस मुल्क का विकास मापा जायेगा।

इसलिए मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में सत्ता की कुर्सी संभालने के बाद जिस प्रकार इन राज्यों के नये मुख्यमन्त्री क्रमशः श्री कमलनाथ और भूपेश बघेल ने किसानों का ऋण माफ किया है उसे देशभर में फैले किसान रोष की पृष्ठभूमि से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता। बेशक इन राज्यों में हुए चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस पार्टी की तरफ से कहा गया था कि सत्ता में आने पर वह दस दिनों के भीतर किसानों का ऋण माफ करेगी मगर जिस तरह कुर्सी पर बैठने के बाद कमलनाथ ने एक घंटे के भीतर सबसे पहले किसानों की ऋण माफी की फाइल पर दस्तखत किये उससे यही पता चलता है कि मुल्क की राजनीति का मिजाज बदल रहा है और मतदाता राजनैतिक दलों के घोषणापत्रों को संजीदगी से ले रहा है। चुनाव में न जाने कितने मुद्दे राजनैतिक दल एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए उछालते हैं मगर कुछ विषय ऐसे होते हैं जिनकी संजीदगी का उन्हें पक्का इल्म होता है।

कुछ वादे ऐसे होते हैं जिनसे राजनीति की दिशा तक बदलती है और सार्वजनिक बहसों के रुख मुड़ जाते हैं। लोकतन्त्र में सबसे महत्वपूर्ण यह होता है कि सार्वजनिक स्तर पर कौन सी पार्टी अपने उठाये हुए मुद्दों पर आम जनता का ध्यान खींचने में सफलता प्राप्त कर पाती है। किसानों की बेचारगी का मुद्दा कोई नया नहीं है मगर आर्थिक उदारीकरण के दौर में यह ज्यादा उलझ गया है। खुदरा क्षेत्र में विदेशी कम्पनियों को छूट देने के बावजूद यह अवधारणा गलत साबित हो चुकी है कि इससे कृषि जगत को लाभ पहुंच सकता है। अगर हम गौर से देखें तो कांग्रेस व भाजपा की आर्थिक नीतियों में गुणात्मक अन्तर नहीं है बल्कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का मूल सिद्धान्त जनसंघ का ही है जिसे इसके संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1951 में अपनी पार्टी की स्थापना करते हुए इसके घोषणापत्र में डाला था और पं. नेहरू ने एक सिरे से खारिज करते हुए मिश्रित अर्थव्यवस्था का भारत मूलक फार्मूला लागू किया था परन्तु 1991 में स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव ने इसे पूरी तरह उलट कर लालकिले से ही ‘विदेशी निवेश’ का राग छेड़ दिया और इसके साथ ही भारत की राजनीति में आधारभूत परिवर्तन आना इस तरह शुरू हुआ कि इसमें किसान और कृषि क्षेत्र खुद को लावारिस पाने लगा परन्तु 2004 में जब डा. मनमोहन सिंह की सरकार में कमलनाथ वाणिज्य मन्त्री बने तो सब कुछ इस तरह पलट चुका था कि भारत के विश्व व्यापार संगठन के सदस्य होने की वजह से कृषि क्षेत्र में परिमाणिक प्रतिबन्ध (क्वां​टि​टिव रेस्ट्रिक्शंस) समाप्त हो चुके थे अर्थात कोई भी देश कितना ही कृषिजन्य उत्पादों का निर्यात कर सकता था।

इसका जवाब शुरू में एंटी डम्पिंग ड्यूटी (बाजार में विदेशी अनाज या कृषिजन्य उत्पाद भरने के खिलाफ शुल्क लगाने की छूट) लगाकर ढूंढा गया मगर पश्चिमी विकसित देशाें ने इसका तोड़ भारत में किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को समाप्त करने का ढूंढा। इस पर फैसला हो ही जाता मगर उस दौर में श्री कमलनाथ ने वाणिज्य मन्त्री रहते जिस प्रकार की चतुराई और दृढ़ता से सभी विकासशील देशों को अपने साथ लेकर भारत के किसानों और कृषि क्षेत्र के हितों की रक्षा की उसका पालन बाद में नहीं हो सका। उन्होंने तब साफ कहा कि भारत के किसानों को भी वे ही हक प्राप्त करने का अधिकार है जो यूरोप के किसानों को मिले हुए हैं।

वहां के देशों की सरकारें उन्हें भारी मिकदार में परोक्ष रूप से सब्सिडी देती हैं जिसकी वजह से उनका माल भारत जैसे देशों के बाजारों में सस्ता पड़ता है। अतः व्यापार संगठन किस तरह अपेक्षा कर सकता है कि भारत व अन्य कृषि आधारित देश अपने किसानों की सब्सिडी में कटौती करें। भारत में कृषि पर सिर्फ किसान ही निर्भर नहीं करता बल्कि इससे जुड़े तिगुने के लगभग लोगों का रोजगार खेतों की हालत पर निर्भर करता है। दरअसल किसानों को उनकी उपज का समुचित मूल्य देने की बहस ने भारत में वाजपेयी सरकार के सत्ता में रहते इसलिए जोर पकड़ा था कि उस दौरान भारत अन्न उत्पादन में पुराने रिकार्ड तोड़ रहा था और परिमाणिक प्रतिबन्ध समाप्त हो जाने की वजह से किसानों को उनकी उपज का दाम औना-पौना ही मिल पा रहा था और आढ़तियों की मौज आयी हुई थी और इसके समानान्तर सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा था।

इसी वजह से नवम्बर 2004 में मनमोहन सरकार ने कृषि सम्बन्धी स्वामीनाथन आयोग की स्थापना की किन्तु वर्तमान में किसानों की कर्ज माफी समस्या का स्थायी हल नहीं हो सकता जब तक कि राष्ट्रीय स्तर पर यह फैसला न किया जाये कि खेती को लाभप्रद व्यवसाय बनाने के लिए उपज मूल्य का वह फार्मूला लागू किया जायेगा जिसमें किसान की जमीन की कीमत को भी जोड़कर फसल के दाम निश्चित किये जायें। किसान को यदि हम बाजार की ताकतों के भरोसे छोड़ेंगे तो वे उसे कंगाल बनाने से पीछे नहीं हट सकतीं क्योंकि वे तो माल की आवक और सप्लाई का फार्मूला लगा कर ही कीमत तय करेंगी। यही वजह है कि जब जनसंघ के मूल घोषणापत्र में खेती को उद्योग का दर्जा देने की बात कही गई थी तो डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि ‘यह देश वणिक वृत्ति से नहीं चल सकता बल्कि श्रमिक वृत्ति से चलेगा और एक बाल काटने वाले नाई की आमदनी या मकान चिनने वाले कारीगर की आमदनी किसी ठेकेदार की आमदनी से कम नहीं हो सकती और किसी किसान या बुनकर की आमदनी किसी आढ़ती की आमदनी से कम नहीं हो सकती मगर अफसोस इनकी आमदनी तो एक मन्दिर के पुजारी से भी कम होती है।’

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