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चुनावों में हार-जीत का पैमाना

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जब 1971 के एेतिहासिक लोकसभा चुनावों में समूचे विपक्ष ने इकट्ठा होकर सत्तारूढ़ स्व. इं​िदरा गांधी की नई कांग्रेस को पराजित करने का प्रयास किया तो यह प्रयोग पूरी तरह असफल हो गया और स्वतन्त्र पार्टी, जनसंघ, संसोपा व संगठन कांग्रेस का बना चौगुटा चुनावी मैदान में इस प्रकार मुंह के बल गिरा कि इसके साथ खड़े हुए एक से बड़े एक क्षेत्रीय दिग्गज नेता भी परास्त हो गये। इनमें सबसे प्रमुख नाम स्व. चौधरी चरण सिंह का था जो मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साधारण प्रत्याशी कामरेड विजयपाल सिंह से डेढ़ लाख के लगभग मतों से पराजित हो गये थे। इतना ही नहीं इन चुनावों में चौगुटे को देश के पूंजीपतियों और पुराने राजे-रजवाड़ों का पूर्ण समर्थन प्राप्त था। इस मंडली ने भी अपने प्रत्याशी कई स्थानों पर खड़े किये थे। इनमें सबसे प्रमुख नाम देश के सरनाम उद्योगपति स्व. के. के. बिड़ला, जेआरडी टाटा व एच.पी. नन्दा का था। इन तीनों को क्रमशः झुंझुनूं, मुम्बई, फरीदाबाद से नई कांग्रेस के प्रत्याशियों ने शिकस्त दी। गुड़गांव से स्व. नवाब मंसूर अली खां पटौदी उस समय क्रिकेट जगत के शिखर पर थे। उनकी जमानत तक जब्त हो गई। इसकी वजह यह थी कि स्व. इंदिरा गांधी ने जो चुनावी एजेंडा तय कर दिया था उसे भेद पाना संयुक्त विपक्ष के लिए संभव नहीं हो पाया था। वह एजेंडा निश्चित रूप से ‘गरीबी हटाओ’ था। यह कोरा नारा था एेसा भी नहीं था क्योंकि तब इं​िदरा जी ने 14 बड़े निजी बैंकों का रातोंरात अध्यादेश जारी करके राष्ट्रीयकरण करके अपनी ही सरकार के वित्तमन्त्री स्व. मोरारजी देसाई को आश्चर्य में डाल दिया था। मोरारजी देसाई को इस फैसले की खबर अगले दिन अखबारों से मिली थी।

उस समय इलैक्ट्रानिक मीडिया का नामोनिशान तक नहीं था सिवाय दूरदर्शन के। यह फैसला करके इंदिरा जी ने अपनी ही सरकार के अश्तित्व को खतरे में डाल दिया था क्योंकि इसी मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी के भीतर उनके खिलाफ विद्रोह हो गया था और कांग्रेस कार्य समिति ने उनकी पार्टी से प्रारम्भिक सदस्यता तक रद्द कर दी थी। इसके बाद उन्होंने अपनी अलग नई कांग्रेस बना कर कम्युनिस्ट पार्टी की मदद से केन्द्र में सरकार चलाई और इस बीच जब सर्वोच्च न्यायालय ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण को बहुमत के फैसले से अवैध घोषित कर दिया तो उन्होंने समय से पहले ही लोकसभा भंग कराकर चुनावों की घोषणा कर डाली लेकिन इस बीच उन्होंने एक और फैसला किया कि पूर्व राजा-महाराजाओं को अपनी रियासतों का भारतीय संघ में विलय करने पर जो पारितो​िषक रूप में प्रविपर्स व अन्य रियायतें देने का फैसला 1947 में स्व. सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था उसे भी उन्होंने समाप्त कर डाला। समूचे विपक्ष ने इस पर कोहराम मचाया और इन्दिरा गांधी की कार्य प्रणाली को ‘तानाशाह’ की कार्य प्रणाली बताते हुए उनके खिलाफ संसद से लेकर सड़क तक मोर्चा खोल दिया किन्तु तब कांग्रेस पार्टी के युवा तुर्क कहे जाने वाले सांसद स्व. चन्द्रशेखर, मोहन धारिया व अर्जुन अरोड़ा जैसे नेता इंदिरा खेमे में आकर खड़े हो गये और उन्होंने आम जनता के बीच प्रचार किया कि इंदिरा गांधी की नीतियां स्वतन्त्र भारत में आम आदमी का राज कायम करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं।

पूर्व राजा-महाराजाओं ने इसी जनता की मेहनत पर ऐश करने के अलावा कुछ नहीं किया और आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों का साथ देकर भारत के लोगो से विश्वासघात किया। अतः उन्हें अपनी रियासतें भारत में विलय करने का इनाम क्यों दिया जाये। पं नेहरू ने जो लोकतन्त्र इस देश को दिया उसमें इन राजा-महाराजाओं को भी चुनाव लड़ने का अधिकार देकर साफ कर दिया था कि उनकी हैसियत किसी आम मतदाता से ज्यादा ऊपर नहीं हो सकती अतः इंदिरा गांधी द्वारा किया गया फैसला इसी क्रम की अगली कड़ी है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य तब बैंकों की जमा धनराशियों में आम जनता की हिस्सेदारी तय करना था। बैंकों के दरवाजे सामान्य नागरिक के लिए खुलने का यह पहला निर्णायक कदम माना गया परन्तु विपक्ष उस समय आम जनता में व्याप्त इस अवधारणा को बदलने में असमर्थ रहा कि इन्दिरा गांधी की सरकार आम जनता को उसके वे अधिकार लौटा रही है जिसका वादा स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान कांग्रेस पार्टी कर रही थी।

कांग्रेस में जो संगठन कांग्रेस पार्टी बनी थी उसे लोगों ने बड़े-बड़े धन्ना सेठों की पैरोकार के रूप में देखा और चुनावों में अपना फैसला इंदिरा गांधी के हक में इस तरह दिया कि पूरा राजनैतिक जगत चौंक गया। हद यह हो गई थी कि जो लोग कभी कांग्रेस दफ्तरों में दरिया बिछाया करते थे वे भी चुनाव लड़ने पर संसद में पहुंच गये। वास्तव में यह भारतीय राजनीति का पूरी तरह शिखर नीति से जन नीति में रूपान्तरण ( ट्रांसफार्मेशन) था परन्तु जब 1977 में इमरजेंसी लगने के बाद चुनाव हुए तो समूचा विपक्ष पुनः इकट्ठा हुआ। आचार्य कृपलानी और जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में पंचमेल जनता पार्टी का आनन-फानन में गठन हुआ और चुनावी मैदान में यह पार्टी बिना किसी चिन्हित नेता के ही मैदान में उतर पड़ी। इस जनता पार्टी मंे चौधरी चरण सिंह भी थे, अटल बिहारी वाजपेयी भी थे, मोरारजी देसाई भी थे और इंदिरा जी का साथ छोड़कर आये जगजीवन राम व हेमवती नन्दन बहुगुणा भी थे। युवा तुर्क कहे जाने वाले नेता अब जनता पार्टी की तरफ थे।

जनता पार्टी के टिकटों के बंटवारे में भी खूब धकम पेल हो रही थी। स्व. चरणसिंह का इसमें हाथ सबसे ऊपर था। क्योंकि उन्होंने तब तक अपनी पार्टी लोकदल बना ली थी जिसमें स्वतन्त्र पार्टी व संसोपा का विलय हो चुका था। अतः सर्वाधिक जनता पार्टी उम्मीदवार लोकदल कोटे से ही रखे गये। नारा 1977 में भी 1971 की तरह यही था कि इन्दिरा गांधी हराओं। पूरे चुनाव प्रचार के केन्द्र मंे इन्दिरा गांधी और उनकी लगाई गई इमरजेंसी ही थी। दूसरी तरफ इंदिरा गांधी व उनकी पार्टी कांग्रेस के नेता प्रचार कर रहे थे कि इमरजेंसी में महंगाई पूरी तरह गायब हो गई थी। भ्रष्टाचार को समाप्त कर दिया गया था। कानून-व्यवस्था पूरे देश में दुरुस्त कर दी गई थी। बेशक कुछ ज्यादतियां लोगों पर हुई थीं उनके लिए पार्टी खेद प्रकट करती घूमती रही थी परन्तु जब 1977 मंे चुनाव नतीजे आये तो पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस पार्टी का न केवल सफाया हो गया बल्कि स्वयं इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी भी चुनाव हार गये।

रेडियो स्टेशन से यह गाना सुनाई पड़ने लगा कि ‘कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को’ परन्तु एेसा क्यों हुआ? इसका कारण केवल एक ही था कि भारत के लोग जिस प्रजातन्त्र को लाने के लिए अंग्रेजों से लड़े थे, उसके साथ इंदिरा जी ने इस प्रकार प्रयोग किया था कि उनकी जन नीति बन्द कमरे की शिखर नीति में बदल गई थी जिसके राजदार चन्द लोग ही हुआ करते थे। हम जिस भारत के लोकतन्त्र में रहते हैं उसमें सिवाय राष्ट्रीय सुरक्षा के अन्य कोई भी मसला राजदारी में नहीं रह सकता। यह राजदारी केवल आम जनता के साथ रहनी चाहिए अतः लोकतन्त्र हर क्षण हमें जन नीति परक बने रहने की हिदायत अपने हिसाब से देता रहता है और ताईद करता रहता है कि इसमंे ‘जो कुछ है सो तेरा’ अर्थात ‘जनता’ का। लोकतन्त्र में हार-जीत का यह पैमाना कभी न बदला है और न कभी बदलेगा क्योंकि यह जनता का तन्त्र है।

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